दिल्लीवासियों के लिए सर गंगाराम कोई अपरिचित नाम नहीं है क्योंकि राजधानी में इनकी याद में, इनके नाम पर एक प्रसिद्ध अस्पताल है। लेकिन दिल्ली से 482 कि.मी. उत्तर-पूर्व दूर पाकिस्तान के शहर लाहौर में भी उनके नाम पर, उनकी याद में बनाया गया एक अस्पताल है।
गंगाराम एक अद्भुत इंजीनियर और परोपकारी व्यक्ति थे। उन्हें आधुनिक लाहौर का जनक माना जाता है। उनकी असाधारण सेवा और उत्तम इंजीनियरिंग कुशलता की वजह से ही उन्हें पुराने शाही शहर को आधुनिक बनाने का जिम्मा सौंपा गया था।
आरंभिक जीवन
सर गंगाराम (गंगा राम अग्रवाल) का जन्म लाहौर के पास ही मंगतांवाला गांव में 13 अप्रैल सन् 1851 में हुआ। उनके पिता जूनियर पुलिस सब-इंस्पेक्टर थे। गंगाराम के बचपन में ही उनका परिवार अमृतसर आ गया।
उन्होंने स्कूली पढ़ाई अमृतसर में की, फिर लाहौर के प्रतिष्ठित गाॅरमेंट कॉलेज के लिए उन्हें स्कॉलरशिप मिल गई। उसके बाद एक और स्कॉलरशिप मिली जिसकी वजह से उन्हें रुड़की के थॉम्सन सिविल इंजीनियरिंग काॅलेज में दाखिला मिल गया जिसे आज आईआईटी रुड़की (उत्तराखंड) के नाम से जाना जाता है। गंगाराम प्रतिभाशाली छात्र थे। उन्हें सन् 1873 में, निम्न अधिनस्त परीक्षा के फाईनल में गोल्ड मैडल भी मिला।
शिक्षा में अच्छा रिकाॅर्ड होने और स्नातक परिक्षा पास करने के बाद, उनकी नियुक्ति बतौर सहायक इंजीनियर प्रतिष्ठित केंद्रीय लोक निर्माण विभाग में हो गई। उसके बाद उन्हें दिल्ली दरबार के लिए एम्पीथियेटर (गोलाकार खुला मंच) बनाने के लिए दिल्ली बुलवाया गया। दिल्ली दरबार का आयोजन उसके चार साल बाद सन् 1877 में हुआ था। इस दरबार को “घोषणा दरबार” के नाम से जाना जाता था, जहां इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को भारत की महारानी घोषित किया गया था।
इसके बाद, गंगाराम ने रेलवे में सामरिक महत्व की अमृतसर-पठानकोट रेलवे लाइन पर काम किया। इन दो प्रतिष्ठित परियोजनाओं पर काम करने की वजह से, उस समय के वाइसराय और भारत के गवर्नर जनरल जॉर्ज रॉबिन्सन का ध्यान गंगाराम की तरफ गया जिन्होंने गंगाराम को जलकल और जल निकास में दो साल का कोर्स करने के लिए ब्रैडफोर्ड टैक्निकल कॉलेज, इंग्लैंड (अब ब्रैडफोर्ड विश्वविद्यालय) भेज दिया। कुछ सालों में ही यहां के अनुभवों से उन्हें न सिर्फ पंजाब को विकसित करने में, बल्कि कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाने में मदद मिली।
गंगा राम और लाहौर की वास्तु-कला का सुनहरी दौर
सन् 1885 में गंगाराम इंग्लैंड से लाहौर वापस आ गए थे जहां उन्होंने लाहौर शहर को, एक नया रूप देने के लिए अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण योजना को पूरा किया। लाहौर, सदियों तक दिल्ली सल्तनत और मुगलों की प्रांतीय राजधानी रहा था और ये महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य की भी राजधानी रहा था। सन् 1849 में साम्राज्य पर अंग्रेज़ों के कब्जे के बाद मुगल और सिख स्मारक, बाग तथा मकबरे बरबाद होने लगे थे, साथ ही शहर का शाही वैभव खत्म होने लगा था।
सिख शासन के दौरान अमृतसर सिख साम्राज्य और उत्तर भारत का आर्थिक केंद्र बनकर उभरा था। अंग्रेज़ों के शासन के दौरान जहां अमृतसर फलाफूला; वहीं लाहौर, दिल्ली जैसे शहरों से भी पिछड़ गया जहां सन् 1857 के विद्रोह के बाद फिर खुशहाली आ गई थी। इस तरह 19वीं सदी के अंतिम दो दशकों में अंग्रेज़ों ने मुगलों के बाद, लगभग बरबाद हो चुके लाहौर को दोबारा बनाने का फैसला किया।
नए शहर को आधुनिक बनाना था। इसके लिए इंडो-इस्लामिक वास्तुकला को चुना गया जो पारंपरिक भारतीय वास्तुकला थी। शहर में पहले से ही लोक निर्माण विभाग में काम कर रहे गंगाराम को लाहौर का एक्ज़िक्यूटिव इंजीनियर नियुक्त कर दिया गया।
गंगाराम ने म्यायो स्कूल ऑफ इंडस्ट्रियल आर्ट्स (अब नैशनल कॉलेज ऑफ आर्ट्स) का डिज़ाईन तैयार किया और इसे बनाया। ब्रिटिश इंडिया में तब ये दो आर्ट्स कॉलेजों में से एक था।
इसके बाद उन्होंने एचिसन काॅलेज का निर्माण किया। सन् 1887 में इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया की गोल्डन जुबली के मौके पर उन्हें मुख्य डाक खाना और लाहौर संग्रहालय बनाने का काम सौंपा गया। उन्होंने मॉडल टाउन और गुलबर्ग; यानी शहर की दो मशहूर काॅलोनियों का डिज़ाईन भी बनाया जो आज भी आधुनिक लाहौर का प्रतीक हैं। उन्होंने लाहौर में पीने के पानी की नई व्यवस्था स्थापित करने के अलावा कई अन्य भवन भी बनावाए।
सन् 1900 तक भारत के वाइसराय उनके काम से इतने प्रभावित हो गए थे कि उन्होंने गंगाराम को, दिल्ली में आयोजित होने वाले शाही दरबार का सुप्रिटेंडेंट इंजीनियर नियुक्त कर दिया। ये दरबार किंग एडवर्ड की ताजपोशी के मौके पर, सन् 1903 में आयोजित होना था। गंगाराम ने उम्मीद से कहीं बेहतर काम करके दिखा दिया।
लाहौर में एक्ज़िक्यूटिव इंजीनियर के पद पर 12 साल तक काम करने के बाद गंगाराम ने सन् 1903 में, वक्त से पहले ही रिटायरमेंट ले लिया। उसी साल उन्हें राय बहादुर का ख़िताब दिया गया और उन्हें सीआईई यानी कम्पेनियन ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर नियुक्त किया गया।
गंगाराम ने लाहौर पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। लाहौर में एक्ज़िक्यूटिव इंजीनियर के तौर पर गुज़ारे गए उनके 12 साल के कार्यकाल को “वास्तुकला का गंगाराम युग” कहा जाता है। 20वीं सदी के आते-आते लाहौर की भारतीय उप-महाद्वीप के बड़े शहरों में गिनती होने लगी। यहां बड़ी संख्या में लोग रोजगार की तलाश में आने लगे।
पंजाब (भारत) की पटियाला रियासत के, उस समय महाराजा भूपेंदर सिंह लाहौर की तर्ज पर अपनी रियासत को आधुनिक बनाना चाहते थे। गंगाराम उनकी पहली पसंद थे। इस प्रतिभाशाली इंजीनियर को रिटायरमेंट से वापस बुलाकर इस महत्वकांक्षी योजना का जिम्मा सौंपा गया। गंगाराम को सुप्रिटेंडेंट इंजीनियर का पद दिया गया और पटियाला को नया रूप देने का काम सौंपा गया। आज मोती बाग पैलेस, सचिवालय भवन, विक्टोरिया गल्र्स स्कूल, सिटी हाई स्कूल, न्यायालय भवन और इजलास-ए-खास भवन उन्हीं की देन है।
एक होनहार किसान
पटियाला में काम करते वक्त गंगाराम के ज़हन में आगे की योजनाएं भी बन रही थीं। उन्होंने सरकार से मोंटगोमरी और रेनाला खुर्द (दोनों पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में) में पचास हज़ार एकड़ बंजर जमीन पट्टे पर ली। तीन साल के भीतर ही इस इंजीनियर ने उस बंजर रेगिस्तान को खुद अपने पैसे से बनाए गए पन-बिजली पम्पिंग प्लांट और नहरों से उपजाऊ ज़मीन बना दिया।
सन् 1903 में जब गंगाराम रिटायर हुए तो सरकार ने उन्हें, कुछ समय पहले ही नई बसी चेनाब कॉलोनी में पांच सौ एकड़ जमीन आवंटित कर दी। इस ज़मीन पर गंगाराम ने “गंगापुर” गांव बसाया जिसमें भारत में पहली बार एक ऐसा खेत बना जहां मशीन से कटाई की जाती थी, मशीन से मेढ़ बनाई जाती थी, जुते हुए खेत में बुवाई के पहले मिट्टी के ढेले तोड़ने का यंत्र होता था, हंसिये होते थे, पानी भी मशीन से छिड़का जाता था तथा कृषि के अन्य आधुनिक यंत्र भी होते थे।
उसी साल, सन् 1903 में गंगाराम ने एक अनोखी “घोड़ा ट्रेन” बनाई। इसमें दो ट्रॉलियां लगी होती थीं जिसे एक संकरी रेल पटरी पर रेल इंजन के बजाय एक घोड़ा खींचता था। इस घोड़ा ट्रेन की वजह से गंगापुर गांव रेलवे लाईन सेे जुड़ गया। ये ट्रेन पास के गांव बुचियाना में रुकती थी।
घोड़ा ट्रेन के लिए रेल पटरी भी गंगाराम ने ही खासतौर से बनाई थी। ये घोड़ा ट्रेन, लाहौर-जड़ांवाला रेलवे लाईन पर चलती थी। इस ट्रेन की वजह से न सिर्फ गंगापुर में खुशहाली आ गई बल्कि गंगाराम की किस्मत भी चमक गई।
इंजीनियर से परोपकारी तक का सफर
सन् 1920 के आरंभिक वर्षों में सिखों ने उदासी महंतों से गुरुद्वारों का कब्जा लेने के लिए अकाली आंदोलन शुरु किया। अमृतसर जिले में अजनाला के पास गुरु का बाग गुरुद्वारे के लिए सबसे ज्यादा तेज मुहिम छेड़ी गई। यहां महंतों ने अंग्रेज़ सरकार की मदद से सैकड़ों सिख कार सेवकों को पकड़कर उनपर जुल्म करती थी जो उस जमीन पर नियंत्रण के लिए आंदोलन कर रहे थे जिस पर गुरुद्वारा बना हुआ था।
सिखों से हमदर्दी रखते हुए सर गंगाराम ने न सिर्फ मामले में दखल दिया बल्कि महंत सुंदर दास से वह ज़मीन भी पट्टे पर ले ली और इस तरह अकालियों को गुरुद्वारे में प्रवेश का हक मिल गया। बाद में उन्होंने सरकार से पांच हज़ार सिख कार सेवकों को रिहा भी करवाया। इसी वजह से गंगारम को सिख समुदाय में बेहद सम्मानित व्यक्ति माना जाता है।
अब तक गंगाराम की उम्र पचास साल से ज्यादा हो चुकी थी। वे दौलतमंद और ताकतवर बन चुके थे। उन्होंने बहुत कुछ हासिल कर लिया था। अब वे इसे लोगों को वापस करना चाहते थे। सरकार की तरफ से बहुत से कल्याणकारी काम करने के बाद उन्होंने स्वयं अपने पैसों से कल्याणकारी कार्य करने का फैसला किया।
लाहौर में उन्होंने गंगाराम अस्पताल, लेडी मैक्लैगन गल्र्स हाई स्कूल, गवर्मेंट कॉलेज यूनिवर्सिटी का कैमेस्ट्री विभाग, म्यायो अस्पताल का एल्बर्ट विक्टर प्रकोष्ठ, सर गंगाराम हाई स्कूल (अब लाहौर कॉलेज फॉर वुमैन यूनिवर्सिटी), हैली कॉलेज ऑफ कॉमर्स (अब हैली कॉलेज ऑफ बैंकिंग एंड फाइनैंस), अपाहिजों के लिए रावि रोड हाऊस, माल रोड पर गंगाराम ट्रस्ट बिल्डिंग और लेडी मैनार्ड इंडस्ट्रियल स्कूल बनवाया। सन् 1925 में उन्होंने पंजाब (पाकिस्तान) में रेनाला खुर्द में उप-महाद्वीप का पहला पनबिजली घर बनवाया।
गंगाराम एक अद्भुत प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे और औपनिवेशिक सरकार ने उनके योगदान को स्वीकार भी किया। सन् 1922 में इंग्लैंड के तत्कालीन महाराजा जॉर्ज ने बकिंघम पैलेस में उन्हें ‘सर’ के खिताब से सम्मानित किया।
लेकिन सम्मान और वाहवाही से गंगाराम को कोई फर्क नहीं पड़ता था। सन् 1923 में उन्होंने सर गंगाराम ट्रस्ट स्थापित किया जिसके माध्यम से विधवाओं के लिए एक आश्रम बनाया। इसके अलावा उन्होंने लाहौर में एक घर्मार्थ अस्पताल, बुजुर्गों, उपेक्षित और अपाहिजों के लिए भी एक आश्रम बनवाया। उन्होंने युवाओं के लिए एक संस्थान भी बनवाया, जहां वह धन-प्रबंधन की शिक्षा ले सकते थे। बाद में ये संस्थान हैली कॉलेज ऑफ कॉमर्स में बदल गया।
सन् 1925 में सर गंगाराम ने पंजाब सरकार को मैनार्ड-गंगाराम प्राइज़ के लिए 25 हज़ार रुपए की अक्षयनिधि दी। यह पुरस्कार हर तीन साल में एक बार, किसी ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जिसने किसी ऐसी व्यवहारिक प्रणाली की खोज या आविष्कार किया हो जिससे पंजाब में कृषि उत्पादन बढ़ सके। पंजाब (पाकिस्तान) में ये प्रतियोगिता आज भी जारी है और इसमें कोई भी हिस्सा ले सकता है।
गंगाराम का 10 जुलाई सन 1927 में, लंदन में निधन हो गया था। लाहौर में उनकी समाधि बनाई गई, जो आज भी मौजूद है। माल रोड के चैराहे पर उनकी प्रतिमा भी थी, जो 1960 के आस-पास गिरा दी गई। माल रोड वह इलाका है जिसे सर गंगाराम के बनाए गए स्मारकों पर आज भी गर्व है।
‘अपने’ लाहौर से दिल्ली
गंगाराम के निधन के दो दशक बाद उप-महाद्वीप भारत और पाकिस्तान में बंट गया और दोनों तरफ बहुत खून खराबा तथा दंगे-फसाद हुए। बहुत से हिंदू और सिख परिवारों की तरह गंगाराम का परिवार भी लाहौर से भारत आ गया।
उर्दू के मशहूर कहानीकार सआदत हसन मंटो ने बंटवारे के दौरान हुए कत्लेआम पर एक व्यंग्य लिखा था। जिसका शीर्षक था, ‘गारलैंड’। यह कहानी उन्होंने एक दंगे के दौरान आँखों देखी घटना पर लिखी थी।
पाकिस्तान बनने के बाद दंगाई लाहौर से हिंदुओं की हर निशानी मिटाना चाहते थे। कहानी में बताया गया है कि एक रिहाइशी इलाके पर हमला करने के बाद दंगाई महान परोपकारी सर गंगाराम की प्रतिमा पर हमला करने के लिए आगे बढ़े। पहले उन्होंने प्रतिमा पर पत्थर फेंके। फिर प्रतिमा के चेहरे पर कोलतार लगाकर उसे काला कर दिया। उसके बाद एक व्यक्ति जूतों का हार लेकर ऊपर चढ़ा। वह प्रतिमा के गले में जूतों का हार डालना चाहता था। इतने में पुलिस आ गई। पुलिस ने गोलियां चलाईं। कई लोग घायल हो गए। घायलों में वह व्यक्ति भी था जिसके हाथ में जूतों की माला थी। जैसे ही वह व्यक्ति चोटिल होकर नीचे गिरा लोगों ने शोर मचाया, “इसे सर गंगाराम अस्पताल ले चलो।” विडम्बना यह थी कि दंगाई उसी व्यक्ति की यादों को मिटाने जा रहे थे, जिसने यह अस्पताल बनवाया था।
अप्रैल सन् 1954 को दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहार लाल नेहरु ने सर गंगाराम अस्पताल का उद्घाटन किया। अस्पताल बनाने की पहल सर गंगाराम के दामाद धर्म वीर ने की थी जो नेहरु के प्रमुख निजी सचिव थे।
बहुत से लोग सर गंगाराम के बारे में नहीं जानते जो एक बेहतरीन इंजीनियर तो थे ही साथ ही वे एक ऐसे इंसान भी थे जिसके दिल में सब के लिए हमदर्दी थी। पंजाब के गवर्नर सर मैल्कम हैली (1924-1928) के शब्दों में, “सर गंगाराम नायक की तरह जीते और उन्होंने एक संत की तरह सब कुछ न्योछावर कर दिया।”
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