पश्चिमी कर्नाटक की हरीभरी पर्वत श्रंख्ला में स्थित है ख़ूबसूरत हिल स्टेशन सकलेशपुर। बेंगलुरु से सड़क मार्ग से यहां पहुंचने में क़रीब चार घंटे लगते हैं । ये हिल स्टेशन बहुत लोकप्रिय है और यहां लोग अक्सर छुट्टी बिताने आते हैं लेकिन काफ़ी लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है कि यहां 18वीं सदी का एक शानदार क़िला भी है जो भारत में फ़्रांसीसी-सैन्य वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना है ।
सन 1792 में मैसूर के शासक टीपू सुल्तान ने मंजराबाद क़िला बनवाया था जो एक तारे की तरह लगता है यानी क़िले के आठ किनारे नुकीले हैं । यह क़िला 3241 फ़ुट ऊंची पहाड़ी पर बना है जहां से शहर का ख़ूबसूरत नज़ारा दिखाई देता है । कहा तो ये भी जाता है कि अगर आसमान साफ़ हो तो क़िले के ऊपर से अरब सागर भी दिखाई पड़ता है।
एक समय इस क्षेत्र पर स्थानीय राजाओं यानी बालाम पालेगारों का शासन हुआ करता था। उनकी राजधानी माणिनागपुरम (मौजूदा समय में एगुर) हुआ करती थी । सन 1659 में माणिनागपुरम पर शिवप्पा नायक का कब्ज़ा हो गया और फिर सन 1792 में ये टीपू सुल्तान के हाथों में चला गया । ये वो समय था जब टीपू सुल्तान ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ रहा था और मैसूर पर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश कर रहा था । इस लड़ाई में मराठा और हैदराबाद के निज़ाम अंग्रेज़ों के साथ थे ।
जब टीपू सुल्तान अपने साम्राज का विस्तार कर रहा था, तभी उसे मैंगलोर बंदरगाह से कुर्ग और अपनी राजधानी श्रीरंगापटनम को जोड़ने वाले हाईवे पर क़ब्ज़ा करने की ज़रुरत मेहसूस हुई । उसने एक ऐसी ऊंची जगह चुनी जहां से एक तरफ़ तो नीचे के मैदानी इलाक़े दिखाई पड़ते थे और दूसरी तरफ़ मलनाड के घाट नज़र आते थे । मंजराबाद क़िला इसी जगह है ।
यहां क़िला बनाने के लिए टीपू सुल्तान ने फ़्रांस के इंजीनियरों की मदद ली थी । फ्रांसीसी, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ थे और उन्होंने एक समय टीपू के पिता हैदर अली का साथ दिया था और सेना को ट्रैनिंग देने में भी मदद की थी ।
यूरोप में ये वो समय था जब फ़्रांसीसी राजा लुईस (XIV) का क़िलाबंदी कमिश्नर और सबसे मशहूर सैनिक इंजीनियर सेबस्ती ले प्रेस्त्रे द् वौबन (1633-1707) का सैन्य वास्तुकला पर बहुत प्रभाव था । युद्ध में तीर-कमान और तलवार की जगह बारुद और तोपों ने ले ली थी । युद्ध के नये हथियारों को देखते हुए वौबन को समय के अनुसार क़िले के डिज़ाइन में बदलाव की ज़रुरत मेहसूस हुई । क़िले की ऊंची और पतली दीवारों की जगह छोटी और चौड़ी दीवारों की ज़रुरत मेहसूस की गई ताकि तोपों का आसानी से इस्तेमाल हो सके ।
नये ज़माने के क़िले की ख़ासियत यह थी कि दीवारों से बाहर की तरफ़ निकले बुर्ज हुआ करते थे । जहां से सैनिक क़िले की दीवार के पास आनेवाले दुश्मनों पर गोली चला सकते थे । इसके पहले पारंपरिक बुर्ज गोलाकार हुआ करते थे जहां से क़िले के पास पहुंचे दुश्मनों पर हमला करना मुश्किल होता था । वौबन ने तीर के आकार के बुर्ज बनाए और दीवारों को ढ़लानदार रखा ताकि ज़रुरत पड़ने पर दुश्मनों पर पत्थर और आग के गोले फ़ेंके जा सकें । वौबन ने मंज़राबाद क़िला कुछ इसी तरह डिज़ाइन किया था ।
क़िले को बनाने में ज़्यादातर ग्रेनाइट पत्थरों और मिट्टी का इस्तेमाल किया गया था । क़िले के चारों तरफ़ गहरा नाला था जिसमें शायद मगरमच्छ और सांप छोड़ दिए जाते होंगे । क़िले की फ़्रांसीसी डिज़ायन में इस्लामिक सजावटी तत्वों का समावेश भी है जिसे क़िले के दरवाज़ों पर बनी मेहराबों और स्तंभों में देखा जा सकता है । क़िले के अंदर सैनिकों की बैरक, शस्त्रागार, स्टोर आदि के लिए भी व्यवस्था थी । क़िले के भीतरी भाग के निर्माण में ऐसी ईंटों का इस्तेमाल किया गया है जो उच्च तापमान को सहने में सक्षम होती हैं । क़िले के बीचों बीच प्लस आकार का टैंक है जहां वर्षा का पानी जमा किया जाता था । स्टोर में दो कमरे हैं जहां बारुद रखा जाता था । ये कमरे गर्मी के मौसम में भी ठंडे रहते थे । क़िले के उत्तर-पश्चिमी और उत्तरी दिशा में धनुषाकार के प्रकोष्ठ बने हुए हैं जहां सैनिक आराम किया करते थे । क़िले के भू-तल में भी हथियार और गोला बारुद रखने की जगह थी ।
माना जाता है कि क़िले के निर्माण के समय पूरा इलाक़े पर गहरा धुंध छा गया था । इसीलिए टीपू ने इसका नाम मंजराबाद रखा । कन्नड में मंजु का मतलब धुंध होता है ।
टीपू सुल्तान नयी नयी पद्धतियों को अपनाने को तैयार रहते थे । मंजराबाद क़िला इसका एक उदाहरण है । इसी तरह टीपू सुल्तान ने दुनियां में पहली बार युद्ध में रॉकेट का इस्तेमाल किया था । अंग्रेज़ टीपू के ‘मैसूरी’ रॉकेट से इतने हैरान और प्रभावित हुए थे कि वो इस टैक्नॉलॉजी को यूरोप ले गए और इसमें कुछ बदलाव करने के बाद सन 1812 में इंग्लैंड और-अमेरिका के बीच हुए युद्ध में इसका इस्तेमाल किया ।
मंजराबाद क़िला हालंकि भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरेख में है लेकिन इसकी स्थिति काफ़ी जर्जर है । कर्नाटक के इस पर्यटक स्थल को आज देखरेख के साथ प्रचार की भी ज़रुरत है।
क्या आप जानते हैं ?
मंजराबाद भारत में तारे के आकार वाला पहला अकेला क़िला नहीं था । कोलकता का फ़ोर्ट विलियम भी तारे के आकार का है जो सन 1700 के अंत में बनाया गया था ।
कवर फोटो सौजन्य: आकाश प्रभु
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