शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के देहांत के साथ ही सिख साम्राज्य में षड्यंत्रों का दौर शुरू हो गया था। इन राज्य विरोधी गतिविधियों की वजह से ही विशाल सिख साम्राज्य तिनका-तिनका होकर बिखर गया। सिख राज्य के सबसे बड़े खलनायक ध्यान सिंह डोगरा ने अपने सुपुत्र हीरा सिंह डोगरा को सिख दरबार के तख़्त पर बैठाने की मंशा से षड्यंत्रों का ऐसा भयानक जाल बुना जिसमें फंस कर उसका तथा उसके बेटे का तो अंत हुआ ही, इसके साथ ही सम्पूर्ण सिख साम्राज्य भी नष्ट हो गया।
तख़्त हथियाने की होड़ में शुरू हुए षड्यंत्रों के दौर में पहली बली चेत सिंह बाजवा की चढ़ाई गई। महाराजा खड़क सिंह की पत्नी रानी ईशर कौर थीं जो उनके साथ सती हो गई थीं। रानी ईश्वर कौर के पिता लाल सिंह ‘सिरांवाली’ थे।
उनकी सगी भतीजी का विवाह चेत सिंह बाजवा से हुआ था। इस तरह, चेत सिंह बाजवा, महाराजा खड़क सिंह का रिश्तेदार भी था। सन 1834 में चेत सिंह बाजवा को, रानी ईशर कौर के भाई सरदार मंगल सिंह ‘सिरांवाली’ के स्थान पर खड़क सिंह के फौजी तथा दीवानी विभाग का मैनेजर बनाया गया। सरदार बाजवा डोगरा सरदारों की कुटनीति और साज़िशों से पूरी तरह से वाक़िफ़ था और सिख शासन का हितैषी तथा पक्का वफ़ादार था। इस लिए खड़क सिंह उसे बहुत पंसद करते थे और उसे अपना प्रिय मित्र मानते थे, परन्तु डोगरा सरदार,चेत सिंह बाजवा को क़तई पसंद नहीं करते थे और उसे रास्ते से हटाने की फ़िराक़ में रहते थे।
‘हिस्ट्री आफ़ पंजाब’ में सय्यद मोहम्मद लतीफ़ लिखते हैं कि यह चेत सिंह बाजवा की सोहबत का ही असर था कि खड़क सिंह ने शराब पीनी छोड़कर नियम से गुरूबानी का सिमरण शुरू कर दिया था। चेत सिंह बाजवा को रास्ते से हटाने से पहले महाराजा खड़क सिंह के सुपुत्र कंवर नौनिहाल सिंह तथा उसकी मां रानी चंद कौर को विश्वास में लेना ज़रूरी था। इसके लिए ध्यान सिंह डोगरा ने नौनिहाल सिंह केअफ़्गानिस्तान की मुहीम से वापस आने के बाद उसके और रानी चंद कौर के सामने खड़क सिंह तथा चेत सिंह बाजवा के ऐसे जाली पत्र पेश किए, जिन को पढ़ने के बाद उन दोनों को विश्वास हो गया कि महाराजा खड़क सिंह और चेत सिंह बाजवा पंजाब का शासन अंग्रेजों के सुपुर्द करना चाहते हैं।
ध्यान सिंह डोगरा के बहकावे में आकर नौनिहाल सिंह चेत सिंह बाजवा को हमेशा के लिए रास्ते से हटाने तथा अपने पिता को नज़रबंद कर राज्य की सत्ता अपने अधिकार में लेने के लिए तैयार हो गया। ये वो पल थे जो महाराजा रणजीत सिंह द्वारा कड़ी मेहनत, लगन और निष्ठता से बनाए किए विशाल सिख साम्राज्य के ख़ात्मे का कारण बनने जा रहे थे। अब ख़ालसा दरबार के इतिहास में वह होने जा रहा था, जो इससे पहले कभी नहीं हुआ था।
9 अक्तूबर सन 1839 की रात ध्यान सिंह डोगरा अपने डोगरा बंधुओं, गुलाब सिंह डोगरा, सुचेत सिंह, राय केसरी सिंह तथा कुछ हथियारबंद वफ़ादार पहाड़ी सिपाहियों को लेकर क़िले में दाख़िल हुआ। लाहौर के शाही किले में मौजूद महाराजा खड़क सिंह की हवेली जिसे तख़्तगाह कहा जाता था, के प्रवेश द्वार पर पहुँचकर ध्यान सिंह डोगरा ने वहां खड़े महाराजा खड़क सिंह के वफ़ादार सिपाहियों को धीरे से पास जाकर बताया कि महाराजा साहिब को प्रातः काल जल्दी अमृतसर श्री हरमंदिर साहिब के दर्शनों के लिए जाना है। इसलिए वे यात्रा की तैयारी करने के लिए आए हैं।
मेजर हूग पीअर्स अपनी पुस्तक ‘मेमोरिस आफ़ अलैग्ज़ैंडर गार्डनर’ में इन तमाम वाक़्यात के चश्मदीद गवाह कर्नल गार्डनर के हवाले से लिखते हैं कि ध्यान सिंह डोगरा ने कर्नल गार्डनर को क़िले के दरवाज़ों के बाहर अपने 100 हथियारबंद सैनिक खड़े करने का आदेश दिया था और उन्हें यह भी हुक्म दिया गया था कि वे क़िले के भीतर से किसी भी क़िस्म की आवाज़ आने पर अन्य सैनिकों को क़िले के अंदर न आने दें। मेजर स्मिथ ‘रेनिंग फ़ैमिली आफ़ लाहौर’ में लिखते हैं कि डोगरा सरदारों तथा उनके सिपाहियों को हथियारों सहित क़िले के अंदर प्रवेश करते देख महाराजा खड़क सिंह के दो वफ़ादार सिपाही उन्हें रोकने तथा बाक़ी सिपाहियों तक यह समाचार पहुँचाने के लिए जैसे ही आगे बढ़े, ध्यान सिंह डोगरा ने झपट कर तलवार से हमला किया और उन्हें वहीं ढ़ेर कर दिया। मेजर स्मिथ आगे लिखते हैं कि महाराजा खड़क सिंह अपने मित्र चेत सिंह बाजवा के प्रेरित करने पर प्रतिदिन ख़ालसा की पुरानी मर्यादा के अनुसार देर रात उठकर स्नान करके नियम से गुरूबानी सिमरण किया करते थे।
गुलाब सिंह डोगरा की फौज में कर्नल के पद पर नियुक्त अलैग्ज़ेंडर गार्डनर के अनुसार उस रात ध्यान सिंह डोगरा ने उसे भी अपने साथ ले लिया था। गार्डनर ने यह भी बताया है कि जब वे लोग हवेली की सीढ़ियों के पास पहुँचे तो सामने वह स्थान था जिसे ‘पातशाही तख़्त’ कहा जाता था। इसके आगे शाही कमरों की बड़ी पंक्ति थी। वहां ध्यान सिंह तथा गुलाब सिंह ने एक-दूसरे के कान में धीरे से कुछ कहा। लेकिन किसी किसी को कोई अंदाज़ा नहीं हुआ कि वह लोग आगे क्या करने वाले हैं। उसी वक़्त महाराजा को स्नान करवाकर उनका गढ़वई बाहर आ गया और बाहर आते ही उसकी नज़र सब से पहले तलवारें और बंदूक़ें हाथों में लिए खड़े डोगरा सरदारों पर पड़ीं। वह तुरंत महाराजा खड़क सिंह को यह ख़बर देने के लिए भाग खड़ा हुआ। इस पर सुचेत सिंह ने गोली चला दी और वह वहीं ढ़ेर हो गया। सुचेत सिंह की इस हरकत पर गुलाब सिंह डोगरा तथा ध्यान सिंह डोगरा को बहुत ग़ुस्सा आया और वे उस पर बहुत नराज़ हुए, क्योंकि गोली चलने की आवाज़ से सारा खेल बिगड़ चुका था। डोगरा सरदार जल्दी से तलवारें हवा में लहराते हुए महाराजा के कमरे में पहुँचे। खड़क सिंह उस समय अपने पलंग पर बैठे पाठ कर रहे थे, जबकि पास पड़ा चेत सिंह बाजवा का पलंग खाली था। बिना आज्ञा इस तरह से डोगरा सरदारों के कमरे में प्रवेश करने पर खड़क सिंह क्रोध में आ गए और तुरंत तकिए के पास पड़ी मयान से तलवार निकाल ली। परन्तु आँख झपकते ही डोगरा सरदारों ने उन्हें दबोच लिया और ध्यान सिंह डोगरा ने खड़क सिंह से चेत सिंह बाजवा के बारे में पूछताछ की।
खड़क सिंह ने पहले तो कुछ नहीं बताया, परन्तु जब तीसरी या चैथी बार उन पर दबाव बनाकर पूछा गया तो इन्होंने बताया कि गोली चलने की आवाज़ सुनकर चेत सिंह वहां से भाग गया था।
पहाड़ी सिपाहियों ने हवेली के कमरों में तलाशी शुरू कर दी। हर जगह चेत सिंह की तलाश की गई। अंतः गुलाब सिंह डोगरा के एक सिपाही ने चेत सिंह को हवेली के सर्दख़ाने/तहख़ाने में छिपा बैठा देख लिया। उसके हाथ में तलवार थी। जैसे ही वह तलवार से ध्यान सिंह डोगरा पर वार करने के लिए झपटा, सिपाहियों ने उसे बंदी बना लिया। चेत सिंह बाजवा को सर्दख़ाने से घसीटते हुए खड़क सिंह के सामने लाया गया और महाराजा के बार-बार कहने के बावजूद ध्यान सिंह डोगरा ने न सिर्फ़ चेत सिंह बाजवा का खड़क सिंह की आँखों के सामने बेरहमी से क़त्ल ही किया बल्कि उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
कुछ जानकारों का मानना है कि उस वक्त कंवर नौनिहाल सिंह तथा उसकी मां रानी चंद कौर भी वहीं मौजूद थीं। कर्नल अलैग्ज़ैंडर गार्डनर के अनुसार उस वक्त डोगरा सरदारों की मंशा खड़क सिंह को भी ख़त्म करने की थी, परन्तु कंवर नौनिहाल सिंह के वहां पहुँचन जाने के कारण उन्हें अपना इरादा बदलना पड़ा। वहां से लौटते हुए डोगरा सरदारों ने महाराजा खड़क सिंह के कानों में यह बात डाल दी कि उनके प्रिय मित्र चेत सिंह बाजवा का कत्ल कंवर नौनिहाल सिंह तथा रानी चंद कौर के आदेश पर किया गया है।
इलनिज़ ‘हिस्ट्री आफ़ द् पंजाब’ में लिखते हैं कि चेत सिंह बाजवा के क़त्ल के बाद यह ख़बर फैलादी गई कि चेत सिंह ख़ालसा राज्य अंग्रेज़ों के हाथ बेचना चाहता था। इस अपराध का पता लगने पर महाराजा खड़क सिंह ने उसे मौत के घाट उतरवा दिया।
हांगबरगर ‘थर्टी फाईव इयर्ज़ इन द ईस्ट’ में लिखते हैं कि चेत सिंह बाजवा का क़त्ल, पंजाब के ख़ूनी नज़ारों का पहला क़त्ल था, जो ध्यान सिंह डोगरा ने किया था । वाकई चेत सिंह बाजवा का क़त्ल सिख राज्य में षड्यंत्रों और बेईमनी की शुरूआत था, इसके बाद देखते ही देखते अगले चार-पाँच वर्षों में पूरा ख़ालसा दरबार एक क़त्लगाह में तब्दील हो गया और दलीप सिंह के अतिरिक्त महाराजा रणजीत सिंह के सभी सुपुत्र तथा वफ़ादार जरनैल बेरहमी से एक-एक कर कत्ल कर दिए गए।
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