ऐतिहासिक तौर पर भारत का पश्चिमी तट बहुत सक्रिय क्षेत्र रहा है। यहाँ मौजूद लगभग हर प्रमुख जगह ने भारतीय इतिहास में अपनी एक विशेष छाप छोड़ी है। इसी तरह यहाँ क़िलों का बहुत महत्व रहा है। बहुत लोग ये नहीं जानते कि भारत के पूर्वी तट से तीन गुना ज़्यादा क़िले पश्चिमी तट पर मौजूद हैं! इन्हीं क़िलों में से एक है सिंधुदुर्ग क़िला।
सिंधुदुर्ग ज़िले की मालवण तहसील से लगे अरब सागर के बीचों-बीच स्थित सिंधुदुर्ग क़िला मराठा और भारतीय नौसेनिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। दिलचस्प बात ये है, कि ये छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा बनवाया गया पहला समुद्री क़िला था, जिसके निर्माण में उन्होंने निजी तौर पर भी हिस्सा लिया था। ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ मराठा नेवी एंड मर्चेंटशिप्स (1973)’ में डॉ. बी.के.आप्टे बताते हैं, कि 48 एकड़ ज़मीन में फैले इस क़िले में 32 अर्ध-गोलाकार मीनारों से सजे 53 बुर्ज हैं, जिन्हें गोलाबारी के लिए इस्तेमाल किया जाता था। इसके उत्तर-पूर्वी दिशा से आवाजाही होती थी। दीवारें 12 फ़ुट चौड़ी और 30 फ़ुट ऊंची रखी गईं थीं, ताकि दुश्मनों और अरब सागर की लहरों से भी बचाव हो सके। इसके अलावा यहाँ पर महादेव और जरिमई आदि मंदिर भी मौजूद हैं।
जिस द्वीप पर आज सिंधुदुर्ग क़िला मौजूद है, वो पहले ‘कुरते बेत’ के नाम से जाना जाता था। हालांकि इस द्वीप का इतिहास आज भी एक रहस्य है। वहीँ इसके क़रीब मौजूद मालवण, मौर्य सम्राटों से लेकर आदिल शाही सुल्तानों के शासन के अधीन रहा। पंद्रहवीं शताब्दी में जब दक्षिण भारत में बहमनी सुल्तानों का उदय हुआ, तब बीजापुर के आदिल शाही सुल्तानों ने गोवा और मालवण सहित दक्षिण कोंकण के कई इलाक़े अपने अधीन कर लिए थे। इस दौरान यूरोपीय ताकतें भी मज़बूत होने लगीं थीं जिनमें सबसे पहले थे पुर्तगाली। उन्होंने सन 1510 में आदिल शाही सल्तनत के बन्दरगाह गोवा को अपने कब्ज़े में ले लिया था।
सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते, एक तरफ़ भारतीय प्रायद्वीप में पुर्तगालियों के अलावा मुख़्तलिफ़ यूरोपीय ताक़तें अपने प्रभाव को बढाने के लिए आपस में लड़ रही थीं, तो दूसरी तरफ़ दक्कन में छत्रपति शिवाजी महाराज के नेतृत्व में मराठों का उदय भी हो रहा था। ये उनका ही कमाल था, कि आदिल शाही और यहाँ तक कि मुग़ल इस क्षेत्र में कमज़ोर होते जा रहे थे। इस दौरान, शिवाजी महाराज ने विदेशी ताक़तों के ख़तरे को भांपते हुए अपनी एक सशक्त नौसेना का गठन करने की मुहिम भी शुरू कर दी थी। इसके तहत उन्होंने ना सिर्फ़ कई समुद्री क़िलों को पर क़ब्ज़ा किया, बल्कि कुछ का निर्माण भी कर वाया। उन्हीं क़िलों में सबसे पहला क़िला सिंधुदुर्ग था। ये दो नामों को जोड़कर बनाया गया है:सिन्धु (समुद्र) दुर्ग (क़िला)।
‘केस्टॉड पैरासाईट्स ऑफ़ मरीन फ़िशेस ऑफ़ सिंधुदुर्ग रीजन (2019)’ में डॉ.समीर भीमराव पाटिल बताते हैं कि क़िले के निर्माण के लिए, शिवाजी को ‘कुरते बेत’ द्वीप पसंद आया था जो विदेशी ताक़तों और मुरुड-जंजीरा के सिद्दी लड़ाकों पर निगरानी रखने के लिए उपयुक्त स्थान था। शाही वास्तुकार हिरोजी इंदुलकर की योजना की वजह से, 25 नवम्बर, सन 1664 को सिंधुदुर्ग क़िले पर काम शुरू हुआ था। दिलचस्प बात ये है, कि उन्होंने क़िले के निर्माण के लिए गोवा से पुर्तगाली इंजिनियर बुलवाए थे।शिवाजी महाराज ने भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। शायद यही वजह है, कि यहाँ दो अलग-अलग जगहों में इनके हाथ और पाँव की छाप आज भी यहाँ देखी जा सकती है। क़िले के क़रीब ही पांडवगढ़ एक चौकी की तरह था। वहाँ शिवाजी के जहाज़ों का निर्माण और मरम्मत का काम हुआ करता था।
शिवाजी महाराज की सबसे महान उपलब्धियों में गिने जाने वाले सिंधुदुर्ग क़िले के निर्माण में क़रीब 15 हज़ार टन लोहे का इस्तेमाल किया गया था। ये सन 1667 में तैयार हो गया था। मराठा नौसेना पश्चिमी तट पर अपने क़दम जमा ही रही थी, कि सन 1680 में शिवाजी महाराज का निधन हो गया I उसके बाद सन 1695 में उनके बेटे राजाराम ने सिंधुदुर्ग क़िले के भीतर शिवाजी महाराज को समर्पित श्री शिवछत्रपति मंदिर का निर्माण करवाया जो आज भी यहाँ देखा जा सकता है। मंदिर के भीतर शिवाजी महाराज की तलवार भी मौजूद है।
मराठा स्वराज्य के पाँव तब डगमगा गए थे, जब सन 1689 में शिवाजी महाराज के बेटे शाम्भाजी को मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने ना सिर्फ़ गिरफ़्तार किया, बल्कि प्रताड़ित करके मौत के घाट भी उतार दिया। उनकी पत्नी येसूबाई और बेटे शाहू-प्रथम को क़ैद में डाल दिया गया। लेकिन शिवाजी के दूसरे बेटे राजाराम ने सन 1698 से लेकर सन 1700 तक मराठा स्वाराज्य की गद्दी सम्भाली और वे अपनी पत्नी ताराबाई के साथ मिलकर, अपने राज्य को पुनर्गठित करने में सक्रिय हो गए। इस बीच एक मराठा सरखेल (नौसेना अध्यक्ष) कान्होजी आंगरे को भी नियुक्त किया।
‘ दि आंग्रेस एंड दि इंग्लिश कंतेंडर्स फ़ॉर दि पॉवर ओन दि वेस्ट कोस्ट ऑफ़ इंडिया’ (मुंबई विश्वविद्यालय, 2006) में रूबी मालोणी बताती हैं कि जब सन 1707 में औरंगज़ेब की मौत के बाद, जब शाहू को रिहा कर दिया गया तो उन्होंने ताराबाई और उसने बेटे शिवाजी-द्वितीय की सत्ता को ललकारा। छह साल के कड़े संघर्ष के बाद, सन 1713 में शाहू सम्राट बन गए और ताराबाई कोल्हापुर चली गईं। जब कान्होजी की वीरता के क़िस्से शाहू जी के कानों तक पहुंचे तो शाहू जी ने कान्होजी को पूरे मराठा नौसेना की कमान सौंप दी। विजयदुर्ग क़िला उनका मुख्यालय बना दिया गया। इसके तहत, मालवण भी उनके अधीन आ गया । एक प्रभावशाली ताक़त होने की हैसियत से, कान्होजी ने कई विदेशी जहाज़ों को लूट लिया, जिससे मराठों की गिरफ़्त और मज़बूत होती चली गई।
सन 1729 में कान्हाजी के निधन के बाद, मराठा नौसेना के सुनहरे दिनों में दरार आनी शुरू हो गई। कान्होजी के बेटों सेखोजी और शाम्भाजी के चंद वर्षों के लिए गद्दी सम्भालने के बाद, उनके दो और बेटों – मानाजी और तुलाजी के बीच में उत्तराधिकार के लिए जंग शुरु हो गई। “बेट्ल्स ऑफ़ दि ओनारेबल ईस्ट इंडिया कंपनी: मेकिंग ऑफ़ दि राज (2006)’ में एम.एस. नरवणे बताते हैं कि सन 1740 में बाजीराव पेशवा-प्रथम के गुज़र जाने के बाद, उनके बेटे नानासाहेब ने मानाजी के साथ हाथ मिलाया। वजह ये थी कि तुलाजी, जो शाहू के शासनकाल में मराठा नौसेना को नई ऊंचाईयों पर ला चुके थे, वो नानासाहेब की हुकूमत को नहीं मानते थे। इतना ही नहीं, तुलाजी, नानासाहेब को लगान नहीं देते थे। वह नानासाहब के इलाक़ों में लूटपाट भी मचाते थे। इसी वजह से राज्य दो गुटों में बंट गया- उत्तर में मानाजी और दक्षिण में तुलाजी।
सन 1749 में जब शाहूजी का निधन हुआ, तब पेशवा एक प्रभावशाली शासक के तौर पर उभरकर सामने आए, उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ हाथ मिला लिया। इस बीच मानाजी सिद्दियों के ख़िलाफ़ लड़ने में व्यस्त थे। चूंकि अंग्रेज़ों और पेशवा की तुलाजी के साथ सामूहिक शत्रुता थी। दोनों ने मिलकर तुलाजी के प्रभाव को ख़त्म करने की मुहिम शुरू कर दी। इसका प्रभाव,सन 1750 के दशक में तब देखा गया, जब स्वर्णदुर्ग और विजयदुर्ग जैसे महत्वपूर्ण क़िलों को अंग्रेज़ों के अधीन लाया गया था। जिन्हें, बाद में, एक संधि के तहत, कुछ वर्षों के लिए पेशवा के हाथों थमा दिया गया। ये वो दौर था जब पूर्वी भारत में अंग्रेज़ों का परचम बुलंद हो रहा था।
लेकिन दक्षिण कोंकण तब भी शांत नहीं था और वहाँ के मराठों ने लूटपाट की कारवाई जारी रखी। अंग्रेजों ने सन 1765 में पहला हमला किया और मालवण और उसके बाद सिंधुदुर्ग क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया। क़िले के विशाल रूप की वजह से, अंग्रेज़ों ने इसका नाम फ़ोर्ट ऑगस्टस रख दिया था। जिस क़िले ने अंग्रेज़ों को कई वर्षों तक परेशान किया था, वह उसे ध्वस्त करना चाहते थे। लेकिन महंगे खर्च को देखते हुए, अंग्रेज़ों ने अपना इरादा बदल दिया। इतना ही नहीं, क़िले की देखभाल भी अंग्रेज़ों के लिए कठिन होती जा रही थी। कोली और भंडारी समुदायों के लोग उन्हें अपने हमलों से परेशान कर रहे थे। ये क़िला कोल्हापुर रियासत के अधीन था। अंग्रेज़ों ने राजा शिवाजी-तृतीय की राजमाता जीजीबाई से समझौता किया, कि क़िले पर क़ब्ज़े के दौरान हुए ख़र्च का भुगतान कोल्हापुर के राजा करेंगे और वहाँ लूटपाट नहीं होने दी जाएगी।
लेकिन इसका विपरीत असर हुआ। सिंधुदुर्ग क़िले से लूटपाट चलती रही। अपने व्यापार और सैन्य आवाजाही को सुरक्षित बनाने के लिए आख़िरकार सन 1792 में सिंधुदुर्ग क़िले पर अपने आख़िरी हमले के तहत, अंग्रेज़ों ने कब्ज़ाया। उन्होंने इसके कई महत्वपूर्ण बुर्ज और सामरिक हिस्सों को ध्वस्त कर दिया। प्रोफ़ेसर कुलकर्णी अपनी किताब में लिखते हैं कि मौजूदा पश्चिमी महाराष्ट्र में राजनैतिक समस्या को देखते हुए, पुणे में रह रहे ब्रिटिश रेज़िडेंट माउंटस्टुअर्ट एलफ़िस्टोन ने,सन 1812 में, कोल्हापुर के राजा शिवाजी-तृतीय के साथ संधि की थी। उसके तहत अंग्रज़ों को सिंधुदुर्ग क़िला सौंपा गया, साथ- ही-साथ उन्हें व्यापार और आवाजाही के सारे अधिकार मुफ़्त दे दिए गए।
सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक सिंधुदुर्ग क़िला का इतिहास एक रहस्य बना हुआ है। सन 1962 में महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण ने जब क़िले का दौरा किया था, तब उन्होंने क़िले की मरम्मत के लिए 90 हज़ार रुपए का अनुदान दिया था। उसके बाद जुलाई,सन 2002 में भी इसकी काफ़ी मरम्मत की गई थी। आज क़िले में, वहां के मंदिरों का रखरखाव करने वाले लोगों के परिवार रहते हैं। इन लोगों के बुज़ुर्ग भी, छत्रपति शिवाजी महाराज के ज़माने में यहां काम करते थे। आज भी यहाँ पर भारतीय पुरातत्व विभाग मरम्मत का काम करवाता रहता है।
आज सिंधुदुर्ग क़िला मराठा नौसेनिक शक्ति का प्रतीक है। हालांकि इतिहास से जुड़े उसके कई पन्ने आज भी रहस्य की चादर में ढके हैं….
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