शहज़ादी बंबा: सिख साम्राज्य का आख़िरी चिराग़  

सिख साम्राज्य में शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। वजह ये है कि, उन्होंने ही बिखरे हुए पंजाब को इकट्ठा कर, एक महान एवं विशाल साम्राज्य की नींव रखी। उन्होंने अमृतसर के श्री हरिमंदिर साहिब का सुनहरीकरण किया और बेशक़ीमती कोहिनूर हीरे को भी हासिल किया। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यू जून, सन 1839 में हुई। उसके बाद अंदरूनी साज़िशों और अन्य कारणों से विशाल सिख साम्राज्य का अंत हो गया। इसके जल्दी बाद महाराजा के परिवार, उनकी रानियों, उनके राजकुमारों और यहाँ तक कि उनके वंशजों को भी इतिहास ने भुला दिया। महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटे पुत्र तथा पंजाब के आख़िरी महाराजा दलीप सिंह की शहज़ादियों को भी त्रास्दियों का सामना करना पड़ा। आईए, उनके जीवन से जुड़े रहस्यों पर से पर्दा उठाने की कोशिश करते हैं।

महाराजा रणजीत सिंह की रानी जिंद कौर ने, 5 सितम्बर, सन 1838 को दलीप सिंह को जन्म दिया। दलीप सिंह ने 6 जुलाई सन 1864 को पहली शादी बंबा मूलर ( 1847-1887) से की। रानी मूलर ने तीन पुत्रों-शहज़ादा विक्टर अलबर्ट जेय (1866-1918), शहज़ादा फ़्रैडरिक (1868-1926), शहज़ादा अल्बर्ट एडवर्ड (1879-1893) तथा तीन शहज़ादियों- बम्बा सोफिया जिंदां (1869-1957), कैथेरिन हिल्डा (1871-1942), सोफिया अलेक्सेंड्रा (1876-1948) को जन्म दिया।

बंबा मूलर के देहांत के बाद महाराजा दलीप सिंह ने दूसरा विवाह मई सन 1889 में एडा डगलस वेथरिल (1867-1930) से किया। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के मुताबिक़ रानी एडा डगलस वेथरिल ने महाराजा दलीप सिंह से विवाह से क़रीब दो वर्ष पहले और दलीप सिंह की पहली पत्नी बंबा मूलर के देहांत से करीब तीन माह बाद, 26 दिसम्बर सन 1887 को शहज़ादी पौलीन अलेक्सेंड्रा तथा शहज़ादी आइरीन हैलन बेरिल को 25 अक्तूबर 1889 को जन्म दिया।

महाराजा का देहांत 23 अक्तूबर 1893 को पैरिस में हुआ। शहज़ादी आइरीन हैलन बेरिल का देहांत सन 1926 में हुआ। सिख राज्य के अंतिम दस्तावेज़ के रूप में मौजूद महाराजा दलीप सिंह की पहली पत्नी बंबा मूलर की बेटी शहज़ादी सोफिया अलेक्सेंड्रा ने 8 दिसम्बर सन 1948 को एक वसीयत रजिस्टर्ड करवाई थी। उस वसीयत में उसने अपने नौकरों, अंग्रेज़ रिश्तेदारों और अन्य जान-पहचान वालों को उचित राशि तो दी ही, साथ ही उसने बीमार जानवरों की पीपल्स डिस्पैंसरी को 450 पौंड, बेटरशिया डॉग्स (कुत्ते) होम को 500 पौंड, सिख कन्या पाठ्शाला , फ़िरोजपुर को 300 पौंड, इंडियन वुमंस एज्युकेशन ऐसोसिएशन को 100 पौंड, पंजाब के कुछ गिने-चुने मुस्लिम तथा हिंदू लड़कियों के स्कूलों को 200-200 पौंड तथा इंडियन म्यूज़ियम लाहौर को महाराजा दलीप सिंह की पेंटिंग और अन्य चीज़ें भेंट की थीं ।

इस वसीयत में शहज़ादी सोफिया अलेक्सेंड्रा ने, अपनी अंतिम इच्छा भी लिखी थी। उसकी अंतिम इच्छा थी कि उसकी शव-यात्रा शाही अंदाज़ में बैंड-बाजे के साथ निकाली जाए और उसका अंतिम संस्कार करने के बाद उसकी अस्थियां भारत में दफ़ना दी जाएं। हालांकि अभी तक किसी भी दस्तावेज़ में यह जानकारी पुख्ता ढंग से दर्ज नहीं की गई है, कि शहज़ादी सोफ़िया की अंतिम इच्छाएं पूरी हुई थीं या नहीं।

महाराजा दलीप सिंह की पहली पत्नी बंबा मूलर की बेटी शहज़ादी सोफ़िया ने स्कूल की पढ़ाई समरविल हाई स्कूल, ऑक्सफ़ोर्ड से पूरी की थी। वह अपने पिता के देहांत के बाद जब पहली बार भारत आई, तो अपने बुज़ुर्गों की महानता के बारे में जान कर इतनी प्रभावित हुई कि उसने अपने नाम के साथ अपनी दादी, मां और पिता का नाम भी जोड़ लिया। उसने अपना नाम शहज़ादी बंबा सोफ़िया जिंदां दलीप सिंह रख लिया। उसे इस बात पर बहुत गर्व था कि वह पंजाब के महाराजा की बेटी है।

लाहौर पहुँचने पर पहले उसने होटल फ़्लैटिज में रहना शुरू किया और फिर लाहौर की मुजंग चूंगी के पास जेल रोड पर एक कोठी किराय पर लेकर रहने लगी। वह अपने साथ अपने पिता महाराजा दलीप सिंह से मिली कई ऐतिहासिक बहुमूल्य वस्तुएं जैसे महाराजा रणजीत सिंह के स्वर्ण अक्षरों से लिखे गए शाही फ़रमान, पेंटिंगें, हीरे मोतियों से जड़ी शाही पोशाकें, हीरों के हार तथा क़ीमती धातुओं से बनी मूर्तियों सहित फ़ारसी में लिखे दस्तावेज़ ले आई थी, जिन्हें वह अच्छी तरह जानना और समझना चाहती थी।

इसलिए उसने समाचार पत्रों में विज्ञापन दिया कि उसे फ़ारसी और अंग्रेज़ी के विद्वानों की ज़रूरत है। यह विज्ञापन पढ़कर करीम बख्श सिपरा उसके सम्पर्क में आया, जो फ़ारसी और अंग्रेज़ी के साथ-साथ अरबी का भी अच्छा जानकार था। उसके तुरंत बाद शहज़ादी ने लाहौर में अपनी स्थाई रिहाइश के लिए पाॅश काॅलोनी मॉडल टाउन में एक कोठी खरीद ली, जिसका नाम उसने ‘गुलज़ार’ रखा। सन 1915 में 46 वर्ष की उम्र में उसने लैफ़्टीनेंट कर्नल डा. डेविड वाटर्ज़ सदरलैंड, सी.आई.ए. से विवाह किया जो भारतीय सेना में डाक्टर था । डा. सदरलैंड उस समय लाहौर के किंग एडवर्ड मैडिकल कालेज में प्रिंसीपल के पद पर नियुक्त था। डा. सदरलैंड सन 1921 तक इस पद पर नियुक्त रहा और सन 1939 में उसका देहांत हो गया। उस समय शहज़ादी की उम्र 70 वर्ष हो चुकी थी।

शहज़ादी सोफ़िया पंजाब में अपनी विशेष जगह क़ायम करना चाहती थी। उसने महाराजा रणजीत सिंह के अन्य पुत्रों, कंवर पिशौरा सिंह तथा महाराजा शेर सिंह के परिवार के लोगों से सम्पर्क बनाने शुरू किए। वह उनसे पत्रों के माध्यम से उन्हें लाहौर बुलाने के प्रयास करती रही, ताकि महाराजा के खानदान की पंजाब में एक बार फिर मजबूत स्थिति क़ायम हो सके। उसके ऐसे तमाम प्रयासों के बावजूद उसे कोई बड़ी कामयाबी न मिल सकी। उसकी दादी रानी जिंद कौर जिस का देहांत 1 अगस्त सन 1863 को कैन्सिंगटन (लंदन) में हुआ था तथा उसे अस्थाई तौर पर केनसल ग्रीन कब्रिस्तान में दफनाया गया था।

शहज़ादी बंबा ने वहां उसकी समाधि से थोड़ी-सी मिट्टी लाकर उससे 29 मार्च सन 1924 को लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह की समाधि के पास ही रानी जिंद कौर की समाधि तैयार करवा दी, ताकि लाहौर में उसकी कोई निजी यादगार क़ायम हो सके।

शहज़ादी ने विदेशी सरकार के पास पड़े अपने पिता और दादा के क़ीमती सामान को मंगवाने के लिए 13 जुलाई 1946 को क़ानूनी लड़ाई की शुरूआत की। उसने वरिष्ठ वकील सरदार रघबीर सिंह से दिल्ली स्थित भारत की फ़ेडरल अदालत की मार्फ़त मुक़द्दमा दर्ज करवाया।

भारत-पाकिस्तान बँटवारे के बाद वह लाहौर में ही रही, क्योंकि वह उस वक़्त भी लाहौर को पंजाब की राजधानी और ख़ुद को पंजाब की महारानी मानती थी। शहज़ादी की अपनी कोई औलाद न होने के कारण उसने अपनी मृत्यु से क़रीब सवा साल पहले 16 दिसम्बर सन 1955 को, दो गवाहों, लाहौर के रहने वाले वकील मंज़ूर अनाम और वकील मवलिज हुसैन की उपस्थिति में, अपनी पहली वसीयत ख़ारिज करके, नई वसीयत के ज़रिए शाही कोठी ‘गुलज़ार’ और इंग्लैंड के बैंकों में रखी तमाम बहुमूल्य वस्तुएं तथा अन्य सारी जागीर अकेले करीम बख्श सिपरा के नाम कर दी।

इस वसीयत में शहज़ादी ने अपना नाम प्रिंसिस बंबा सदरलैंड लिखा है और लड़खड़ाते हाथों से हस्ताक्षर किए हैं। लेकिन शहज़ादी के ये दस्तख़त उसके, उन दस्तख़तों से मेल नहीं खाते हैं जो उसने 13 जुलाई सन 1946 को अपने वकील सरदार रघबीर सिंह को दिए गए दस्तावेज पर किए थे। इस वसीयत में ध्यान देने वाली बात यह भी है कि उस समय कई शिक्षा तथा सामाजिक संस्थाएं शहज़ादी के सम्पर्क में थीं और उसके काफ़ी क़रीब भी थीं, इस के बावजूद शहज़ादी ने सारी जायदाद का वारिस अकेले करीम बख्श को ही क्यों बनाया?

शहज़ादी बंबा की बहन अलेक्सेंड्रा की वसीयत में उसने अपनी सारी जायदाद, अपने सौ से ज़्यादा जानने वालों में तक़सीम की थी। उसकी वसीयत पढ़ने के बाद यह शक विश्वास में बदल जाता है, कि प्रिंसिस बंबा सदरलैंड की वसीयत में जालसाजी की गई थी।

आख़िरकार 88 वर्ष की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से, 10 मार्च सन 1957 को अपनी कोठी ‘गुलजार’ में शहज़ादी ने दम तोड़ दिया। इंग्लैंड के डिप्टी हाई कमिश्नर की मौजूदगी में लाहौर के गोरा कब्रिस्तान में शहज़ादी को दफ़ना दिया गया और उसी क़ब्र में शहज़ादी के साथ उसकी वसीयतों में छिपे राज़ भी दफ़न हो गए।

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