यह बड़े दुख की बात है कि भारत में चंद ही लोगों ने डॉ. हरि सिंह गौर के बारे में सुना होगा । डॉ. हरि सिंह गौर एक प्रसिद्ध शिक्षाविद्, वकील, राजनेता, लेखक और समाज सुधारक थे। इसके अलावा वह दिल्ली विश्वविद्यालय के पहले वाइस चांसलर, नागपुर नगर पालिका के मेयर और उस संविधान सभा के सदस्य थे जिसने भारत का संविधान बनाया था। डॉ. हरि सिंह उन महान लोगों में से थे जिनका नाम सत्ता में बैठे लोगों की वजह से कभी सामने नहीं आ सका। मध्य प्रदेश के सागर शहर के इस धरती-पुत्र की याद को लेकर बस एक विश्वविद्यालय है जिसकी स्थापना ख़ुद उन्होंने की थी।
हरि सिंह गौर का जन्म 26 नवंबर 1870 को सागर में, एक ग़रीब परिवार में हुआ था। उनके पिता मानसिंह (भूरा सिंह) पहले अवध से गादपेहरा फ़ोर्ट में रहे फिर सागर आकर बस गए। भूरा सिंह ने सागर में फ़र्नीचर का व्यापार शुरु कर दिया। उनके पिता तख़त सिंह पुलिस कांस्टेबल थे। उनके तीन भाई, ओंकार सिंह, गणपत सिंह और आधार सिंह तथा दो बहने लीलावती और मोहनबाई थीं।
हरि सिंह ने अपनी प्राथमिक शिक्षा सागर से ही पुरी की और चूंकि वह पढ़ाई में बहुत अच्छे थे इसलिए उन्हें दो रुपय प्रति माह की सरकारी स्कॉलरशिप भी मिल गई। नागपुर के हिसलोप कॉलेज में वह इंटर की परीक्षा में अव्वल आए और पढ़ाई जारी रखने के लिए उन्हें वज़ीफ़ा मिल गया। इसके बाद वह कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गए जहां से उन्होंने 1891 में दर्शनशास्त्र और अर्थशास्त्र में डिग्रियां हासिल कीं। लॉ की डिग्री लेकर वह वापस भारत वापस आ गए और रायपुर में वकालत करने लगे। उन्होंने क़रीब चालीस साल तक वकालत की। ज्ञान और तर्कसंगत जिरह की वजह से वह एक क़ाबिल वकील के रूप में मशहूर हो गए। उन्होंने प्रिवी कौंसिल के लिए कई महत्वपूर्ण मुक़दमें लड़े। वह हाई कोर्ट बार कौंसिल के सदस्य थे और बाद में उन्हें हाई कोर्ट बार एसोसिएशन का अध्यक्ष भी चुना गया। उन्होंने महिलाओं को वकालत करने के लिए क़ानूनी लड़ाई भी लड़ी थी। सिविल मैरिज बिल 1923 तैयार में भी हरि सिंह की प्रमुख भूमिका थी।
1905 में लंदन विश्वविद्याल ने हरि सिंह को डी.लिट की डिग्री से सम्मानित किया था। विलक्षण प्रतिभा की वजह से वह लेखन की दुनियां में भी आ गए। उन्होंने एक किताब “ पीनल लॉ ऑफ़ इंडिया “ भी लिखी ।
1920 से लेकर 1935 तक वह केंद्रीय विधान सभा के सदस्य रहे। हरि सिंह पहले भारतीय थे जिन्होंने 1921 में अस्पृश्यता ख़त्म करने के लिए विधेयक पेश किया। हालंकि विधेयक पारित नहीं हो सका लेकिन भारतीय समाज सुधार की दिशा में ये मील का पत्थर साबित हुआ। 1922 में जब दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, हरि सिंह को इसका वाइस चांसलर नियुक्त किया गया। वह 1928 से 1936 तक नागपुर विश्वविद्यालय के भी वाइस चांसलर रहे।
आज़ादी मिलने के क़रीब, जब डॉ. आंबेडकर की अगुवाई में नया संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का गठन हुआ तब हरि सिंह को इसका सदस्य बनाया गया और उन्होंने भारत के संविधान के निर्माण में अहम भूमिका निभाई।
लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धी सागर विश्वविद्यालय रही, जिसकी स्थापना 18 जुलाई 1946 में हुई थी। सागर में तब उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं थी इसलिए दूसरे विश्व युद्ध के बाद हरि सिंह ने ब्रितानी सरकार पर वहां एक आधुनिक विश्वविद्यालय खोलने का दबाव डाला। उन्होंने ख़ुद विश्विद्यालय के लिए बीस लाख रुपये दिए थे। 25 दिसंबर 1949 को इस महान परोपकारी का निधन हो गया। उन्होंने अपनी वसीयत में अपनी संपत्ति का दो तिहाई हिस्सा (क़रीब दो करोड़ रुपये) विश्विद्यालय के नाम किया था। 1983 में सागर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर डॉ. हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय कर दिया गया। आज ये मध्य प्रदेश के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में से एक है।
हरि सिंह गौर की विरासत आज भी जीवित है, ख़ासकर मध्य प्रदेश में। उनके नाम पर कौंसिल ऑफ़ साइंस एंड टैक्नॉलॉजी, भोपाल ने ‘डॉ. हरि सिंह गौर स्टेट अवार्ड’ शुरु किया।भारत सरकार ने 26 नवंबर 1976 में उनके नाम पर एक डाक टिकट भी जारी किया था।
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