उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा: जिसके लिये तनी थीं तलवारें

यह हिन्दुस्तान के इतिहास के उस दौर की दास्तान है जब एक ओर जहां मुगल बादशाहों की शक्तियां ढलान पर थीं और देश के राजे-रजवाड़े अपना वर्चस्व क़ायम करने के लिए एक-दूसरे से लड़-भिड़ रहे थे। दूसरी ओर ईस्ट इंडिया कंपनी अपने पांव पसारने की जुगत में लगी हुई थी। इस पृष्ठभूमि में राजकुमारी कृष्णा का प्रसंग आता है । वैसे तो राजकुमारी का सम्बंध राजस्थान की रियासत उदयपुर से था लेकिन इसके बावजूद देश की राजनीतिक परिदृश्य पर उसके दूरगामी प्रभाव पड़े।

राजकुमारी कृष्णा कुमारी (10 मार्च, 1794 – 21 जुलाई, 1810) जांबाज़ योद्धाओं और शूरवीरों की भूमि के रूप में प्रसिद्ध राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र के उदयपुर राज्य के राजा भीम सिंह की पुत्री थी। अपने पिता राजा भीम सिंह और जन्मभूमि उदयपुर की आन, बान और शान की रक्षा के लिए राजकुमारी कृष्णा ने हंसते हुए विष का प्याला पीकर अपनी जान न्यौछावर कर दी थी। इसी वजह से आज भी राजस्थान में उसकी गौरव-गाथा को बड़ी श्रद्धा के साथ याद किया जाता है।

राजकुमारी कृष्णा सुंदरता की मूरत थी। सूर्ख गुलाब की तरह उसके खिले चेहरे पर कुलीनता की दमक और उसकी चाल-ढ़ाल तथा व्यवहार की नफ़ासत कुछ ऐसी थी कि तब के इतिहासकारों ने उसे ‘राजस्थान का फूल’ कहा था। लेकिन दुर्भाग्य से उसकी यही खु़बसूरती न सिर्फ एक बड़े विवाद का कारण बनी, बल्कि उसकी मौत का सब़ब भी बन गई।

राजा भीम सिंह ने अपनी पुत्री राजकुमारी कृष्णा की शादी कम उम्र में ही (सन 1799) में मारवाड़ क्षेत्र के, जोधपुर के राजा राव भीम सिंह से तय कर दी थी। लेकिन इस विवाह के तय होने के मात्र चार वर्षों के बाद जोधपुर के राजा राव भीम सिंह की मृत्यु हो गई। फिर क्या था, अति सुंदर राजकुमारी कृष्णा का हाथ थामने के लिए राजस्थान के रजवाड़ों के बीच मानों होड़-सी मच गई। कृष्णा के चहेतों के बीच प्रतिद्वंदिता इस हद तक बढ़ गई कि उसने भीषण युद्ध की शक्ल इख़्तियार कर ली।

जिसमें न सिर्फ़ उदयपुर, जोधपुर और जयपुर के शासक, बल्कि ग्वालियर के दौलतराव सिंधिया और इंदौर के यशवंत राव होलकर के अलावा टोंक के पठान नवाब अमीर खान पिंडारी भी कूद पड़े थे। दूसरी ओर हिंदुस्तान में अपने पैर पसारने की जुगत में लगे अंग्रेज़ भी इस विवाद पर नज़रें गड़ाए हुए थे। इस बात का अंदाज़ा ईस्ट इंडिया कंपनी के अकांउटेंट जनरल हेनरी जॉर्ज टकर के उस पत्र से लगाया जा सकता है जो उसने राजकुमारी कृष्णा के प्रकरण के बारे में कंपनी के चेयरमैन सर जॉर्ज ए. रॉबिन्सन को लिखा था।

एकाउंटेंट जनरल जॉर्ज टकर कंपनी के चेयरमेन को लिखा था, ‘उदयपुर की राजकुमारी का हाथ कौन थामेगा, इस बात का फ़ैसला करने के लिए राजपूत राजा हथियार उठाने पर आमादा हैं। और, चूंकि सिंधिया इसमें गहराई से रूचि ले रहा है और ऐसा समझा जाता है, कि इस युवती के भाग्य निर्धारण में होलकर भी तटस्थ नहीं रह सकता है; ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि वह (राजकुमारी कृष्णा) हमारे पक्ष में मनचाहा मोड़ लाएगी।’ अंत में हुआ भी यही। रजवाड़ों के बीच उठी एक-दूसरे पर हावी होने की होड़ से मजबूर होकर उदयपुर को अंग्रेज़ों की शरण में जाना पड़ा। बाद में इसमें शामिल अन्य रजवाड़े भी ब्रिटिश अधीनता स्वीकार करने पर विवश हुए।

राजकुमारी कृष्णा की त्रासद-कथा अर्थात ‘ट्रेजिडी’ से न सिर्फ़ सामान्य जनमानस, बल्कि इतिहासकार, लेखक और बुद्धिजीवी वर्ग भी बेहद दुखी हुए थे। एडवर्ड थॉमसन अपनी पुस्तक ‘मेकिंग ऑफ़ द इंडियन प्रिंसेस’ में लिखते हैं कि ‘उसकी (राजकुमारी कृष्णा की) कहानी किसी संस्कृत महाकाव्य में वर्णित उस मार्मिक घटना की तरह है जिसने भारतीय जनमानस को झकझोर कर रख दिया है।’ जुलाई, सन 1810 में राजकुमारी कृष्णा की ज़हर पीने से हुई मौत के ठीक चार महीने बाद नवम्बर, सन 1810 में प्रकाशित ‘एशियाटिक एन्युअल रजिस्टर’ लिखता है कि ‘हाल के दिनों में हिंदुस्तान में घटी सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में उदयपुर की राजकुमारी की ज़हर पीने से हुई मौत है। उसका हाथ थामने की होड़ में उदयपुर और जयपुर के राजाओं के बीच यह लड़ाई हुई।’

जाने-माने इतिहासकार लेफ़्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘एन्नाल्स एण्ड एंटिक्विटी ऑफ राजस्थान’, के.एस. गुप्ता ने ‘मारवाड़ एण्ड द मराठा रिलेसंस’, एडवर्ड थॉमसन ने ‘द मेकिंग ऑफ द इंडियन प्रिंसेस’, डॉ. डी.के. गुप्ता और एस.आर. बख़्शी ने ‘राजस्थान थ्रू द एजेज़’ और गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी किताब ‘उदयपुर का इतिहास’ तथा ‘पूना रेजिडेंसी करसपोंडेंस’ में राजकुमारी कृष्णा की घटना का प्रमुखता से वर्णन किया गया है।

राजकुमारी कृष्णा की सगाई से उठा विवाद बाद में एक भीषण युद्ध में तब्दील हो गया था।उसकी शुरुआत तब से हो गई थी जब राज कुमारी कृष्णा के मंगेतर, जोधपुर के राजा राव भीम सिंह की असामयिक मृत्यु के बाद, उसके पिता ने उसकी सगाई जयपुर के राजा जगत सिंह के साथ तय कर दी थी । यह सगाई जोधपुर के राजा मान सिंह, जो राव भीम सिंह की मृत्यु के बाद वहां की गद्दी पर बैठा था, को नागवार गुज़री।

मान सिंह ने जयपुर के राजा जगत सिंह के साथ कृष्णा की शादी का विरोध इस बिना पर किया चूंकि राजकुमारी कृष्णा का विवाह पूर्व में जोधपुर के राजा से तय हुआ था, इस कारण वह जोधपुर की ‘मांग’ थी। राजा मान सिंह का कहना था, कि राजकुमारी की शादी उस के अलावा किसी दूसरे से नहीं होनी चाहिए। राजा मान सिंह, जयपुर के राजा जगत सिंह से इस लिए भी नाराज़ था कि जगत सिंह ने जोधपुर के तख़्त के उत्तराधिकार की लड़ाई में मान सिंह के दुश्मन की हिमायत की थी। लेकिन उदयपुर के राजा भीम सिंह ने मान सिंह की दलील पर कोई ध्यान नहीं दिया और अपने दरबारियों को, जगत सिंह के साथ अपनी बेटी की सगाई की रस्म अदा करने लिए जयपुर रवाना कर दिया।

इस बात से नारज़ होकर मान सिंह ने नज़राना पेश कर ग्वालियर के शासक दौलत राव सिंधिया को अपने पक्ष में कर लिया और उदयपुर पर हमला करने की धमकी दे डाली। उस समय राजकुमारी कृष्णा की सगाई की रस्म अदा करने के लिए जयपुर जा रहे राजा भीम सिंह के लोग, उदयपुर की रियासत में पड़नेवाले शाहपुरा नामक स्थान से गुजर रहे था । वहां के जागीरदार का नाम अमर सिंह था। सिंधिया के कमांडर सरोज राव घटगे की मदद से, मान सिंह ने शाहपुरा के जागीरदार अमर सिंह पर दबाव डाला कि वह भीम सिंह के लोगों को वापस उदयपुर भेजने की कोशिश करे।

रजवाड़ों के बीच बढ़ते संघर्ष को देखते हुए और राजपूत-राजनीति में हस्तक्षेप की मंशा से सिंधिया ने उदयपुर के राजा भीम सिंह को सलाह दी, कि वह अपनी एक बेटी की शादी जोधपुर के मान सिंह से और दूसरी बेटी की शादी जयपुर के जगत सिंह से कर दे ताकि मामले का निपटारा हो जाए। पर भीम सिंह को यह प्रस्ताव मंज़ूर नहीं था । तभी भीम सिंह की सहायता के लिए जगत सिंह की सेना जयपुर से उदयपुर आ पहुंची । इसी वजह से भीम सिंह का हौसले और बढ़ गए और उसने सिंधिया के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

नाराज सिंधिया ने उदयपुर पर हमला बोल दिया और भीम सिंह को संधि करने पर मज़बूर कर दिया। यहां तक कि सिंधिया ने राजकुमारी कृष्णा से विवाह करने तक का प्रस्ताव रख डाला, जिसपर न तो राजपूत तैयार हुए और खुद सिंधिया की पत्नी बैजाबाई ने भी इसका विरोध किया। उधर सिंधिया के प्रतिद्वंदी, इंदौर के मराठा शासक यशवंत राव होलकर ने भी राजपूतों के मामलों में दख़लंदाज़ी की मंशा से नज़राना वसूल करने की कोशिश की । लेकिन भीम सिंह ने दोनों में से किसी भी मराठा शासक को कोई भी राशि देने से इनकार कर दिया। राजपूतों के साथ होलकर की नाराज़गी की आशंका को भांपते हुए सिंधिया ने इस प्रकरण से अपने हाथ खींच लिए। सिंधिया के परिदृश्य से ओझल होते ही होलकर ने मामले में मध्यस्थता की कोशिश करते हुए ,यह सलाह दी कि राजकुमारी कृष्णा का विवाह मान सिंह या जगत सिंह की बजाय किसी तीसरे से करा दिया जए।

लेकिन जगत सिंह कृष्णा से शादी करने की ज़िद पर अड़ा रहा और उसने होलकर के साथ एक समझौता करके उसे इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करने के लिए राज़ी कर लिया। उसने होलकर को इस बात के लिए भी मना लिया कि अगर सिंधिया जयपुर पर हमला करता है तो वो सिंधिया का साथ देगा। इसके अलावा जगत सिंह ने सिंधिया को भी एक बड़ी राशि देने का वादा करके, उसे भी अपनी तरफ़ मिला लिया। इसी के साथ उसने, बीकानेर के सूरत सिंह और टोंक के अमीर खान पिंडारी का साथ सुनिश्चित कर लिया। उधर मान सिंह ने भी होलकर को अपनी तरफ़ मिलाने की जुगत लगाई, पर होलकर ने तटस्थ रहने का निर्णय लेना उचित समझा।

इस तरह राजकुमारी कृष्णा को पाने के लिए हर पक्ष अपनी-अपनी कमान तानकर खड़ा हो गया और विवाद की चिंगारी ने अंदर-ही-अंदर सुलगते हुए भीषण अग्नि का रूप ले लिया। युद्ध के बिगुल बजा दिए गए। जगत सिंह अपनी विशाल सेना, जो संख्या में जयपुर से निकली सबसे बड़ी सेना थी, को लेकर जयपुर से जोधपुर की ओर कूच कर दिया। जगत सिंह ने जोधपुर के दिवंगत राजा राव भीम सिंह (जिससे राजकुमारी कृष्णा की पूर्व में शादी तय हुई थी) के पुत्र ढोंकल सिंह को वहां का शासक घोषित कर दिया। अंदरूनी कलह के कारण मान सिंह पूरी ताक़त के साथ जगत सिंह का मुक़ाबला न कर पाया और युद्धभूमि से भागकर जालौर चला गया।

जयपुर पर जगत सिंह का क़ब्ज़ा तो हो गया, पर किन्ही कारणों से, उसे वापस जोधपुर जाना पड़ा।उधर सिंधिया, जगत सिंह पर नज़राना दा करने का दवाब बना रहा था, लेकिन होलकर की सलाह पर उसने नज़राना देने से इनकार कर दिया। इससे नाराज़ होकर सिंधिया एक बड़ी राशि वसूलने की मंशा से जयपुर की ओर आक्रमण करने के लिए बढ़ चला। इसी के साथ सिंधिया ने उदयपुर पर भी धावा बोल दिया और भीम सिंह को पराजित कर दिया।

घटनाक्रम के इस मोड़ पर इस विवाद में एक ऐसे शख़्स का प्रवेश हुआ जिसके कारण पूरे प्रकरण में ऐसी उथल-पुथल मच गई कि यह त्रासदी की एक दास्तान बन गई। इस शख़्स का नाम था नवाब अमीर खान पिंडारी जो टोंक का शासक था।

अमीर खान एक ऐसे ख़ूंख़्वार मिज़ाज का व्यक्ति था जिसे भारतीय इतिहास में अब तक के सबसे ज़ालिम खलनायक की संज्ञा दी गई है। उसके बारे में कहा जाता है कि ‘जूडास’ की तरह जिसे वह प्यार से चूमता था, उसकी पीठ में खंज़र भोंकने में उसे पलभर की भी देर नहीं लगती थी। पैसे के लिए वह किसी का भी दोस्त और किसी का भी दुश्मन बनने में गुरेज़ नहीं करता था। और हुआ भी यही। पहले तो वह पैसे लेकर जगत सिंह के पक्ष में खड़ा हुआ, लेकिन मान सिंह ने उससे भी ज्यादा राशि की पेशकश कर डाली, तो फिर वह उससे जा मिला।

अमीर खान के पास जांबाज़ सैनिकों के दस्ते के साथ हथियारों का ऐसा ज़ख़ीरा भी था जिसके कारण दुश्मनों पर क़हर की तरह टूटकर उन्हें नैस्तनाबूद कर डालता था। मान सिंह के पक्ष में आते ही सबसे पहले तो उसने उसकी (मान सिंह की) जयपुर की गद्दी पर दावेदारी पक्की करा दी। उसके बाद उदयपुर और जयपुर से फिरौती की मांग कीष मांग पूरी न होने पर उदयपुर पर हमला बोल दिया। संयोग की बात है कि उस समय उदयपुर के राजघराने के अंदरखाने में राजनीतिक वर्चस्व की होड़ मची हुई थी जिस की वजह से उदयपुर की सेना अमीर खान को कड़ी टक्कर नहीं दे पाई। अमीर खान ने उदयपुर को घेरकर वहां के गांव-क़स्बों में विध्वंस की लीला प्रारंभ कर दी।

पठान अमीर खान और जोधपुर के राजा मान सिंह के बीच हुए समझौते के तहत, राजा मान सिंह की शादी हर हाल में राजकुमारी कृष्णा के साथ होनी थी। लेकिन शातिर अमीर खान यह बात भलीभांति समझता था कि अपनी आन, बान और शान के लिए मर-मिटने के लिए हमेशा तैयार उदयपुर के सिसोदिया राजपूत इसके लिए झुकने को क़तई तैयार नहीं होंगे। शातिर दिमाग़ अमीर खान ने एक ख़तरनाक योजना बनाई कि क्यों न इस फ़साद की जड़ कृष्णा कुमारी को ही रास्ते से हटा दिया जए। इस काम के लिए उसने राजा भीम सिंह के दरबार के एक विश्वासपात्र व्यक्ति अजीत सिंह को मोहरा बनाया जो अत्यंत महत्वाकांक्षी था और स्वार्थ के लिए कुछ भी करने को तैयार हो सकता था।

अजीत सिंह के मार्फ़त अमीर खान ने राजा भीम सिंह को यह संदेश भिजवाया कि यदि वह उदयपुर की सलामती चाहता है और इसे तबाही से बचाना चाहता है तो उसे अपनी बेटी कृष्णा कुमारी की क़ुर्बानी देनी होगी। क्योंकि इस युद्ध में कोई भी पक्ष अपने दावे से पीछे हटने को तैयार नहीं है। क्रूर पठान के इस अप्रत्याशित प्रस्ताव की बात सुनकर भीम सिंह उलझन में पड़ गया। क्योंकि एक राजा होने के नाते उसपर अपने राज्य की सलामती का दायित्व था तो दूसरी तरफ़ एक उसके सामने अपनी मासूम बेटी का चेहरा था।

वह अपने आपको बेहद मजबूर महसूस कर रहा था। अंत में एक स्वाभिमानी राजा ने यह निर्णय लिया कि राज्यहित में उसे अपनी बेटी की कुर्बानी देनी ही होगी। राजकुमारी कृष्णा की मौत का प्रकरण बड़ा ही हृदयविदारक और मार्मिक है जिसका इतिहासकार कर्नल टॉड ने अपनी पुस्तक ‘एन्नाल्स एण्ड एंटिक्विटी ऑफ राजस्थान’ में बेहद जीवंत वर्णन किया है। कर्नल टॉड उन दिनों राजस्थान के राजपूताना क्षेत्र में ब्रिटिश गवर्नर जनरल के पालिटिकल एजेंट थे और ये सारी घटना उनकी नज़रों के सामने से गुज़री थी। कर्नल टॉड बताते हैं कि राजकुमारी कृष्णा को मौत की निंद सुलाने का मामला उदयपुर राजवंश की मर्यादा से जुड़ा था, इस लिए सबसे पहले यह ज़िम्मेदारी राजघराने से जुड़े पुरूषों को सौंपी गई। लेकिन जब वे इस जघन्य काम को अंजाम देने में नाकाम हो गए तो आखिर में हरम की एक महिला को यह जिम्मेदारी सौंपी गई।

सबसे पहले इस काम के लिए राणा परिवार के वंशज महाराजा दौलत सिंह को बुलाया गया। जब दौलत सिंह को उदयपुर की इज़्ज़त का वास्ता देकर राजकुमारी कृष्णा को मौत के घाट उतारने के बारे में बताया गया, तो उसने विचलित होकर भरे मन से कहा, ‘वो ज़ुबान कटकर क्यों नहीं गिर गई, जिसने ऐसी बात कही! अगर, मुझे अपनी निष्ठा बरक़रार रखने क् लिए ऐसा काम करने पड़े तो मुझसे बढ़कर अभागा और कोई नहीं होगा।’ राजकुमारी कृष्णा को मौत की निंद सुलाने के काम को अंजाम देने में महाराजा दौलत सिंह के इनकार के बाद रिश्ते में कृष्णा के भाई, महाराजा जीवनदास को बुलाकर उदयपुर पर छाए संकट के बादल की दुहाई दी गई।

जीवनदास ने इस काम को अंजाम देनी की हामी भरते हुए हाथ में खंजर थाम लिया। लेकिन जब वह कृष्णा के समक्ष पहुंचा तो राजकुमारी का खिला हुआ मासूम चेहरा देख कुछ इस तरह विचलित हो गया कि उसके हाथ से खंजर गिर पड़ा । बदहवास जीवनदास वहां से उल्टे पांव वापस आ गया।

कर्नल टॉड बताते हैं कि जब कृष्णा की हत्या की योजना के बारे में उसकी मां को पता चला तो उसकी हृदयविदारक चीख से पूरा राजमहल थर्रा उठा। दुखिया माता ने न जाने किस-किस के पास जाकर अपनी मासूम बेटी की ज़िंदगी बख़्शने की गुहार लगाई। पर बेकार। मसला उदयपुर की मान-मर्यादा, इज़्ज़त और रक्षा का जो था। बात थोड़ी देर के लिए थम तो जरुर गई, पर रोकी न जा सकी।

दो बार की कोशिशों की नाकामी के बाद राजकुमारी कृष्णा की जीवनलीला समाप्त करने की ज़िम्मेवारी अब हरम की एक महिला को दी गई, जिसने ज़हर का प्याला तैयार किया। जब इस प्याले को कृष्णा के समक्ष यह कहकर पेश किया गया कि इसे उसके पिता ने भेजा है तो सबसे पहले उसने पूरी श्रद्धा के साथ सिर झुका कर अपने पिता के लिए प्रार्थना की, फिर अपने राज्य उदयपुर की सलामती की कामना की, और, एक घूंट में उस ज़हर को अपने गले के नीचे उतार लिया।

यह सब देखकर राजकुमारी कृष्णा की मां विचलित होकर विलाप करते हुए राजकुमारी कृष्णा के हत्यारों को लानतें भेजने लगी। लेकिन कृष्णा की आंखों से आंसू की एक बूंद तक नहीं टपकी। उल्टे उसने अपनी दुखी माता को ढांढस बंधाते हुए कहा, ‘मां, तुम रो क्यों कर रही हो। मैं मृत्यु से नहीं डरती। ये तो मेरे जीवन के दुखों के अंत की घड़ी है। हम क्षत्राणियों के ललाट पर जन्म के समय ही मौत की लकीरें खींच दी जाती हैं। हम तो दुनिया में आते ही हैं दूसरी दुनिया में भेज दिए जाने के लिए! मैं तो अपने पिता का शुक्रगुज़ार हूँ, कि उन्होंने मुझे इतने दिनों तक इस दुनिया में रहने के अवसर प्रदान किए।’ राजकुमारी कृष्णा अपनी माता को सांत्वना देते जा रही थी। पर ये क्या?! जहर का घूंट हलक से तो उतर गया, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। इतिहासकार कर्नल टॉड बताते हैं कि पहली ख़ुराक़ के विफल हो जाने के बाद, ज़हर के दो प्याले कृष्णा को दिए गए। टॉड कहते हैं कि ईश्वर की न जाने क्या मर्ज़ी थी कि इनका भी उसपर कोई असर न हुआ और मौत ने उसे गले लगाने से इनकार कर दिया।

तीन-तीन प्रयासों के बावजूद राजकुमारी कृष्णा के जीवित बच जाने का समाचार जब खून के प्यासे क्रूर पठान अमीर खान तक पहुंचा तो उसकी बेचैनियां और बढ़ गईं। उधर उदयपुर का राजमहल अपनी बरबादी की आशंका से सहमा जा रहा था। इस बार फिर कोई चूक न होने पाए, इसलिए वहाँ घातक तैयारियां शुरू हो गईं थीं। इस बार उसे घातक ज़हर ‘कुसुम्बा’ का घूंट देने का निर्णय लिया गया। ज़हरीली जड़ी-बूटियों और फूल-पत्तियों को अफ़ीम में मिलाकर कुसुम्बा नामक ज़हर को तैयार कर राजकुमारी कृष्णा के सामने पेश किया गया। इस मार्मिक घड़ी में कर्नल टॉड जैसे संजीदा इतिहासकार भी अपने दिल की भावनाओं को रोक नहीं सके। भरे मन से टॉड लिखते हैं, ‘राजकुमारी कृष्णा ने मुस्कुराते हुए उस ज़हर के प्याले को अपने हाथों में थामकर उदयपुर पर घिरे संकट के बादल के टलने की कामना की। और, उस घातक ज़हर की घूंट को अपने गले के नीचे उतार दिया। इस तरह ज़ालिमों की ख़्वाहिशें तो पूरी हो गईं, लेकिन मासूम-सी कृष्णा एक ऐसी निंद सो गई जिससे कोई दोबारा नहीं उठ सकता।’

राजकुमारी कृष्णा की मृत्यु का वाक़िया इतना त्रासद (ट्रैजिक) रहा कि इस घटना की पटकथा लिखनेवाला क्रूर पठान अमीर खान भी इसे अपने ज़ेहन से मिटा नहीं सका। अमीर खान ने फ़ारसी में अपने संस्मरण लिखे थे , जिसका सन 1832 में कोलकाता से अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित हुआ था। अमीर ख़ान कहता है, ‘(उस दिन) किशन कोमारी (कृष्णा कुमारी) ने शालीनतापूर्वक नए वस्त्र धारण किए और विष को पी लिया।

इस तरह उसने शोहरत और लोगों की प्रशंसा अर्जित करते हुए अपने अमूल्य जीवन का अंत कर दिया।’ राजकुमारी कृष्णा की मृत्यु के बाद शोक में डूबी उसकी माता ने खाना-पीना छोड़ दिया और कुछ ही दिनों में उसने भी प्राण त्याग दिए। दूसरी ओर अपने स्वार्थ की पूर्ति करने के लिए, अपनी क़ौम से विश्वासघात करके पठान अमीर खान का मोहरा बने अजीत सिंह को हिक़ारत के सिवा कुछ न मिला। जब अजीत सिंह शाबाशी मिलने की उम्मीद में, कृष्णा की मौत की सूचना देने अमीर खान के पास पहुंचा तो उसने हिक़ारत की नज़रों से अजीत सिंह की ओर देखते हुए इस तरह की फ़ब्तियां कसीं, ‘क्या यही एक राजपूत का शौर्य है, जिसकी प्रशंसा में बड़े-बड़े क़सीदे लिखे गए हैं।’ कायर अजीत सिंह को अपने राजपूत क़ौम की भी लानतें झेलनी पड़ीं।

इस तरह राजकुमारी कृष्णा के प्रकरण में भले ही उसकी जान तो चली गई, लेकिन किसी को कुछ भी हासिल न हुआ। पठान अमीर खान, चुण्डावत प्रमुख और मराठा शासक बाद में मेवाड़ पर वर्चस्व के लिए आपस में भिड़ गए जिसके कारण अंत में उदयपुर राज्य को ब्रिटिश हुक्मरानों की शरण में जाना पड़ा और जनवरी, सन 1818 में अंग्रेज़ों की अधीनता स्वीकार कर ली। एक दशक के बाद इस विवाद में शामिल अन्य पक्षों का भी यही हश्र हुआ।

इतिहासकारों और विद्वानों ने राजकुमारी कृष्णा के प्रसंग का आंकलन बड़ी ही संजीदगी से किया है। इतिहासकार कर्नल टॉड ने इस घटना की तुलना ग्रीक मिथकों में वर्णित दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत युवती ट्रॉय राज्य की राजकुमारी हेलेन (जिसकी वजह से ट्रोजन का विश्वप्रसिद्ध युद्ध हुआ था) और टाऊरिस की युवा राजकुमारी ईफ़ीजीनिया (जिसके पिता अगामेनोन ने अपने देश की रक्षा के लिए अपनी पुत्री ईफ़ीजीनिया को बलिवेदी पर चढ़ा दिया था), से की है।

राजकुमारी कृष्णा की दुखांत कथा से न सिर्फ सूबा राजस्थान और हिंदुस्तान के लोग विचलित हुए बल्कि जब यह कहानी जॉन माल्कन की पुस्तक ‘ए मेमॉयर ऑफ़ सेंट्रल इंडिया’ के ज़रिए ब्रिटेन के बुद्धिजीवियों तक पहुंची तो वहाँ का प्रबुद्ध वर्ग भी पीड़ा से आहत हो उठा। वहाँ की कवयित्री कैथरिन एलिज़ा रिचर्डसन ने जहां इस घटना को ‘किशन कुंवर’ शीर्षक से अपनी कविताओं में उतारा वहीं लेटिटिया एलिजाबेथ लेण्डोन ने भी इसी नाम के अपनी ‘किशन कुंवर’ नामक कृति में इस दर्द भरी दास्तान को बयां किया।

राजकुमारी कृष्णा की कथा पर गहराई से शोध और अध्ययन करनेवाले राजस्थान के सूरतगढ़ कॉलेज के डॉ. विद्यानंद सिंह बताते हैं कि उदयपुर पैलेस के जिस महल में कृष्णा रहती थी, उसकी यादों को संजोते हुए उसके पिता राजा भीम सिंह ने स्मारक भवन में तब्दील कर दिया था जो आज भी उसके अतुल्य बलिदान की मौन गवाही देता नज़र आ रहा है।

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