बंटवारे के ज़ख़्म बहुत गहरे और अनगिनत हैं। चौहत्तर साल बाद, आज भी वह ज़ख्म हरे हैं, और उनमें से रह-रह कर टीस उठती है। कई घटनाएं तो ऐसी हैं, जिनको सुनकर आज भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं, और कलेजा फटने लगता है। थोहा खालसा की त्रास्दी भी कुछ ऐसी ही है। भारत के विभाजन में लगभग बीस लाख लोगों की जानें गईं थीं। इसी दौरान पंजाब के एक छोटे से गांव थोहा ख़ालसा में एक भयानक त्रासदी हुई, जिसमें दंगाईयों से बचने के लिये कई सिख महिलाओं ने अपने जान की क़ुर्बानी दी थीं।
यह घटना महिलाओं के यौन उत्पीड़न के लगातार क्रूर अभियान का नतीजा था। युद्ध के हथियार के रूप में बलात्कार का उपयोग जानबूझकर किया जाता था। हर तरफ़ दुश्मन, महिलाओं के अपमान की कहानियों को बहुत गर्व के साथ बयान करते थे। हज़ारों महिलाओं का अपहरण कर उनकी हमलावरों से जबरन शादी करवाई गई। कई महिलाओं ने अपने परिवार वालों को दोबारा कभी नहीं देखा। हज़ारों महिलाओं को अपनी हवस पूरी करने के बाद वापस उनके गांवों में छोड़ दिया गया था।
ऐसी ही एक घटना मार्च सन 1947 में थोहा ख़ालसा में हुई थी। ये वो समय था, जब भारत में हर जगह साम्प्रदायिक हिंसा का तांडव फैला हुआ था।
हालांकि बरसों से पंजाब में ख़ुशहाल हिंदू- सिख और अपेक्षाकृत ग़रीब, मेहनतकश मुसलमानों की आर्थिक स्थिति की वजह से इनके बीच तनाव मौजूद था। अमीर-ग़रीब की इस रेखा ने आख़िरकार मार्च सन 1947 में हिंसा का रुप ले लिया। ब्रिटिश लेखक और प्रशासक पेंडरेल मून अपनी पुस्तक “डिवाइड एंड क्विट” (1961) में लिखते हैं, कि हालांकि मार्च की हिंसा में मरने वालों की संख्या औपचारिक रुप से 2049 बताई गई थी, लेकिन ये सच्चाई से कोसों दूर थी।
सदी के सबसे भयानक दंगों में हज़ारों लोगों की जानें गईं थीं, जिनमें ज़्यादातर सिख थे, जिनकी मुल्तान और रावलपिंडी में मुसलमानों ने हत्या की थी। रावलपिंडी और उसके आसपास क़त्ल-ए-आम की कई घटनाओं में सबसे दुखद और भयानक घटना रावलपिंडी से 31 कि.मी. दूर थोहा खालसा गांव में हुई थी। थोहा ख़ालसा पोथोहर पठार के बीच में काहूता तहसील का एक हिस्सा है। आज थोहा ख़ालसा इस्लामाबाद क्षेत्र का एक हिस्सा है, जो पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से 35 किमी दक्षिण पूर्व में स्थित है।
कहा जाता है, कि 18वीं सदी में करम सिंह नाम के एक सिख जागीरदार ने ये गांव बसाया था। इसके अलावा सन 1874 में, प्रसिद्ध सिख धर्मशास्त्री निहाल सिंह ठाकुर ने थोहा ख़ालसा आकर दुख भंजनी नामक एक डेरे या शिविर की स्थापना की थी, जो बाद में एक गुरुद्वारे में बदल गया था। जहां उन्होंने अपनी मृत्यु तक कीर्तन और समाज सेवा का काम जारी रखा। सन 1940 के दशक तक गांव पूरी तरह आबाद हो गया और यहां 600 घर बस गये।
सन 1947 के सांप्रदायिक दंगों के पहले तक यहां हिंदू-सिख और मुसलमान शांति के साथ रहते थे।
झड़पें तब शुरु हुईं, जब 6 मार्च सन 1947 की शाम आसपास के मुस्लिम गांवों से एक छोटी भीड़ सिखों और हिंदुओं को धमकाते हुए थोहा खालसा में घुस गई। हालांकि शुरू में डर नहीं के बराबर था, लेकिन अगली सुबह यानी 7 मार्च को भीड़ की संख्या हज़ारों तक पहुंच गई। भीड़ ने घरों को लूटना और लोगों पर हमला करना शुरू कर दिया। शुरू में थोहा ख़ालसा के मुसलमानों ने गांव के सिखों को सुरक्षा का आश्वासन दिया था, लेकिन दंगाईयों की संख्या बढ़ने की वजह से वे उसका सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा सके। क्योंकि हज़ारों की भीड़ हिंसक होती जा रही थी।
सिखों ने 8 मार्च को भीड़ के नेताओं के साथ बातचीत करने का फ़ैसला किया। समझौते के तहत यह तय हुआ, कि भीड़ उनके घरों को तो लूटेगी लेकिन उन्हें जलाएगी नहीं और पुरुषों की हत्या नहीं करेगी तथा महिलाओं का अपमान भी नहीं करेगी। मांग के मुताबिक़,सिखों ने बीस हज़ार रुपये जमाकर भीड़ के नेताओं को दे दिये।
यह तय किया गया, कि सिख और हिंदू अपने घरों में रहने के बजाए संत गुलाब सिंह की हवेली में एक साथ रहेंगे। हवेली काफ़ी बड़ी थी ,जिसके चारों ओर एक बड़ी दीवार थी। बच्चों सहित लगभग तेरह सौ सिख और हिंदू वहां जमा हो गए। अन्य जो हवेली नहीं पहुंच सके, उन्होंने क़रीब के ही गुलाब सिंह के, बाग़ के गुरूद्वारे में शरण ले ली। कई लोगों का मानना है, कि ये गुरुद्वारा गांव का दुख भंजनी गुरुद्वारा ही था।
अगले दिन, 9 मार्च को कई और दंगाइयों कुल्हाड़ी, भाले और तलवारें लेकर गांव पहुंच गये। चश्मदीदों का दावा था, कि इनकी संख्या लगभग दस हज़ार थी। घरों में लूटपाट करने के बाद भीड़ ने गुलाब सिंह की हवेली का रुख़ किया और उसे घेर लिया। उनके इरादे ख़तरनाक लग रहे थे, और यह साफ़ ज़ाहिर था, कि उनका समझौते की शर्तों का सम्मान करने का कोई इरादा नहीं था।
कुछ युवा सिखों ने महसूस किया, कि बाड़े के भीतर दुबके रहने के बजाय दंगाईयों पर हमला कर उन्हें खदेड़ा जाना चाहिये। प्रताप सिंह कृपाण और कुछ राइफ़लों से लैस दस सिख युवकों के एक जत्थे के साथ रवाना हुये जो दुश्मनों पर टूट पड़ा। हालांकि दुश्मनों की तुलना में उनकी तादाद बहुत कम थी, लेकिन वे अगले कुछ दिनों तक भीड़ से मुक़ाबला करते रहे।
यह ग़ौर करने वाली बात है, कि अपनी मृत्यु से कुछ साल पहले, इस घटना में जीवित बच गईं स्वर्ण कौर नाम की एक महिला ने अपनी डायरी में इस घटना का ज़िक्र किया था। उन्होंने लिखा था, कि बाद के दिनों में भीड़ की संख्या बढ़ती गई। वह लिखती हैं, कि लगातार हमलों के बाद भीड़ के नेताओं में से एक ग़ुलाम रसूल ने सिखों के सामने एक शर्त रखी, कि अगर वे हर दिन एक महिला को उनके पास भेजेंगे, तो उनकी जान बक्श दी जाएगी। ये ऐसी शर्त थी, जिसे स्वीकार करना असंभव था।
गुलाब सिंह की हवेली में 12 मार्च तक स्थिति तनावपूर्ण हो गई। यह तर्क दिया गया कि अगर मौत तय ही है, तो भीड़ के हाथों ज़ुल्म सहने से बेहतर है ‘इज्ज़त’ की रक्षा की जाये। संख्या कम होने के बावजूद, पुरुषों ने आख़िरी आदमी के ज़िंदा रहने तक दुश्मन से लड़ने की क़सम खाई । ये भी तय किया गया, कि दंगाइयों के चुंगल में फ़सने के पहले ही महिलाएं अपनी जान दे देंगी।
आज भी हरियाणा के कुरुक्षेत्र मे रहनेवा ले और उस घटना के चश्मदीद गवाह बीर बहादुर सिंह ने पुरस्कार विजेता पाकिस्तानी पत्रकार हारून मुस्तफा जानजुआ को सन 2013 में दिये गये एक इंटरव्यू में इस घटना के बारे में बताया था। उन्होंने बताया था, कि जब ये घटना हुई, तब वह सिर्फ़ 16 साल के थे। वह बताते हैं, कि उनके परिवार की 25-26 महिलाओं ने चुपचाप अपनी जान न्यौछावर करने की पेशकश की थी, क्योंकि वह दंगाईयों के हत्थे चढ़ना नहीं चाहती थीं।
बहादुर सिंह ने बताया, “इसकी शुरूआत तब हुई, जब गठिया से पीड़ित हमारे गांव के क़ुली राम सिंह चौना ने पाफा जी (मेरे पिता) से उन्हें मारने का अनुरोध किया , क्योंकि भीड़ के आने पर वह भाग नहीं सकते थे। इसी तरह का अनुरोध, 70 साल के धीर सिंह ने किया जो पाफा जी के साले थे, और कहा कि वह दाढ़ी कटवा कर लाहौर में अपने बेटों का सामना नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि भीड़ के हाथों मारे जाने से बेहतर वह अपने समुदाय के किसी व्यक्ति के हाथों मरना चाहेंगे। पाफा जी ने उनकी बात मान ली, और दोनों को मार दिया। फिर उन्होंने मेरी बड़ी बहन मान कौर को बुलाया।
बीर बहादुर ने बताया, “मुझे लगता है कि (मान कौर का) दुपट्टा बीच में आ गया था। इससे पहले कि मेरे पिता कुछ कहते, मेरी बहन ने अपना दुपट्टा उतार दिया और चोटी पीछे कर ली। बिना एक दूसरे की तरफ़ देखे दोनों एक दूसरे के इरादे को समझ गये। मेरी बहन बहादुर थीं। उनका सिर उनके धड़ से कुछ दूर जा गिरा। मेरे पिता ने फिर मेरी चाची की बेटी को बुलाया, फिर मेरे मामा की बेटी को गांव वाले हवेली की निचली मंज़िल पर खड़े थे।”
बीर सिंह ने बताया, कि कैसे उसकी बहन के बाद अन्य रिश्तेदार मरने के लिये एक के बाद एक आगे आये। मारे जाने के पहले उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। बीर सिंह के परिवार की तरह कई और लोगों को उनके परिवारों ने ख़ुद ही मार डाला, ताकि वे दुश्मन के हाथों न पड़ सकें। जब पुरुष हवेली में मोर्चाबंदी कर रहे थे, तब मान कौर (बीर सिंह ने इन्हें संत गुलाब सिंह की पत्नी लज्ज कौर बताया था) के नेतृत्व में युवा लड़कियों और बूढ़ी औरतों सहित बाक़ी 93 महिलाएं बाग़ में, गुरुद्वारे के पास एक कुंए के पास इकट्ठा हो गईं। कुआं गहरा था, और दो साल पहले यानी सन 1945 में बनाया गया था। उन सभी महिलाओं ने प्रार्थना की, और उसके बाद एक-एक करके कुएं में कूद गईं। कई लोगों ने जान-बूझकर ख़ुद को मारने के लिए अपना सिर पानी में डुबो दिया। उनमें से कुछ जो डूबने से नहीं मरीं, वे कुएं में हवा की कमी से मर गईं।
गांव का एक स्थानीय मुस्लिम चश्मदीद, जो छोटा बच्चा था, इस घटना को याद करते हुए बताता है, “लगभग तीसरा पहर हो चुका था, और मैं अपने दो दोस्तों के साथ क़रीब से ये सब देख रहा था। कुछ महिलाएं अपने बच्चों को गोद में लिए हुईं थीं। वे कुएं में कूदते हुए फूट-फूट कर रो रहीं थीं। लगभग आधे घंटे में कुआं शवों से भर गया। मुझे आज भी याद है, जब भंसा सिंह ने अपनी पत्नी को मारा, तब उसकी आंखों में आंसू थे। कुछ ही घंटों में मैंने लगभग 25 महिलाओं को मरते देखा। यह बहुत भयानक दृश्य था। मैं क़रीब गया और देखा कि जो महिलाएं कुएं में ऊपर की तरफ़ थीं वे अपने सिर को डुबाने की कोशिश कर रहीं थीं, ताकि वे ज़िंदा न बच जायें। लाशों से कुआं पट गया था। कुछ महिलाएं ऊपर आईं, और फिर कुएं में कूद गईं। वे अपने अपनी आबरु लुटने के बजाय मरने के लिए पूरी तरह तैयार थीं।“
इस त्रासदी से बौखलाकर कई दंगाई वहां से भाग खड़े हुए। दूसरे दिन सुबह, जब क़त्ल-ए-आम हो चुका था, लोगों को बचाने के लिए एक सैन्य ट्रक पहुंचा। कहा जाता है, कि इस त्रासदी में लगभग 200 लोगों की जानें गई थीं लेकिन वास्तव में संख्या कहीं ज़्यादा हो सकती है। इस त्रासदी में जो लोग बच गए थे, उनमें संत गुलाब सिंह थे, जो अधिकारियों के साथ गए और सिख शवों की शिनाख़्त की, और उनका अंतिम संस्कार भी किया। बचे हुए लोगों को रावलपिंडी में लगे स्थापित शरणार्थी शिविर में लाया गया।
कहूटा तहसील में थोहा खालसा के पास रहने वाले और ‘पाकिस्तान हेरिटेज क्लब’ के वरिष्ठ कार्यकारी और इतिहासकार-लेखक राजा मसूद अख़्तर जानजुआ बताते हैं, कि इस घटना से गांव के स्थानीय मुसलमान भी स्तब्ध रह गये थे। उनका कहना है, कि गांव के मुसलमानों को यक़ीन था, कि इस गांव में जिसने भी सिखों को मारा या लूटा है, उस पर क़ुदरत का क़हर बरसेगा।
थोहा खालसा हत्याकांड की ख़बर राष्ट्रीय अख़बारों में छपी। स्थिति का जायज़ा लेने भारत के वायसराय लॉर्ड लुइस माउंटबेटन और उनकी पत्नी एडविना माउंटबेटन और बाद में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने थोहा खासा और शरणार्थी शिविरों का दौरा किया।पंडित नेहरू की चचेरी बहन रामेश्वरी नेहरू ने भी पर्यवेक्षकों के बड़े दल के साथ गांव का दौरा किया। अपनी डायरी में उन्होंने लिखा, “घटना के अट्ठारह दिन बाद, हम इस पवित्र स्थान पर पहुंचे। उन ख़ूबसूरत महिलाओं के शरीर सूज गए थे और पानी की सतह पर तैर रहे थे। उनके रंगीन कपड़े और लंबे काले बाल साफ़ देखे जा सकते थे। दो या तीन महिलाओं के सीने से अभी भी उनके छोटे छोटे बच्चे चिपके हुए थे। ये हमारा सौभाग्य था, कि हम यहां आ सके और इन ‘सती’ होनेवाली महिलओं की पूजा कर सके।”
कई आधुनिक नारीवादी विचारकों और बुद्धिजीवियों ने ऐसी घटनाओं पर मीडिया और राजनेताओं की प्रतिक्रिया पर सवाल उठाए थे। थोहा खालसा त्रासदी का उल्लेख करते हुए, ब्रिटिश इतिहासकार एलेक्स वॉन टुनज़ेलमैन अपनी पुस्तक इंडियन समर: द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ़ द एंड ऑफ़ ए एम्पायर (2007)” में लिखते है,…. जैसे कि इस तरह की भयावह घटना काफ़ी नहीं थी, मीडिया और जन-अधिकारियों ने महिलाओं की शहादत को सार्वजनिक रूप से महिमामंडित किया। यह लगातार कहा गया, कि बलात्कार के ‘अपमान’ का सामना करने के बजाय आत्महत्या करना महिला वीरता का चरम बिंदु है, जैसे कि शर्म और अपराध के लिये अपराधी नहीं बल्कि पीड़ित दोषी हैं। नाउम्मीदी से भरी ऐसी महिलाओं ने जो क़दम उठाया था, उसकी महिला-दमन के उदाहरण के रूप में निंदा करने के बजाय, स्त्री-गुण के उदाहरण के रूप में सराहा गया।“
रामेश्वरी नेहरू की आलोचना करते हुए, उन्होंने लिखा, “… भारत में किसी भी देश से ज़्यादा महिला राजनेता हो सकती है, लेकिन यह धारणा, यहां तक कि राजनीतिक वर्ग में भी, कि एक महिला की पवित्रता उसके जीवन से अधिक मूल्यवान थी, बहुत बड़ी ज़्यादती है।” हालांकि ये टुनज़ेलमैन का एक तार्किक कथन है । लेकिन इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, कि यह घटना सन 1940 के दशक के मध्य दक्षिण एशिया की थी, जब सही और ग़लत की धारणाएं, आधुनिक दृष्टिकोण से बिल्कुल अलग थीं।
ये भी मालूम होना चाहिये, कि इस घटना के पांच महीने बाद, रेडक्लिफ़ रेखा ने उपमहाद्वीप को विभाजित कर दिया, और थोहा ख़ालसा पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। जहां कभी हिंदू और सिखों की बड़ी आबादी हुआ करती थी, आज वहां बीस हज़ार की आबादी में ज़्यादातर जानजुआ राजपूत, ग़ाखर, मिर्ज़ा, भाटी और कुछ अन्य जनजातियां रहती हैं, जो सभी मुस्लिम हैं। इस घटना के बाद गांव में जो कुछ बचा रह गया है, वो है गांव के गुरुद्वारे की खंडहर में तब्दील हो चुकी इमारत और कुआं,जहां 93 महिलाओं ने अपनी जान दी थी।
सन 1970 के दशक में पाकिस्तान सरकार ने कहूटा में कहूटा अनुसंधान प्रयोगशालाओं (के आर एल) की स्थापना की, जो थोहा खालसा से करीब है। इन्हें परमाणु बम परियोजना के हिस्से के रूप में ‘कहूटा परियोजना’ शुरू करने के लिए स्थापित किया गया था। इस क्षेत्र की संवेदनशीलता के कारण, अब भारतीयों सहित किसी भी विदेशी को थोहा खालसा गांव सहित इस क्षेत्र में जाने की अनुमति नहीं है। हालांकि वर्षों से इस क्षेत्र के कट्टरपंथी संगठन मांग कर रहे हैं, कि पाकिस्तान के अन्य शहरों की तरह, थोहा ख़ालसा का नाम बदलकर ‘थोहा शरीफ़’ कर दिया जाए, लेकिन गांवों के स्थानीय लोगों ने हमेशा इसका विरोध किया है, और क्षेत्र की विरासत को संजोकर रखने की कोशिश की है।
यह ध्यान देने वाली बात है, कि थोहा ख़ालसा की घटना केवल एक अकेली घटना नहीं थी। सबाल्टर्न स्टडीज़ के इतिहासकार ज्ञानेंद्र पांडे ने अपनी पुस्तक “रिमेम्बरिंग पार्टिशन: वायलेंस, नेशनलिज़्म एंड हिस्ट्री इन इंडिया (2001)” में उल्लेख किया है, कि हालांकि यह घटना मार्च सन 1947 की थी, लेकिन इसी तरह की घटनाएं अगस्त सन 1947 में भी देखी गईं थीं जिसमें विभिन्न समुदायों के लोगों को निशाना बनाया गया था।
अमृतसर के पार्टिशन म्यज़ियम (विभाजन संग्रहालय) की एक गैलरी थोहा खालसा की घटना को समर्पित है। कुल मिलाकर यह नतीजा निकलता है, कि इस तरह की घटनाओं के बारे में जानना महत्वपूर्ण है, कि कैसे धार्मिक कट्टरता लोगों को हैवान बना सकती है। इसीलिए हमारे लिये यह तय करना ज़रूरी है, कि हमें एक ऐसा भविष्य बनाना चाहिये, जिसमें ख़ून के बदसूरत धब्बे नहीं बल्कि अमन और भाईचारे के कोमल रंग हों।
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