फ्रांस की राजधानी पेरिस की रौनक़ से भरी गलियों के बीचों-बीच एक रिहाईशी इमारत है – 46 रयू ब्लांक। ये एक साधारण-सी इमारत है, जहां कुछ मकान और छोटे दफ्तर हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसका सम्बन्ध भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से रहा है?
हैरत की बात ये है कि वहाँ के प्रवासी भारतीयों, वहां आने-जाने वाले भारतीय पर्यटकों और यहाँ तक कि वहां मौजूद भारतीय दूतावास को भी इसके बारे में कुछ जानकारी नहीं है! ये उस शख़्श का भवन है, जिसने अपना ज़्यादातर जीवन वहीँ पर गुज़ारा और अपनी मातृभूमि को आज़ाद करवाने की लड़ाई लड़ी। मगर विडम्बना ये है कि इस महान व्यक्ति को अपने ही मुल्क ने भुला दिया!
ये शख़्स थे सरदारसिंहजी रावजी राणा। जिन्होंने फ्रांस में रहकर स्वतंत्रता आन्दोलन में दिल भरकर योगदान किया फिर चाहे वो क्रांतिकारियों के लिए हथियार जुटाने हों, स्वतंत्रता सेनानियों को पनाह देनी हो या शिक्षण संस्थानों के लिए संसाधन का प्रबंध करना हो, राणा हर दम तैयार रहते थे।
10 अप्रैल सन 1870 को गुजरात के सुरेन्द्रनगर ज़िले के चुडा तालुक में जन्में राणा ने अपनी स्कूली शिक्षा राजकोट के अलफ़्रेड हाई स्कूल से पूरी की। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी इसी स्कूल में पढ़ाई की थी। उन्हीं की वजह से इस स्कूल का वर्तमान नाम पड़ा।बाद में राणा ने मुंबई और पुणे का रुख़ किया। जहां तालीम हासिल करने के दौरान, वो स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों से बहुत प्रभावित हुए। लेकिन उनके जीवन को दिशा सन 1890 के दशक में मिली, जब वह क़ानून की पढ़ाई के लिए लन्दन गए ।
लन्दन जाना राणा के लिए किसी वरदान से कम नहीं साबित हुआ। यहाँ उन्होंने फ्रेंच और जर्मन भाषाएं सीखीं। साथ ही उन्होंने वहां के भारतीय समुदाय से सम्पर्क बनाने शुरू किए जिनमें से प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी श्यामजी कृष्ण वर्मा और मैडम भिकाजी कामा भी शामिल थीं। हालांकि राणा वहां क़ानून की पढ़ाई कर रहे थे, लेकिन चूंकि वो स्वतंत्रता संग्राम में योगदान करना चाहते थे। उसके लिए आर्थिक रूप आत्मनिर्भर होना ज़रूरी था। इसीलिए उन्होंने सूरत के मशहूर हीरा व्यापारी जीवनचंद के यहां अनुवादक और कमीशन एजेंट के तौर पर काम करना शुरू किया। कुछ वर्षों बाद, राणा ने क़ानून की पढ़ाई तो पूरी कर ली। लेकिन उनका झुकाव अपने मादर-ए-वतन को आज़ाद करवाने की ओर ज़्यादा था। इसीलिए वह हीरों का व्यापार करने लगे और श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय हो गए।
ज़्यादातर लोग ये नहीं जानते हैं कि लन्दन स्थित इंडिया हाउस कीस्थापना में सिर्फ़ श्यामजी कृष्ण वर्मा का हाथ नहीं था, बल्कि उसमें अन्य कई लोगों के साथ राणा भी शामिल थे।इंडिया हाउस अपने ज़माने में भारतीय और यहाँ तक की रूसी और आयरिश क्रांतिकारियों का भी गढ़ हुआ करता था। उसकी स्थापना के दौरान, राणा ने कई और जिम्मेदारियां भी अपने कंधों पर ले रखीं थीं। वहलन्दन में मौजूद होम रूल सोसाइटी के उप-राष्ट्रपति का पद संभाले हुए थे। वह ‘इंडिया सोशालोजिस्ट’ अख़बार का सम्पादन भी कर रहे थे। उस अख़बार में अंग्रेज़ों द्वारा भारत में किए जा रहे दुष्कर्मों, अन्यायों और अत्याचारों पर प्रकाश डाला जाता था। वह लंदन में आकर पढ़ने वाले भारतीय विद्यार्थियों के लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था भी करते थेI जो विद्यार्थी इस तरह का वज़ीफ़ा पाकर इंग्लैंड आए, उनमें विनायक दामोदर सावरकर भी थे। सावरकर और राणा के ख़ास रिश्ते थे। दोनों ने मिलकर सन 1857 की क्रान्ति की महत्वता के बारे में एक-साथ काम किया था । जब इस क्रान्ति के पचास साल पूरे हुए, तब राणा की मार्गदर्शन में एक समारोह का आयोजन हुआ था और सावरकर की इस विषय पर लिखी किताब का प्रकाशन भी उनकी देख-रेख में हुआ था ।
सावरकर के अलावा राणा ने अन्य स्वतंत्र सेनानियों के साथ भी मिल-जुलकर काम किया। वह, सन1907 में, जर्मनी के स्टुटगार्ट में, आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक कांफ्रेंस में मैडम भिकाजी कामा के साथ गए थे। वहां उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए हो रहे संघर्ष के बारे में जागरूकता फैलाई थी। राणा ने ही सेनापति बापट को बम बनाने में महारथ हासिल करने के लिए रूस भेजा था। बम बनाने की यही जानकारी सन1908 में, अलीपुर बम कांड के वक़्त काम आई थी। इतना ही नहीं, राणा ने सन 1909 में, एक समारोह के दौरान कर्ज़न वायली की हत्या करने के लिए, मदन लाल धींगरा को बंदूक भी दी थी। लेकिन इसके बाद क्रांतिकारियों के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों की गतिविधियाँ तेज़ होने लगीं। तब ही राणा का नाम सामने आया। उसी के बाद अंग्रेज़ सरकार ने उनके भारत आने पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया था। लेकिन व्यापार के सिलसिले में राणा का पेरिस आना-जाना चलता रहता था। उन्हें पेरिस बहुत रास आ रहा था। सन 1909 में ही उन्होंने पेरिस को ही अपना गढ़ बना लिया था। फ्रांसीसी नागरिकता हासिल करने के बाद वह 46-रयू ब्लांक में रहने लगे थे और वहीं से जीवनचंद का व्यापार सम्भालने के साथ-साथ स्वतंत्र आन्दोलन के लिए भी काम कर रहे थे।
राणा ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान दिया । सन 1910 के दशक की शुरूआत में जब पंडित मदन मोहन मालवीय एक शिक्षण संस्थान स्थापित करने के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे थे, तब वह पेरिस भी गए थे। वहां उनकी मुलाक़ात राणा से हुई । राणा ने पेरिस और लन्दन में रह रहे प्रवासी भारतीयों से, कुल 28 लाख रुपय की रक़म जमा करने में मदद की। उन्होंने ख़ुद भी पांच लाख रूपए यानी सबसे बड़ी रक़म का योगदान किया । आज ये शिक्षण संस्थान बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के नाम से मशहूर है। राणा ने शान्तिनिकेतन के लिए रबिन्द्रनाथ टैगोर को लगभग एक लाख किताबें भेंट कीं, साथ ही उनके लिए पाठ्यक्रम तैयार करने में भी मदद की।इस सिलसिले में राणा ने रबिंद्रनाथ टैगोर की, यूरोप के कई मशहूर अध्यापकों से मुलाक़ात भी करवाई।
पहले विश्व युद्ध (1914-1919) के दौरान जब इंग्लैंड और फ्रांस एक साथ हो गए , तब अंग्रेज़ों ने मौक़े का फ़ायदा उठाकर राणा को गिरफ्तार करने की मांग की । अंग्रेज़ों को ख़ुश करने को लिए फ़्रांसीसियों ने राणा को मार्टीनीक द्वीप में नज़रबंद कर दिया । लेकिन राणा को नज़रबंदी से फ़ायदा हो गया। युद्ध की वजह से पेरिस में कई व्यवसायियों को धंधे में नुक़्सान उठाना पड़ा था। राणा उस घाटे से बच गए। जिस द्वीप में उन्हें नज़रबंद किया गया था, उसी द्वीप में उन्होंने खेती-बाड़ी करके न सिर्फ़ अपना गुज़ारा किया, बल्कि अच्छा-ख़ासा पैसा भी कमा लिया!
युद्ध ख़त्म होने के बाद, राणा ने खेती-बाड़ी से हुई कमाई और युद्ध से पहले व्यापार से कमाए गए पैसों को मिलाकर दोबारा व्यवसाय शुरु किया। उसके बाद वह न सिर्फ़ यूरोप में बल्कि वहां रह रहे प्रवासी भारतीयों के बीच एक प्रभावशाली शख़्सियत के रूप में उभरे। अपने व्यवसाय में सफल राणा ने कई क्रांतिकारी गतिविधियों और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मोर्चों को भी आर्थिक मदद दी । लेखन से इनका नाता क़ायम रहा। उन्होंने मैडम कामा के साथ मिलकर ‘बन्दे मातरम’, ‘तलवार’ जैसी कई पत्रिकाओं में अपने लेखों से जागरूकता फैलाई।
राणा का घर, कई स्वतंत्र सेनानियों का ठिकाना रहा। उनमें वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय और लाला लाजपत राय प्रमुख थे। लाला लाजपत राय ने अपनी किताब ‘अन्हेप्पी इंडिया’ वहीं पर लिखी थी। पेरिस की स्थानीय इंडियन एसोसिएशन का मुख्यालय भी यहीं था। यहीं से भारत की स्वतंत्रता की सभी गतिविधियां चलाई जाती थीं । यूरोप में राणा का प्रभाव बेहद मददगार साबित हुआ था। जब सन 1940 के पूर्वार्ध में सुभाष चन्द्र बोस, भारत से छिपकर जर्मनी पहुंचे थे, तब उन्होंने वहाँ आज़ाद हिन्द या इंडियन लीजन की स्थापना की थी। उसके लिए राणा ने न सिर्फ़ आर्थिक सहायता की थी बल्कि जर्मनी से बोस के भाषण का प्रसारण भी करवाया!
15 अगस्त, सन 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ, तब प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने राणा को स्वदेश आने का निमन्त्रण भेजा था। राणा वापस तो आए लेकिन उन्होंने अपने रिश्तेदारों के साथ कुछ दिन बिताए और वापस पेरिस चले गए। सन 1951 में फ़्रांस की सरकार ने राणा को सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘शेवेलियर’ से नवाज़ा। चार साल बाद, सन 1955 में उनकी सेहत बिगड़ने लगी थी । इसीलिए वह अपना व्यवसाय बंद करके वापस भारत आ गए थे। 25 मई सन 1957 को उन्होंने अंतिम सांस ली।I
भले ही गुजरात के विधानसभा भवन में राणा की तस्वीर लगी हो, मगर राष्ट्रीय स्तर पर आज तक उन्हें कोई सम्मान नहीं मिला। पेरिस की जिस इमारत में राणा रह रहे थे, आज वहाँ कई घर और दफ्तर हैं, लेकिन राणा का दूर-दूर तक कोई ज़िक्र नहीं है। भारत का यह महान सपूत इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया है…
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