वर्ष 1999 में नासा ने अपनी चार महान वेधशालाओं में से तीसरी वेधशाला का नाम एक भारतीय-अमेरिकी खगोल भौतिकीविद् के सम्मान में,चंद्र एक्स-रे रखा था। इस वेधशाला को अंतरिक्ष शटल कोलंबिया से लॉन्च और तैनात किया गया था। लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती। चंद्रशेखर संख्या, चुंबकीय संवहन में उपयोग की जाने वाली एक महत्वपूर्ण आयाम रहित मात्रा, ऐस्टोरॉयड 1958 चंद्र और भारतीय खगोलीय वेधशाला के हिमालयी चंद्र टेलीस्कोप का नाम भी खगोल भौतिकीविद् के नाम पर रखा गया है। यह प्रख्यात गणितज्ञ और खगोल भौतिकीविद् सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर थे, जो नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले खगोल वैज्ञानिक थे।
10 अक्टूबर,सन 1910 को लाहौर (अब पाकिस्तान) में जन्मे सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की पारिवारिक पृष्ठभूमि शिक्षाविदों की थी। उनके पिता सी.एस. अय्यर भारतीय सिविल सेवा में एक बड़े पद पर थे। उनकी मां सीतालक्ष्मी ने केवल कुछ वर्षों की औपचारिक शिक्षा के बावजूद नॉर्वे के मशहूर नाटककार हेनरिक इब्सन के नाटक “ए डॉल्स हाउस” का तमिल में अनुवाद किया था। बचपन से ही चंद्रशेखर की गणित और विज्ञान में गहरी रुचि थी। उनके पिता चाहते थे, कि वह भारतीय सिविल सेवा में जाएं, लेकिन उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में अपना करिअर बनाने का फैसला किया।
उन्होंने सन 1930 में प्रेसीडेंसी कॉलेज, चेन्नई से भौतिकी विषय में बी.एस. सी. किया और उसी साल कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में आगे अध्ययन करने के लिए भारत सरकार से उन्हें छात्रवृत्ति मिल गई।
इसी दौरान चंद्रशेखर ने सितारों के क्रमिक विकास पर विचार करना शुरू कर दिया था। ये माना जाता था, कि जब सितारों की सारी ऊर्जा ख़त्म हो जाती थी, तो वे सघन पिंड में सिकुड़ जाते थे जिसे वाइट ड्वार्फ या सफ़ेद बौना कहा जाता था।
सन 1930 में कैम्ब्रिज की अपनी यात्रा के दौरान चंद्रशेखर ने यह जानने की कोशिश की, कि गिरने के बाद बड़े सितारों का क्या हुआ? संयोग से यह वही वर्ष था, जब उनके चाचा सी.वी.रमन को उनके अभूतपूर्व कार्य के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था। दिलचस्प बात यह थी, कि रमन जब इंग्लैंड से भारत आ रहे थे तब उनके दिमाग़ में यह सवाल पैदा हुआ कि आसमान और समुद्र का नीला रंग क्यों होता है? और उन्होंने ही इस गुत्थी को सुलझाया था, जिसे “रमन प्रभाव” के रूप में जाना जाता है।
चंद्रशेखर ने कैम्ब्रिज में अपना शोध जारी रखा। 1931 में चंद्रशेखर एक सिद्धांत पर पहुंचे, कि सभी समाप्त होने वाले सितारों का एक महत्वपूर्ण द्रव्यमान होता है, जो सूर्य के द्रव्यमान का 1.4 गुना होता है। यदि तारों का द्रव्यमान इस सीमा से अधिक भारी होता है, तो वह ढ़ह जाता है, जिसे आज ब्लैक होल के रूप में जाना जाता है। इसे चंद्रशेखर लिमिट (सीमा) के रूप में जाना जाने लगा।
बहरहाल चंद्रशेखर ने सन 1935 में जब रॉयल एस्ट्रोफिजिकल सोसाइटी में अपना शोध प्रस्तुत किया , तो उस समय के प्रमुख खगोल वैज्ञानिक सर आर्थर एडिंगटन ने उसे रद्द कर दिया। दरअसल, ऐसा कहा जाता है कि उस समय के कई प्रख्यात वैज्ञानिक चंद्रशेखर के सिद्धांत से सहमत थे, लेकिन वे एडिंगटन के ख़िलाफ़ खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा सके!
अपने सिद्धांत पर हुए विवाद से निराश हो कर चंद्रशेखर कैम्ब्रिज छोड़कर,सन 1937 में शिकागो विश्वविद्यालय चले गए, जिसके साथ वे जीवनभर जुड़े रहे। इसी दौरान उन्होंने चेन्नई के प्रेसीडेंसी कॉलेज में अपनी जूनियर रहीं ललिता दोराईस्वामी से शादी कर ली। चंद्रशेखर को सन 1933 से सन 1937 तक ट्रिनिटी कॉलेज में प्रतिष्ठित फ़ेलोशिप के लिए भी चुना गया। महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन के बाद ट्रिनिटी फ़ेलोशिप पाने वाले वह दूसरे भारतीय थे।
सन 1952 में वह द् एस्ट्रोफ़िज़िकल जर्नल के संपादक बन गए और उनके संपादन में ये जर्नल खगोल भौतिकी में अव्वल दर्जे की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका बन गई। इस दौरान उन्होंने खगोल भौतिकी के कई अन्य शाख़ाओं के बारे में खोज-बीन की और शोध भी किया।
तब तक “चंद्रशेखर लिमिट” को दुनिया भर के खगोल भौतिकीविदों ने स्वीकार कर लिया था। इसे आधुनिक खगोल भौतिकी की बुनियादों में से एक माना जाता है। चंद्रशेखर के इसी काम की वजह से उन्हें सन 1983 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था। उनके साथ यह नोबेल पुरुस्कार प्रसिद्ध अमेरिकी परमाणु भौतिक विज्ञानी डब्ल्यू ए फाउलर को भी मिला था।
एक मशहूर वैज्ञानिक होने साथ ही चंद्रशेखर एक लेखक भी थे। उन्होंने विज्ञान पर कई लेख लिखे। उन्होंने कई लेख लिखे और अलग अलग विषयों पर दस से अधिक किताबें लिखीं। उन्होंने सर आइज़ेक न्यूटन के कार्यों का वर्षों तक अध्ययन करने के बाद, सन 1995 में सामान्य पाठक के लिए न्यूटन के सिद्धांत पर एक किताब भी लिखी थी।
सन 1995 में सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर का निधन हो गया। नोबेल पुरस्कार के अलावा चंद्रशेखर को उनके जीवनकाल में कई पुरस्कार और सम्मान से सम्मानित मिल चुके थे। सन 1944 में उन्हें रॉयल सोसाइटी का फेलो चुना गया,सन 1953 में रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी के स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया। सन 1957 में उन्हें अमेरिका में सबसे पुराने वैज्ञानिक पुरस्कारों में से एक अमेरिकन एकेडमी ऑफ़ आर्ट्स एंड साइंसेज़ का रमफ़ोर्ड प्राइज़ और सन 1966 में नेशनल मेडल ऑफ़ साइंस- यूएसए, मिला। सन 1968 में उन्हें भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें अनगिनत पुरस्कार मिले थे।
लंदन की रॉयल सोसाइटी के अध्येताओं के जीवनी संबंधी संस्मरणों में ब्रिटिश खगोलशास्त्री आर.जे.टेलर लिखते हैं, “चंद्रशेखर व्यवहारिक गणित के बहुत बड़े माहिर थे, जिनका शोध खगोल विज्ञान में बुनियादी तौर पर इस्तेमाल किया गया था और उनकी तरह के लोगों को शायद दोबारा शायद कभी नहीं देखा जा सकेगा।”
चंद्रशेखर का शोध आज भी प्रासंगिक है, और अंतरिक्ष अनुसंधान और आधुनिक खगोल विज्ञान के क्षेत्र में इसका आज भी उपयोग किया जाता है।
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