“जब त्रिपुरा के जंगलों ने अपनी संदेशवाहक दक्षिण हवाओं के ज़रिये फूलों के मेले के लिए निमंत्रण भेजा, तो मैं एक दोस्त की तरह आया हूं”।
ये शब्द नोबल पुरस्कार से सम्मानित कवि रवींद्रनाथ टैगोर के हैं, जो त्रिपुरा के शाही परिवार के साथ उनके संबंधों को दर्शाते हैं। महान कवि और त्रिपुरा के चार महाराजाओं के बीच इस स्थायी दोस्ती की वजह से बंगाल में साहित्य, शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में कई ऐतिहासिक काम हुए।
त्रिपुरा 4 हज़ार 120 वर्ग मील में फैली एक रियासत थी, जिस पर माणिक्य राजवंश का शासन होता था। 18वीं शताब्दी के मध्य में ये रियासत, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन हो गई थी। बंगाल के नज़दीक होने की वजह से, त्रिपुरा राजघरानों के कलकत्ता में बंगाली अभिजात वर्ग के साथ घनिष्ठ संबंध थे। त्रिपुरा के माणिक्य और जोड़ासांको के टैगोरों के बीच रिश्ते तब बने जब महाराजा कृष्ण किशोर माणिक्य (शासनकाल 1830-1849) ने सन 1840 के दशक में त्रिपुरा में राजनीतिक संकट के दौरान रवींद्रनाथ टैगोर के उद्योगपति दादा द्वारकानाथ टैगोर (1794-1846) से सलाह ली थी। इस संबंधों को द्वारकानाथ और कृष्ण किशोर के उत्तराधिकारियों ने आगे बढ़ाया, जो लगभग साठ वर्षों तक चले।
सन 1883 में कृष्ण किशोर के दूसरे बेटे महाराजा बीर चंद्र माणिक्य अपनी पहली पत्नी भानुमती देवी के निधन के बाद ग़म से घिरे हुए थे। वृंदावन (उत्तर प्रदेश में) से भानुमती के दाह संस्कार के बाद,वापसी पर उन्हें अचानक लंदन से वापस आए युवा टैगोर का एक पत्र मिला, जिन्होंने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। इस पत्र में ‘भग्ना हृदय’ यानी टूटा हुआ दिल नामक प्रसिद्ध प्रेम-कविता लिखी हुई थी। इस कविता में बीर चंद्र को अपनी पीड़ा की झलक मिली। टैगोर अपनी आत्मकथा ‘जीवन स्मृति’ (1912) में याद करते हैं ‘महाराजा बीर चंद्र माणिक्य के मंत्री ने मुझे आकर बताया था, कि कविता ने महाराजा के दिल को गहरी से छुआ था।’
उसके बाद से महाराजा जब भी कलकत्ता या कुरसेओंग (दार्जिलिंग) जाते थे, तो टैगोर से ज़रुर मिला करते थे। दोनों के बीच कविता और संगीत पर लंबी चर्चायें होती थीं। इस दौरान दोनों के बीच संबंध गहरे होते गए। मई,सन 1886 में टैगोर ने बीर चंद्र से अपने एक ऐतिहासिक उपन्यास के लिए कुछ शोध सामग्री जुटाने का अनुरोध किया। वह दरअसल त्रिपुरा शाही परिवार के इतिहास पर आधारित एक उपन्यास लिखने की योजना बना रहे थे। महाराजा ने व्यक्तिगत रूप से बहुत-सी ऐतिहासिक जानकारी जमा की और टैगोर को भिजवा दी। टैगोर ने उसका उपयोग अपने उपन्यास राजर्षि और नाटक बिसोर्जन और मुक्ति में किया।
सन 1896 में बीर चंद्र के देहांत के बाद, उनके पुत्र महाराजा राधा किशोर उत्तराधिकारी बने। वह अपने पिता की तरह पढ़े-लिखे थे और शिक्षा के एक बड़े सरपरस्त थे। उन्होंने टैगोर के विश्व भारती विश्वविद्यालय, बोलपुर और बंगाल जैसे शैक्षणिक संस्थानों की वित्तीय सहायता की। महाराजा राधा किशोर को आधुनिक बंगाली साहित्य में गहरी रुचि थी। टैगोर के क़रीबी होने की वजह से वह ऐसे कई साहित्यकारों के संपर्क में आए, जिनकी माली हालत ठीक नहीं थी। उन्होंने उनकी वित्तीय सहायता की। इनमें जाने-माने कवि हेमचंद्र बंद्योपाध्याय भी थे, जो उस समय ग़रीबी में जी रहे थे। महाराजा ने उनके लिये मासिक पेंशन तय कर थी, जो उन्हें टैगोर के ज़रिये भिजवाई जाती थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि टैगोर की सलाह पर राधा किशोर ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस को अपनी प्रयोगशाला स्थापित करने में भी मदद की थी। उन्होंने उनके शोध कार्यों और व्याख्यानों-यात्राओं के लिये भी बहुत दान किया था। महाराजा ने ये सब वित्तीय संकटों के बावजूद किया था। ये संकट सन 1897 के ज़बरदस्त भूकंप के कारण पैदा हुये थे। भूकंप में अगरतला के अधिकांश हिस्से नष्ट हो गए थे जिनमें महाराजा का अपना महल भी शामिल था ।
बीर चंद्र के निधन (1909) के बाद भी उनके बेटे महाराजा बीरेंद्र किशोर ने उनकी विरासत को आगे बढ़ाया। उन्होंने विश्व भारती विश्वविद्यालय के सम्पूर्ण विकास के लिए वित्तीय सहायता दी जो सन 1947 में, भारत की स्वतंत्रता के बाद, केंद्र सरकार के अधीन आने तक जारी रही।
यह उनके छोटे भाई राजकुमार ब्रजेंद्र थे, जो शतिनिकेतन में पढ़ाई के दौरान टैगोर और उनकी पत्नी मृणालिनी देवी के बहुत नज़दीक आ गए थे। टैगोर और उनकी पत्नी ब्रजेंद्र को अपना वैध पुत्र मानते थे। अफ़सोस की बात है कि ब्रजेंद्र शांतिनिकेतन में अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सके क्योंकि अंग्रेज़ों ने इसे अस्थायी रूप से बंद कर दिया गया था। अंग्रेजों की नज़र में शांतिनिकेतन स्वतंत्रता सैनानियों का अड्डा बन गया था। जब हालात सुधरे, तो ब्रजेंद्र ने अपने बड़े बेटे रामेंद्र को शांतिनिकेतन में पढ़ने के लिए भेजा जहां, अब इंदिरा गांधी भी वहीं पढ़ रही थीं!
सन 1900 से सन 1926 के बीच टैगोर लगभग सात बार त्रिपुरा गए। इस दौरान उन्होंने कई गीत लिखे, जिनमें से कुछ उनकी प्रसिद्ध कृति ‘गीतांजलि’ में सम्मिलित हैं। टैगोर की सबसे महत्वपूर्ण यात्रा सन 1919 में, बीरेंद्र के शासनकाल के दौरान थी। इसी साल टैगोर ‘गीतांजलि’ के लिए प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाले पहले एशियाई बने थे। महाराजा ने अगरतला में एक विशेष समारोह में टौगोर को सम्मानित किया था।
बीरेंद्र के बेटे बीर बिक्रम, जिन्होंने सन 1923 में शासन संभाला था, टैगोर के बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने कई कलाकारों को बुनाई और नृत्य के बारे में पढ़ने के लिए शांतिनिकेतन भेजा था। बाद में शांतिनिकेतन के पाठ्यक्रम में मणिपुरी नृत्य को भी शामिल किया गया। टैगोर के बाद के वर्षों के दौरान, बीर बिक्रम ने टाउन हॉल, कलकत्ता में टैगोर की कलाकृति का भी उद्घाटन किया और उन्हें ‘भारत भास्कर’ की उपाधि से सम्मानित किया। सन 1941 में जब टैगोर का देहांत हुआ तो त्रिपुरा भी शोक में डूब गया। बीर बिक्रम के कहने पर एक दिन का आधिकारिक शोक मनाया गया।
त्रिपुरा राजघरानों और रवींद्रनाथ टैगोर के बीच घनिष्ठ संबंधों पर त्रिपुरा में कई पुस्तकें और लेख लिखे गए हैं। त्रिपुरा के लोग इस इस पर बहुत गर्व करते हैं। मलंचा निवास बंगला, जहां टैगोर अगरतला की अपनी यात्राओं के दौरान ठहरा करते थे, एक ऐसा स्मारक है जो त्रिपुरा के शाही परिवार और टैगोर के क़रीबी संबंधों का गवाह है।
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