“गाज्यो-गाज्यो जेठ, आषाढ़ कंवर तेजा रे
लगतो ही गाज्यो, सावन भादवो,
सूतो-सूतो सुख भर नींद कंवर तेजारे,
थारा तो साईना बीजे बाजरो।”
(मारवाड़ क्षेत्र में ज्येष्ठ, आषाढ़, सावन और भादों माह के दौरान बारिश के मौसम में तेजा गायन की परम्परा रही है। ऐसे में तेजाजी की माँ कहती हैं, कि यह सोने का समय नहीं है। यह समय खेतों में बाजरा आदि फ़सलों के बीज बोने का समय है।)
राजस्थान में पूर्व मध्यकाल के दौरान ऐसे कई संत महात्मा, समाज सुधारक, विचारक और लोक देवी-देवता हुए हैं, जो आज इतने वर्षों बाद भी भारतीय समाज के पथ-प्रर्दशक बने हुए हैं। यह वो समय था, जब पश्चिम से आ रहे ख़तरे से पूरे भारत में हाहाकार मचा हुआ था। ऐसी विकट परिस्थिति में राजस्थान की पावन धरती पर गोगाजी, पाबूजी, राव धूहड़ और तेजाजी सहित आदि लोक देवता हुए, और उन्होंने गायों की रक्षा के लिये अपना बलिदान दिया। वे आज भी जनता के विश्वास के स्तम्भ बने हुए है।
नागौर ज़िले के खरनाल गाँव में ताहड़ देवजी धौल्या के घर सन 1073 माघ शुक्ल चतुर्दशी में वीर तेजाजी का जन्म हुआ था। धौल्या गोत के भाट और मारवाड़ के जाट इतिहास (सन 1954) के अनुसार इस वंश के लोग खिचलीपुर (मध्य प्रदेश) से, नागौर (मारवाड़) क्षेत्र के खींचीवाड़ा जायल राज्य में आकर बस गये थे। तेजाजी जन्म से ही चंचल थे, और उनके चेहरे पर तेज था। उनके पिता गाँव के मुखिया हुआ करते थे। “रोचक राजस्थान” किताब के लेखक डॉ. अशोक चौधरी बताते हैं, कि तेजाजी ज्येष्ठ माह की पहली वर्षा होने पर अपने खेत पर हल जोतने गये हुये थे। भादों और सावन लग चुके थे, और बादल गरजने-बरसने लगे थे। छोटी-सी उम्र में ही माँ के कहने पर तेजा खेत जाते थे।
“हलियो ले नै खेत सिधावो कंवर तेजा रे!
बेल्यारा बायौड़ा मोती नीपजै।”
(हल लेकर खेत जाईये कंवर तेजा रे! समय पर बोये हुए मोती भी उपज जाते हैं।)
एक बार उनकी भाभी, उनके लिये दोपहर का भोजन लेकर खेत पर कुछ देर से पहुँचीं, जिससे तेजाजी को ग़ुस्सा आ गया। ऐसे में भाभी ने व्यंग्य में कहा, कि आपका भोजन लाने वाली तो अपने पीहर में बैठी है। अगर जल्दी है, तो उन्हें ले आओ। यह बात तेजाजी के दिल में चुभ गई। उस समय में विवाह कार्यक्रम धार्मिक स्थल पर, या तीर्थ-यात्रा के दौरान ही किये जाते थे। एक बार ताहड़दे पुष्कर स्नान करने गये थे, तब वहीं पर पनेर निवासी रायमल जी की पुत्री पेमल के साथ बचपन में तेजाजी का विवाह हो गया था। लेकिन इस बात का पता उन्हें बहुत बाद में चला। माँ से अनुमति लेकर तेजाजी अपनी घोड़ी पर सवार होकर ससुराल पनेर गाँव की तरफ़ चल पड़े। पनेर, परबतसर क्षेत्र तथा अजमेर के पास स्थित था।
वर्षा का समय होने के कारण पनेर पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई। इस दौरान प्रारम्भ से अंत तक कई अपशकुन हुए, लेकिन वह अंधविश्वासी नहीं थे। उसी रात लाछा की गायों को लुटेरे ले गए। लाछा तेजाजी के पास पहुँची और गायों को छुड़ाने की विनती करने लगी। ऐसा माना जाता है, कि तेजाजी ने लाछा को वचन दिया, कि वह उनकी गायें वापस ला कर देंगें। रास्ते में उन्हें एक सांप जलता हुआ दिखाई दिया। तेजाजी ने सांप को बचा लिया। मगर जब सांप ने तेजाजी को डसना चाहा, तब तेजाजी ने सांप से उन्हें न काटने की विनती की, और सांप को वचन दिया की वह गायों छोड़ कर सांप के पास वापस आ जायेंगे। तेजाजी ने लुटेरों से सभी गायों को वापस लिया, और गायों को सुरक्षित लाकर लाछा को सौंप दिया।
उसके बाद वह ख़ुद सांप के पास पहुंचकर बोले, कि अब आप मुझे डस सकते हैं। तेजाजी की वचनबद्धता देखकर नागराज अत्यन्त प्रभावित हो गये। अब सांप तेजाजी को डंसना नहीं चाहता, क्योंकि उनका शरीर लहूलुहान था। तब तेजाजी ने अपना भाला ज़मीन में गाड़ा और अपनी जीभ बाहर निकालकर सांप से उनकी जीभ पर डसने के लिये कहा। नागराज ने तेजाजी की जीभ पर डसा और वरदान दिया, कि सारे जग में तेजाजी की पूजा होगी, और जिस व्यक्ति को भी सांप काटेगा उस व्यक्ति का ज़हर तेजाजी के नाम की तांती बांधने से अपने आप ही ख़त्म हो जाएगा।
आज भी लोग डोरे पर ताजाजी के नाम की सात गांठ लगाते हैं। डोरे को हाथ पर बांधते हैं, और पूजा करते हैं। ऐसा माना जाता है, कि ऐसा करने से विष नहीं चढ़ता, और चढ़े हुये ज़हर का असर भी समाप्त हो जाता है। इस प्रकार तेजाजी का निर्वाण अजमेर क्षेत्र के सुरसुरा गाँव में सन 1103 में हुआ था। गौ रक्षा के लिये अपना बलिदान देने वाले तेजाजी को आज लोक देवता के रूप में पूजा जाता हैं।
तेजा गायन
बारिश की कामना के लिए देश में यह पुरानी परंपरा नागौर ज़िले में आज भी क़ायम है। यह गायन राग मेघ मल्हार से जुड़ा है। इसे कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के एक कोर्स में भी शामिल किया गया है। तेजा गायन बिना किसी साज़ के भी होता है। लेकिन तेजा गायन के कलाकार हाथ में रंग-बिरंगे छाते और पांवों में घुंघरू बांधकर नृत्य भी करते हैं। लोक देवता तेजाजी को लेकर राजस्थान में व्यापक लोक साहित्य लिखा गया है। यहाँ आषाढ़, सावन और भादों माह में राजस्थान के प्रत्येक गाँव, ढ़ाणी तेजा गायन से वातावरण गूंज जाता है। खेतों में प्रत्येक किसान तेजाटेर के साथ बुवाई आरम्भ करता है। वनस्थली विद्यापीठ के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉक्टर पेमाराम चौधरी बताते हैं, कि मारवाड़ अंचल में तेजाजी की लोक-कथा को एक ‘‘टेर’’ के रूप में गाया जाता है। रातभर चलने वाले इस जागरण में दो प्रमुख गायक होते हैं। इनके सहायक दो अन्य गायक होते है, जो टेर को दोहराते रहते हैं।
मेघ मल्हार राग से मिलते-जुलते इस गायन में रावणहत्था, ढ़ोल, तुरही जैसे साज़ों के साथ नृत्य भी शामिल होने से आज कल यह बहुत लोकप्रिय हो गया है। इस तेजा गायन का भादों माह की शुक्ल पक्ष की नवमीं तिथि को विशेष महत्त्व माना गया है। इस अवसर पर पूकी रात जाग कर दूसरे दिन तेजा दशमी को मंदिरों मे प्रसाद भी चढ़ाया जाता है। यह भी मान्यता रही है, कि जब भी तेजा गायन गाया जाता है, इस दौरान बरसात हो जाती है। वर्ष सन 2010 में इस गायन को पुष्कर के अन्तर्राष्ट्रीय मेले में पहली बार प्रस्तुत किया गया था। इसी वर्ष लंदन के प्रसिद्ध कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में भी तेजाजी की गाथा के लिए 456 पृष्ठों की एक पुस्तक प्रकाशित की गई है। इसके लिये लोगों ने दिल खोलकर अनुदान किया। इसमें तेजाजी का गायन और पूरी कथा हिन्दी में लिखी हुई है। साथ ही बीस घंटों की ऑडियो रिकोर्डिंग भी करवाई गई है। इसे मानव शास्त्र विभाग में पढ़ाया जाता है।
तेजाजी के प्रसिद्ध मेले
प्रारम्भ में सुरसुरा में तेजाजी का एक मंदिर बनाया गया था, जहाँ विशाल पशु मेला लगना था। लेकिन सन 1734 में जोधपुर महाराजा अभय सिंह के समय पर बतसर के हाकिम ने तेजाजी की मूर्ति को परबतसर में स्थापित कर दिया। तब से तेजाजी का प्रमुख मेला यहीं का माना जाता है। यहाँ भादों माह में विशाल पशु मेले का आयोजन होता है, जिसमें नागौरी नस्ल के पशु बिक्री के लाए जाते हैं। तेजाजी के अन्य मेले खरनाल, सुरसरा, ब्यावर सहित राज्य के प्रायः सभी जगहों पर आयोजित होते हैं।
भादवा सुद दशमी दिवस, मेलो जुड़े महान।
दर्शन सारू दोड़ती आवे, सकल जहान।।
इस प्रकार कथाओं और लोकगीतों से वीर तेजाजी के प्रति आज भी जनता के दिलों व्याप्त श्रद्धा की भावना का परिचय मिलता है। प्रत्येक गांव में बड़े चबूतरों पर तेजाजी की मूर्तियां रखी जाती हैं। जिनके हाथ में भाला, जिनमें भाला,घुड़सवार के रूप में जीभ को डसता हुआ साँप और पास में उनकी पत्नी खड़ी हुई दिखाई देती हैं। राजस्थान और मध्यप्रदेश में कई गांवो में आज भी सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति को तेजा जी के नाम की तांती बांधी जाती है, और तेजा दशमी के दिन मेला और रात को जागरण का आयोजन किया जाते हैं। खरनाल गाँव में मुख्य तेजाजी मंदिर है, जहॉ मंदिर से कुछ दूर बहिन राजल बाई का मंदिर बना हुआ है, जहाँ श्रद्धालू झाड़ू (स्थानीय भाषा में बुंगरी) का चढ़ावा चढ़ाते हैं। मान्यता है, कि झाडू चढ़ाने से शरीर पर होने वाले मस्से ठीक हो जाते हैं। भादों माह में अन्य राज्यों से श्रद्धालु यहाँ झण्डे लेकर पहुँचते हैं। खरनाल गाँव में कोई भी दूल्हा घोड़ी पर नहीं बैठता। वो बारात के दौरान वह पैदल ही चलता है। हरसौर गाँव में दक्षिण भारतीय शैली में बना भव्य मंदिर है।
खरनाल के मंदिर की चित्रमाला में लोक देवता की जीवनी को दर्शाया गया है।
लौपे नाहिं लगार, वासक तेजा रा वचन।
कदी न भाजे कार, नौखण्ड भादे नीकली।।
भवंग असल गया भाग, नाहिं कबै आवै नजर।
नाहिं सतावे नाग, नौखण्ड मांदे वनकली।।
(इस प्रकार लोक देवता तेजाजी का वचन भी ख़ाली नहीं जाता है।)