झांसी शहर, आज अपने इतिहास और रानी लक्ष्मीबाई की गौरव गाथाओं के लिए जाना जाता है। लेकिन बुंदेलखंड क्षेत्र और झांसी के सांस्कृतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रही है, यहाँ की कला। इसमें महत्वपूर्ण योगदान रहा है, एक ऐसे कलाकार का जिसे ख़ुद रानी लक्ष्मीबाई का संरक्षण प्राप्त था। ये कलाकार थे, झांसी के दरबारी कलाकार रहे सुखलाल। ऐसा भी माना जाता है, कि सुखलाल ने रानी लक्ष्मीबाई का भी एक चित्र बनाया था, वह भी उनके सामने बैठकर।
उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड के लिए झांसी शहर बहुत ही महत्वपूर्ण है। सन 1729 के पूर्व तक झांसी बुन्देल वंशीय राजाओं के आधिपत्य में था। लकिन सन 1729 में महाराजा छत्रसाल ने झांसी की बागडोर बाजीराव पेशवा को सौंपी, उसके बाद, झांसी मराठा शासकों का केन्द्र बना।
झांसी में चित्रकला की उन्नति, उन्नीसवीं सदी के दूसरे चरण में सामने आने लगी थी।
यहां की चित्रकला पर ग्वालियर की कलाकृतियों का बड़ा प्रभाव था। यह प्रभाव झांसी के प्रथम कलाकार सुखलाल तथा अन्य कलाकारों के चित्रों में दिखाई देता है। सुखलाल झांसी में चित्रकला के प्रथम ज्ञात कलाकार हैं। सुखलाल को झांसी के राजा गंगाधर राव (1843-53 ई) का संरक्षण प्राप्त था। इसके पहले भी यह कला मौजूद में रही होगी, लेकिन उसका प्रमाण उपलब्ध नहीं है। राजा गंगाधर राव के समय संगीत और चित्रकला दोनों को बेहद प्रोत्साहन मिला।
राजा गंगाधर राव के बाद सुखलाल को, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई (11 जून 1857 से 04 जून 1858 ) का संरक्षण प्राप्त हुआ। सन 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के असुरक्षित माहोल में सुखलाल, उनके दो पुत्रों मगन तथा गिरधारी और अन्य कलाकारों को झाँसी के क़रीब चिरगांव में छिपकर कर रहना पड़ा था। जहां राष्ट्रीय कवि स्व. मैथलीशरण गुप्त के पिता श्री रामचरण गुप्त ने उन्हें शरण दी थी। रामचरण गुप्त कला-प्रेमी थे, इसीलिए वह सुखलाल के संरक्षक बन गए थे।
सुखलाल के पुत्र मगन लाल और गिरधारी भी चित्रकार थे। मगन लाल के पुत्र परम और भोजे भी कलाकार थे। सुखलाल के चित्रों में ग्वालियर-शैली की अनेक समताएं मिली हैं। जैसे उनके चित्रों में दिखाए गए परिधान, चित्र-संयोजन का साम्य, पृष्ठ-भूमि में स्थापत्य की रूप-रेखा। भोजे अपने नाम के साथ ग्वालियरी लगाते थे, जिससे लगता है, कि सुखलाल ग्वालियर के निवासी थे। सुखलाल के परिवार में अन्य किसी में भी सुखलाल जैसी कला प्रतिभा नहीं थी। इसालिए उनके जाने बाद उनकी कला और परम्परा धीरे-धीरे समाप्त होती गई। शास्त्रीय गुणों से दूर होते-होते जो कला बची थी, उसे लोक-कला के अतिरिक्त कुछ और नहीं कहा जा सकता। इनका परिवार झांसी के चितोरियाना मुहल्ला (लक्ष्मी दरवाज़े के अंदर) में रहता है। झांसी में परम्परागत बुन्देली शैली के कलाकार जवाहर की सन 1956 में मृत्यु के बाद बुन्देली चित्रकला का अंत हो गया।
सुखलाल की कला में सौंदर्य की ख़ास जगह थी। वे परिष्कृत दृष्टि वाले कलाकार थे। जिस प्रकार से वह ऐतिहासिक दृष्टि से झांसी के सबसे पहले कलाकार थे, उसी प्रकार कला-दृष्टि से भी उनका स्थान उच्च कोटि का था।
वे मुग़ल कलाकारों की भांति विशेष प्रकार के काग़ज़ और दीगर सामग्री की उम्मीद नहीं करते थे। वे झांसी की रानी के समय तक राज-कलाकार और सन 1857 के स्वतन्त्रता-संग्राम के पश्चात जन-कलाकार के रूप में महत्वपूर्ण बने रहे। हालांकि झांसी की जनता उन्हें राज-कलाकार के रूप में ही देखती रही। उन्हें जब जैसे काग़ज़, गत्ता या पत्र-पत्रिकाओं के छपे हुए पन्ने आदि मिलते, वे उन्हीं पर चित्रकारी करने लगते थे। उनके बनाए चित्र आज भी झांसी तथा चिरगांव के कला-प्रेमियों के निजी संग्राहों , पूजा-घरों तथा लोगों के घरों की दीवारों पर अपना स्थान बनाए हुए हैं।
सुखलाल के अधिकतर चित्रों में काले रंग का रेखांकन बड़ा ही प्रभावशाली एवं प्रवाहपूर्ण है। अपने ब्रश पर उनका इतना नियंत्रण था, कि उन्हें रेखाएं मिटाने की आवश्कता ही नहीं पड़ती थी। रेखांकन के बाद आवश्यक्तानुसार हल्के रंगों काबड़ी ख़ूबसूरती से उपयोग करते थे। गहरे रंगों से वृक्ष बनाकर उनके आसपास हल्के रंगों का इस्तेमाल करते थे तथा शारीरिक अंगों में हल्के रंग लगाकर, कुछ गहरे रंगों से गोलाई बनाकर बहुत सूक्ष्म रेखाओं से उनकी सजावट करते थे।
सुखलाल ज़्यादातर गहरे रंगों का इस्तेमाल करते थे। रंगों में गहरा हरा, नीला, लाल तथा काला रंग बहुतायत से प्रयोग किया जाता था। हल्के रंगों में नारंगी, भूरा, आसमानी, चांदी-रंग,सफ़ेद, गहरा सफ़ेद तथा बैंगुनी रंगों का भी प्रयोग करते थे। कभी-कभी वह सुनंहरे रंग भी इस्तेमाल किया करते थे।
बुन्देलखण्ड के अन्य चित्रकारों की भांति सुखलाल भी काले रंग की तूलिका से रेखांकन करते थे। इनकी रेखाएं प्रवाह पूर्ण, सूक्ष्म तथा पुख़्ता होती थीं। इनके बनाए चित्रों में कहीं भी रेखाओं को ठीक करने के लिए उन्हें बहुत कम दुहराया गया था। यह चित्रकार के सधे हाथ का प्रमाण था। चित्रों की अधिक मांग के कारण अनेक रेखांकन पारदर्शी काग़ज़ पर बनाए गए थे, जिससे चित्रों की बढ़ती मांग की पूर्ति की जा सके। सुखलाल के चित्रों में अक्सर चेहरा कुछ लम्बा तथा कोमल होता था।
आकृतियों वाले चित्रों का संयोजन इस प्रकार किया जाता था, कि दर्शकों की पहली नज़रख़ुद-ब- ख़ुद मुख्य आकृतियों पर पड जाती थी तथा चित्र का संयोजन बिगड़ने नहीं पाता था। सुखलाल दूर की वस्तुओं को छोटा तथा क़रीब की वस्तुओं को बड़ा बनाते थे, किन्तु वस्तुओं के अलंकरण की इकाईयों को निकटता तथा दूरी के अनुसार बड़ा-छोटा ना बनाकर एक ही आकार का बनाते थे। सुखलाल अपने चित्रों में दूर तक फैली धरती और क्षितिज रेखा पर छोटे छोटे आकार के खजूर के पेड़ तथा घास के पौधें बनाते थे। सुखलाल के चित्रों की पृष्ठभूमि अलंकारिक तथा यथार्थवादी दोनों थी।
सुखलाल के चित्रों में राजा मानसिंह तोमर (1486-1518) कालीन ग्वालियरी, बुन्देली एवं मराठी कला एवं संस्कृतियों का मिला-जुला प्रभाव देखने को मिलता है। सुखलाल अपनी आकृतियों में अवतारी पुरुषों के सिर पर मुकुट, अप्रधान आकृतियों के सिर पर बुन्देली पगड़ी एवं पाग, प्रधान आकृतियों के सिर पर सेला, पुन्नेरी, पागोटें, शिन्देशाही पगड़ियां तथा झांसी की रानी के सिर पर अधिकतर मुड़ासा (साड़ी का लिपटा हुआ भाग) बनाते थे। सुखलाल पुरुष आकृतियों के कतैया नामक वस्त्र बनाते थे। सुखलाल के कटि वस्त्र बुन्देलखण्ड की अन्य जागीरों की भांति विशाल होते थे। सुखलाल के चित्रों में, गहनों की बारीकियां देखी जा सकती थीं। सुखलाल, महंतों के चित्रों में रुद्राक्ष, सेठों की आकृतियों में दुलरी, पंचलरी और हार, पण्डितों की आकृतियों में कंठी, कंकण, उच्च प्रभाव दिखाने के लिए मराठी शैली की बड़ी बड़ी बालियों में बड़े-बड़े मोती बनाते थे।
आज भी झाँसी के राजकीय संग्रहालय में सुखलाल के बनाए हुए चित्र देख सकते हैं, और इन चित्रों को देख कर ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है, कि किस तरह एक समय बुंदेली चित्रकला अपने चरम पर थी और कैसे सुखलाल ने इसे एक यादगार रूप दिया था।
मुख्य चित्र: सुखलाल द्वारा चित्रित रानी लक्ष्मीबाई। सौजन्य से- राजकीय संग्रहालय, झाॅंसी (उ. प्र.)
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