मंटो के टोबा टेक सिंह की कहानी 

सआदत हसन मंटो 20वीं शताब्दी के मशहूर भारतीय (बाद में पाकिस्तानी) उर्दू के लेखक थे जो अपनी कहानियों में समाज के कड़वे सत्य के कथानक के लिये प्रसिद्ध थे। वह ऐसे विषयों पर कहानियां लिखते थे जिनके बारे में उस समय के लोग बात करने की भी हिम्मत नहीं करते थे। सन 1947 के भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद उन्होंने सन 1955 में अपनी मृत्यु तक बंटवारे की विभीषिका के बारे में ख़ूब लिखा। इन्हीं कहानियों में एक कहानी है टोबा टेक सिंह।

कहानी “टोबा टेक सिंह” बंटवारे पर एक करारा व्यंग है। ये कहानी बंटवारे के कुछ समय के बाद की है जब भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने मानसिक रुप से विक्षिप्त मुस्लिम और हिंदु-सिखों की अदला बदली करने का फ़ैसला किया। ये कहानी लाहौर के पागलख़ाने में भर्ती बिशन सिंह के बारे में है जो टोबा टेक सिंह शहर का रहने वाला था । पागलों की अदला बदली के तहत बिशन सिंह को पुलिस के साथ भारत भेजा जाना था लेकिन जब उसे बताया गया कि उसका पैतृक नगर टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है, तो वह भारत जाने से इंकार कर देता है। कहानी का अंत बहुत मार्मिक है। बिशन सिंह दो कंटीली तारों से बनी सरहदों के बीच उस जगह लेटा हुआ था जो न तो भारत में है और न ही पाकिस्तान में जिसे नो मेंस लैंड कहा जाता है।: “…वहां,कंटीली बाड़ के पीछे हिंदुस्तान था। यहां, कंटीली बाड़ के पीछे पाकिस्तान था। दोनों के बीच में, ज़मीन के एक बेनाम टुकड़े पर टोबा टेक सिंह पड़ा हुआ है।” ये कहानी मंटो की सबसे मशहूर कहानियों में से एक है जो अमर हो चुकी है। इस पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई नाटक नाटक प्रस्तुत किये जा चुके हैं और इसी नाम से एक बॉलीवुड फ़िल्म भी बन चुकी है।

कहानी में जिस टोबा टेक सिंह शहर का ज़िक्र है, वो शहर आज पाकिस्तान के पंजाब सूबे में है। यहां पाकिस्तान की प्रांतीय राजधानी लाहौर से सड़क के ज़रिये तीन घंटो में पहुंचा जा सकता है। टोबा टेक सिंह जाने के लिये लाहौर लारी अड्डे (बस स्टॉप) से फ़ैसलाबाद के लिये बस लेनी होती है जो लाहौर से 180 कि.मी. दूर है। फ़ैसलाबाद पहुंचने में क़रीब सवा दो घंटे लगते हैं। इसके बाद वहां चाक झुमरा गांव से एक और बस लेनी होती है जो टोबा टेक सिंह पहुंचा देती है, जो चाक झुमरा से 82 कि.मी. दूर है।

ये बात कम ही लोगों को मालूम है कि कहानी में टोबा टेक सिंह नामक जिस शहर का उल्लेख किया गया है वह दरअसल, टोबा टेक सिंह नाम के एक व्यक्ति के सम्मान में ही रखा गया था। ये गांव 18वीं शताब्दी में बसाया गया था । तब यहां आदिवासी रहा करते थे। इस जगह का नाम डेढ़ सौ साल पहले ही पड़ा था।

ये जानना ज़रुरी है कि 19वीं सदी के दौरान पंजाब प्रांत के लयालपुर (अब फ़ैसलाबाद) शहर में एक दरियादिल मज़हबी सिख रहता था जिसका नाम सरदार टेक सिंह था। उस क्षेत्र के ज़मीन के रिकॉर्ड के अनुसार टेक सिंह ने एक छोटे से तालाब (पंजाबी में टोबा) के पास थके हारे और प्यासे राहगीरों के लिये एक सराय बनाई थी जहां उन्हें (राहगीरों को) मुफ़्त में पानी और भोजन दिया जाता था। इसी क्षेत्र को आज टोबा टेक सिंह के नाम से जाना जाता है। टेक सिंह की इन महान सेवाओं की वजह से जल्द ही लोग इस इलाक़े को टोबा टेक सिंह कहने लगे।

ऐसा माना जाता है कि टेक सिंह का एक बेटा था जिसका नाम जय सिंह था। जय सिंह के पांच बच्चे थे जिनमें चार बेटे- किशन सिंह, छतर सिंह, मूल सिंह और बिशन सिंह थे। जय सिंह की एक बेटी भी थी जिसका नाम ज़मीन के रिकॉर्ड में नहीं है। फ़िलहाल अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया शहर में रहने वाले बलविंदर सिंह किशन सिंह के पर पोते हैं और टेक सिंह का वंशज होने का दावा करते हैं।

बलविंदर सिंह का दावा है कि टेक सिंह के इतिहास का संबंध उस समय के सिख साम्राज्य से है। उनके अनुसार टेक सिंह धोस गांव, जो आज पंजाब (पाकिस्तान) के क़सुर ज़िले में चुनियां तहसील (स्थानीय प्रशासनिक सब डिवीज़न) का हिस्सा है, के रहने वाले थे। वह महाराजा रणजीत सिंह की सेना में रिसालेदार थे। कहा जाता है कि एक बार टेक सिंह ने महाराजा के कालगा नाम के एक घोड़े को, एक शेर से बचाया था। इससे प्रभावित होकर महाराजा ने उन्हें जागीर दे दी थी। ये जागीर अथवा ज़मीन 25 हज़ार मुरब्बा थी। उस समय ज़मीन की पेमाइश इसी तरह ही होती थी । एक मुरब्बा का मतलब 25 एकड़ ज़मीन होता था। इस ज़मीन पर टेक सिंह ने एक गांव बसाया जहां एक टोबा (तालाब) भी था। तभी से इस जगह को टोबा टेक सिंह नाम से जाने जाना लगा।

बहरहाल, पंजाब में अंग्रेज़ शासन के आने बाद नयी औपनिवेशिक सरकार ने 19वीं शताब्दी के आने वाले सालों में बाड़ क्षेत्र ( मौजूदा समय में पाकिस्तान में पंजाब का क्षेत्र) में बड़े स्तर पर सिंचाईं परियोजनाएं शुरु कीं। ये सिंचाईं परियोजनाएं एक बड़े क्षेत्र में शुरु की गई थीं जिसमें मौजूदा समय का टोबा टेक सिंह गांव भी आता था।

इस क्षेत्र में कई नहरें थीं जो नदियों से जुड़ी हुईं थीं और इस वजह से यहां की ज़मीन बहुत उपजाऊ थी। बाद में सरकार ने कृषि भूमि की खुली नीलामी की जिसमें पूरे पंजाब के किसानों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और इस तरह ये घनी आबादी वाला इलाक़ा बन गया। सरकारी रिकॉर्ड्स के अनुसार ज़मीन के सभी प्लॉट टोबा टेक सिंह के नाम से बेचे गए थे।

ये भी कहा जाता है कि सन 1900 तक आते आते टोबा टेक सिंह क़रीब क़रीब शहर बन गया था हालंकि वह फिर भी झंग ज़िले की एक तहसील ही था। बाद में सन 1904 में जब झंग से एक नया ज़िला लयालपुर (अब फ़ैसलाबाद) बनाया गया, तब टोबा टोक सिंह उसमें चला गया। ये राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था अगले कई दशक तक चलती रही।

सरकारी डाटा के अनुसार टोबा टेक सिंह में पहले हिंदु-सिखों की अच्छी ख़ासी आबादी थी लेकिन सन 1947 के बंटवारे के दौरान इसका नक्शा ही बदल गया। लगभग सभी हिंदु-सिख परिवार या तो भारत चले गए या फिर बंटवारे के दौरान होने वाले दंगों में मारे गए।

ये जानना ज़रुर है कि 70 के दशक के दौरान कई पाकिस्तानी शहरों, नगरो, आसपास के इलाक़ो और सड़कों के या तो पुराने नाम रख दिए गए या फिर नये नाम रख दिए गए। पहले इनके हिंदु-सिख या फिर ब्रिटिश नाम होते थे। मोंटगोमरी शहर का नाम फिर से साहीवाल कर दिया गया जो मूल नाम था जबकि रामनगर और भाई फेरु जैसे शहरों के नाम बदलकर रसूल नगर और फूल नगर कर दिए गए क्योंकि पाकिस्तान की इस्लामिक सरकार को ये नाम स्वीकार्य थे।

ये बात बेहद दिलचस्प है कि बंटवारे के बाद जहां कई शहरों के नाम बदल दिए गए लेकिन टोबा टेक सिंह उन चंद जगहों में से है जिनका नाम नहीं बदला गया। ये सरदार टेक सिंह की प्रतिष्ठा की वजह से हुआ जिनके नाम पर शहर का नाम पड़ा था। यही नहीं, सन 1982 में टोबा टेक सिंह, जो तहसील हुआ करती थी, को फ़ैसलाबाद ज़िले से निकालकर एक अलग ज़िला बना दिया गया जो अब राजनीतिक रूप से भी अहम हो गया है।

ये भी मालूम होना चाहिये कि रेल्वे लाइन पार करने के बाद शहर की चुंगी, क़रीब एक कि.मी. आगे झांग-सदर रोड पर है जहां दो गुरुद्वारे हैं- एक जंज घर ( हिंदूओं का बारात घर) और एक श्री सनातन सभा मंदिर होता था। लेकिन बंटवारे के दौरान इनकी देखरेख करने वालो के जाने के बाद इनकी शक्ल ही बदल गई।

सन 1948 में स्थानीय लोग एक गुरुद्वारे का इस्तेमाल प्राथमिक स्कूल के रुप में करने लगे जबकि दूसरे गुरुद्वारे और बारात घर में बंटवारे के दौरान भारत से आए प्रवासी रहने लगे। बाद में इन जगहों को ख़ाली करवाकर यहां सरकारी मॉडल स्कूल खोल दिए गए।

ये भी ध्यान देने योग्य बात है कि सन 1992 में जब बाबरी मस्जिद गिराई गई, तब बदले में पाकिस्तान में भी मंदिरों और गुरुद्वारों पर हमले किए गए थे। इस जवाबी कार्रवाई में टोबा टेक सिंह के गुरुद्वारों के गुंबद भी बच नहीं सके। लेकिन इसके बावजूद गुरुद्वारे और बारात घर कम से कम स्कूल के रुप में ही सही, आज सेवा तो कर ही रहे हैं। जिस इलाक़े में ये स्कूल स्थित हैं उसे “जंज घर चौक” कहा जाता है जिसका नाम हिंदू बारात घर के नाम पर रखा गया है, जहां एक स्कूल चलता है।

आज टेक सिंह के सम्मान में उस स्थान पर एक बाग़ है जहां ऐतिहासिक टोबा (तालाब) हुआ करता था और जहां वे राहगीरों की प्यास और भूख मिटाया करते थे। इस पार्क का नाम टेकू पार्क है जो कुछ दशकों पहले बनाया गया था। ये पार्क शहर से गुज़रने वाली टोबा-चिंचावतनी सड़क पर स्थित स्टेशन के बाहर रेल्वे की ज़मीन पर 56-कनाल ट्रैक पर है।

ऐतिहासिक तालाब के अलावा पार्क में दो पुराने कुएं भी हैं। यहां कभी दो ऐतिहासिक बुर्ज भी हुआ करते थे जो अब नही हैं। पार्क के मध्य में टेक सिंह की स्मृति में लाल ईंटों का एक स्मारक भी बनवाया गया है। स्मारक की तख़्ती पर टेक सिंह का इतिहास लिखा हुआ है।

टोबा टेक सिंह शहर दो महान लोगों के योगदान को कभी नहीं भूल सकता। पहला शख़्स वो है जिसने शहर बसाया और करुणा तथा प्रेम का संदेश दिया और दूसरा वो महान लेखक जिसकी वजह से जब भी बंटवारे की विभीषिका पर चर्चा होगी लोग इस शहर को याद करेंगे।

मुख्य चित्र : टोबा टेक फेसबुक

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