कई बार ऐसा होता है कि हम किसी व्यक्ति का नाम तो जानते हैं लेकिन उसके योगदान के बारे में हमें पता ही नहीं होता।स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लाला हर दयाल के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। उनके नाम का ज़िक्र तो किया जाता है लेकिन न सिर्फ़ देश बल्कि देश के बाहर भी उन्होंने आज़ादी की जो मशाल जलाई थी उस पर बात कम ही की जाती है। लालाजी बेबाक व्यक्ति थे। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ खुलकर बोलते थे इसिलिये उन्हें कई बार निर्वासन और गिरफ़्तारी झेलनी पड़ी।
लाला हर दयाल का जन्म 14अक्टूबर 1884 को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता अदालत में रीडर थे। लालाजी एक प्रतिभाशाली छात्र थे । बचपन से ही वह ब्रह्मो समाज और आर्य समाज से प्रभावित थे क्योंकि दोनों ही विचारधाराएं हिंदू समाज को बिना मतलब के रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों से मुक्त कराना चाहती थीं। पंजाब विश्वविद्यालय से संस्कृत में डिग्री हासिल करने के बाद ,सन 1905 में उन्हें भारत सरकार की तरफ़ से, आक्सफ़ोर्ड विश्विद्यालय में तीन साल पढ़ने के लिये 200 पौंड की सालाना स्कालरशिप मिल गई। वहां उन्होंने आधुनिक इतिहास की उच्च शिक्षा के लिये प्रवेश लिया। उन्होंन वहां बेहद सादी ज़िंदगी गुज़ारी। वह वहां उबला हुआ अनाज और उबले हुए आलू खाते थे और फ़र्श पर सोते थे।
यूरोप में रहने के दौरान उन्होंने पश्चिमी देशों के विज्ञान के महत्व की वकालत करनी शुरू कर दी थी। उन्होंने लिखा था कि विज्ञान के पांच मूल सिद्धांत यानी रसायन शास्त्र,भौतिक शास्त्र, जिवविग्यान,मनोविग्यान और समाज शास्त्र आज के वेद हैं। ज्योतिष शास्त्र, भूविग्यान,इतिहास, अर्थशास्त्र और राजनैतिक विग्यान उनके अंग और उपअंग हैं।
लाला जी ने लिखा था कि पश्चिम आज कला और विज्ञान की मां है, वहां ज़रूर जाना चाहिये।
लेकिन जल्द ही आक्सफ़ोर्ड की पढ़ाई से उन्हें निराशा होने लगी क्योंकि वहां पश्चिम की राजशाही का समर्थन किया जाता था। वहीं उनके मन में देशप्रेम का भाव पैदा हुआ । इंग्लैंड में ही दादा भाई नौरोजी और श्यामजी कृष्ण वर्मा से उनकी घनिष्ठता बढ़ी , जो विदेशों में भारत की आज़ादी के विचार को बढ़ावा दे रहे थे।
इसी वजह से लाला हरदयाल ने वह महत्वपूर्ण स्कालरशिप छोड़ दी, जो पैसे मिले थे, वह वापस कर दिये और 1908 में भारत वापस आ गये। उन्होंने ख़ुद को लाहौर की सियासी गतिविधियों में समर्पित कर दिया। प्रमुख समाचारपत्रों में अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ तीखे लेख लिखने शुरू कर दिये। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनके कामकाज पर पाबंदियां लगा दीं। लाला लाजपत राय की सलाह पर वह फिर यूरोप चले गये। उन्होंने फ़्रांस और जर्मनी की यात्रायें कीं और ब्रिटेन के ख़िलाफ़ ख़ूब प्रचार किया। साथ ही उन्होंने पश्चिम की, विज्ञान और राजनैतिक विचारधारा का समर्थन किया औऱ उसे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध चल रही जद्दोजहद में सफलता की कुंजी बताया।
लाला हरदयाल ने भारतीय दर्शनशास्त्र पर भाषण देकर और लेख लिखकर बहुत कम आय में ज़िंदगी गुज़ारी। 1909 में वह पेरिस चले गये । वहां उन्होंने मैडम कामा के दो अख़बारों, ‘बंदे मातरम’ और ‘तलवार’ का संपादन किया। 1911 में वह बौद्ध धर्म की शिक्षा प्राप्त करने के लिये मेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय चले गये । वहीं स्टेफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में उन्हें भारतीय दर्शनशास्त्र पढ़ाने के लिये आमंत्रित किया गया। वहां लाला हरदयाल, विश्व औद्योगिक मज़दूर संगठन की सेना फ़्रांसिस्को शाखा में सचिव पद पर काम करते हुये, औद्योगिक मज़दूरों संघों की गतिविधियों में शामिल हो गये। उनके उग्र और अराजकवादी विचारों की वजह से उन्हें स्टेंफ़ोर्ड से इस्तीफ़ा देना पड़ा था।
स्टेंफ़ोर्ड में रहने के दौरान उन्हें बहुत से भारतीय मज़दूरों के साथ दोस्ती करने के अवसर मिले, ख़ास तौर पर पश्चिमी तट पर काम करनेवाले किसानों से। कनाडा के वैकंवूर में ज़ुल्मों का शिकार होने की वजह से वह पहले ही अंग्रेज़ों के खिलाफ़ हो चुके थे।
लाला हरदयाल ने, 1 नवम्बर 1913 को ग़दर पार्टी बनाई।
जिसका मक़सद ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ बग़ावत के लिये लोगों को संगठित करना था। इस ग़दर आन्दोलन में विदेशों में रहनेवाले देश-भक्त, प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और पढ़े-लिखे भारतीय शामिल थे । ग़दर आंदोलन, ब्रिटिश शासन की ग़ुलामी से मुक्ति पाने और राष्ट्रीय व सामाजिक रूप से आज़ाद नये भारत को स्थापित करने के लिये काम कर रहा था। इस संगठन के प्रचारक के रूप में लाला हर दयाल ने बग़ावत,1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम, शिक्षा और राजनैतिक दर्शन पर ख़ूब लेख लिखे।
‘ग़दर की गूंज’ की चंद पंक्तियां इस प्रकार हैं:
ख़तरा महसूस करते ही अंग्रेज़ी सरकार ने लाला हर दयाल को गिरफ़्तार करने के लिये अमरिकी सरकार पर दबाव डाला। 1914 में लाला हर दयाल को गिरफ़्तार कर लिया गया। ज़मानत पर छूटते ही पहले वह स्वट्ज़रलैंड फिर वहां से बर्लिन भाग गये। वहां से उन्होंने उत्तरी-पश्चिमी भारत को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भड़काने की कोशिश कीं।
उसके बाद वह एक निष्पक्ष देश यानी स्वीडन चले गये। जहां वह एक दशक से ज़्यादा समय तक आंदोलनकारी गतिविधियों से दूर रहे। वहां उन्होंने नई नई भाषायें सीखने में समय बिताया।
लाला हर दयाल को ‘हफ़्त-ज़बान’ यानी सात भाषाओं का माहिर माना जाता था।
वह हिंदी, उर्दू ,पंजाबी ,मराठी ,गुजराती ,बंगाली और तमिल बोलना जानते थे। बाद में उन्होंने अंग्रेज़ी,फ़्रांसीसी,जर्मनी,तुर्की, पुर्तुगाली के साथ सात इटली और स्वीडन की भाषायें सीखलीं थी।
1927 में लाला हर दयाल, लंदन विश्वविद्यालय से संस्कृत में पीएच.डी करने के लिये फिर लंदन पहुंच गये। वह एडगवेयर में रहते थे। 1932 में उनकी किताब ‘हिंट्स आफ़ सेल्फ़ कल्चर’ प्रकाशित हुई। उसके बाद वह यूरोप,भारत और अमेरिका में भाषण देने के लिये निकल पड़े। 4 मार्च 1939 में, फ़्लाडेलफ़िया में उनका देहांत हो गया ।
1987 में भारतीय डाक विभाग ने ‘भारत का आज़ादी के लिये संघर्ष’ नाम से डाक टिकटों की एक सीरीज़ जारी की थी उसमें लाला हर दयाल के सम्मान में भी एक डाक टिकट जारी किया गया था। लाला हर दयाल एक ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्ति थे जिन्होंने देश की आज़ादी की लड़ाई के ख़ातिर भारतीय प्रशासनिक सेवा जैसा महत्वपूर्ण स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। उनकी बौद्धिक क्षमताओं से प्रभावित हो कर ही कनाडा और अमेरिका में रहनेवाले भारतीय, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने को तैयार हुये थे।
हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com