भारतीय इतिहास में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ सन 1857 की बग़ावत निर्णायक घटानाओं में से एक महत्वपूर्ण घटना थी। दिल्ली और झांसी के अलावा अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत का मुख्य केंद्र लखनऊ भी था। इसी वजह से लखनऊ शहर में सन 1857 की बग़ावत से संबंधित कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारक आज भी देखे जा सकते हैं।
इन्हीं स्मारकों में सिकंदर बाग़ है जो गोमती नदी के बाएं तरफ़ लखनऊ के सिविल लाइंस इलाक़े में अशोक मार्ग पर स्थित है। सिकंदरबाग़ कभी लखनऊ के अंतिम शासक नवाब वाजिद अली शाह की कोठी और बाग़ हुआ करता था जहां सन 1857 में भीषण युद्ध हुआ था।
नवाब वाजिद अली शाह (1822-1887) ने सिकंदर बाग़ का निर्माण सन 1847 में करवाया था और इसका नाम अपनी प्रिय पत्नी सिकंदर बेगम के नाम पर रखा था। ये एक ऊंचा बाड़ा हुआ करता था जो लखौरी ईंटों का बना था और जिस पर चूने का पलस्तर किया हुआ तथा मिट्टी की गढ़ाई की हुई थी। सिकंदर बाग़ दरअसल गर्मी का समय बितानी की जगह थी जिसमें एक बाग़ था। बाग़ के मध्य में एक पवैलियन था जहां शायद रासलीला, कत्थक नृत्य, संगीत, मुशायरा और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते थे जो वाजिद अली शाह को बहुत पसंद थे। सिकंदर बाग़ बनवाने में पूरा एक साल लगा और इस पर उस समय पांच लाख रुपये ख़र्च हुए थे । सिकंदर बाग़ महल के वास्तुकार ग़ुलाम अली रज़ा ख़ान, दयानतउउद्दौलाह और सबित आदि थे।
लखनऊ की वास्तुकला में शहर की कला और संस्कृति की झलक दिखाई पड़ती है। इसका उदाहरण सिकंदर बाग़ के मुख्य प्रवेश द्वार पर बने बेलबूटे के भित्ति चित्र हैं जो लखनऊ की प्रसिद्ध चिकन कढ़ाई से काफ़ी मिलते जुलते हैं। इन्हें वाजिद अली शाह के दरबार के चित्रकार काशीराम ने बनाया था। सिकंदर बाग़ के पूरा होने पर वाजिद अली शाह ने काशी राम को एक ख़ास पोशाक देकर सम्मानित किया था। सिकंदर बाग़ के तीन प्रवेश द्वार हुआ करते थे जिनमें से अब बस एक ही बचा रह गया है। सन 1857 की बग़ावत के दौरान भारी बमबारी में दो द्वार ढ़ह गए थे। सिकंदर बाग़ के मुख्य प्रवेश द्वार पर जो मेहराबें,छत्रियां, त्रिकोणिकाएं, स्तंभ और पगोडा बने हैं उनमें भारतीय, ईरानी, यूरोपीय और चीनी वास्तुकला का प्रभाव नज़र आता है। द्वार की मेहराब पर मछली का भित्ति चित्र है जो माही मरातिब सम्मान का प्रतीक होता था जो मुग़ल दिया करते थे।
नवाब की आरामगाह के लिये जब सिकंदर बाग़ बना तब किसी ने भी नहीं सोचा था कि इस जगह पर कभी ख़ून ख़राबा भी हो सकता है । सन 1856 में ब्रटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने नवाब वाजिद अली शाह को सत्ता से हटा कर अवध को अपने साम्राज्य में मिला लिया और नवाब और उनके परिवार को कलकत्ता जाना पड़ा। इसे लेकर स्थानीय लोगों में ग़ुस्सा पैदा हो गया और बेगम हज़रत महल के नेतृत्व में सन 1857 की लड़ाई लड़ी गई ।
बग़ावत होते ही स्थानीय अंगरेज़ अधिकारियों और लोगों ने सरकारी घरों में ख़ुद को बंद कर लिया था जिसे बाग़ियों ने घेर रखा था। अंगरेज़ों के सरकारी घरों की घेराबंदी के दौरान सिकंदर बाग़ भारतीय सिपाहियों का एक महत्वपूर्ण सैनिक केंद्र बन गया था।
सिकंदर बाग़, अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ी गई भीषण लड़ाईयों में से एक लड़ाई का गवाह रहा है जो यहां नवंबर 1857 में लड़ी गई थी। 16 नवंबर सन 1857 की सुबह अंगरेज़ सेना पूर्वी दिशा में एक संकरी गली से गुज़र रही थी तभी सिकंदर बाग़ से भारतीय सिपाहियों ने भारी गोलीबारी कर उन्हें चौंका दिया। अचानक गोलीबारी से अंगरेज़ सेना फंस गई, न तो वो आगे जा पा रही थी , न वह आगे जा पाई।
भारी गोलीबारी के बीच अंगरेज़ सिपाहियों ने जैसे तैसे सिकंदर बाग़ की दीवार में एक छेद कर दिया जिसमें से एक बार में सिर्फ़ एक ही आदमी निकल सकता था। इसी छेद के ज़रिये अंगरेज़ सिपाही सिकंदर बाग़ में घुसने में कामयाब हुए । क्रांतिकारियों के साथ काफ़ी देर तक दो दो हाथ के बाद भारी संख्या में अंगरेज़ सेना सिकंदर बाग़ के दरवाज़े से अंदर घुस गई। इसके बाद क़रीब 2000 भारतीय क्रांतिकारी पीछे हट गए और उन्होंने दो मंज़िला भवन (वाजिद अली शाह की कोठी) और इसके पीछे ऊंची दीवारों वाले बाड़े में पनाह ले ली।
अंगरेज़ सेना को जवाबी हमले का अंदेशा था और इसलिये उसने पीछे के दरवाज़े को ईंटों से बंद कर दिया था तथा क्रांतिकारियों की वापसी का रास्ता भी रोक दिया था। लंबी लड़ाई के बाद वे थक गए थे। बग़ावत के दौरान, ख़ासकर कानपुर और लखनऊ के सरकारी निवासों की घेराबंदी के दौरान महिलाओं और बच्चों सहित यूरोपीय लोग मारे गए थे जिसके लिये अंगरेज़ों ने भारतीय क्रांतिकारियों को ज़िम्मेवार ठहराया। इसे लेकर ब्रिटिश इंडिया और ब्रिटैन में बहुत रोष पैदा हो गया था।
घमासान लड़ाई के बाद अंगरेज़ों के शव एक गहरे गड्डे में दफ़्न कर दिये गये। बाद में सिकंदर बाग़ से बाग़ियों के शव निकालने के लिये हाथियों का इस्तेमाल किया गया। बाग़ियों ने सिकंदर बाग की पूर्व दिशा की तरफ़ दीवार के पास खाई खोदी थी जहां से वे लड़ रहे थे। उनके शव इसी खाई में थे जहां से उन्हें निकालने के लिये हाथियों का प्रयोग करना पड़ा।
लड़ाई के गवाह अंग्रेज़ सैनिक कमांडर लॉर्ड रॉबर्ट ने बाद में बताया: “तिल तिलकर उन्हें उनकी जगह यानीर उत्तरी दीवार की तरफ़ पीछे खदेड़ दिया गया जहां सभी को या तो गोली मार दी गई या फिर संगीनों से मार दिया गया। वहां उनके शवों का ढ़ेर मेरे सिर तक ऊंचा था। शवों की बदबू से उबकाई आ रही थी ।”
बग़ावत के दौरान उदा देवी को लेकर एक दिलचस्प क़िस्सा है। सिकंदर बाग़ में बाग़ी उदा देवी अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ बहुत बहादुरी से लड़ी थी। उदा देवी दलित थीं जिनका जन्म अवध में हुआ था। वह अंगरेज़ राज के ख़िलाफ़ स्थानीय लोगों के विद्रोह से बचपन से ही प्रभावित थीं। उन्होंने भी इसमें शामिल होने का फ़ैसला किया और मदद के लिये बेगम हज़रत महल से मिलने पहुंच गईं। बेगम हज़रत महल दयालू थीं और उन्होंने महिलाओं की बटालियन बनाने में उदा देवी की मदद की जिसका नेतृत्व बाद में उन्होंने ख़ुद किया। और इस तरह जब अवध पर अंगरेज़ों ने हमला किया, उदा देवी और उनके पति सशस्त्र विद्रोह के अहम हिस्से बन गए । अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ सशस्त्र जंग में ही उदा देवी के पति शहीद हो गए थे और उदा देवी ने इसका बदला लेने की ठान ली थी।
गोमती नदी के दक्षिणी तट पर अंगरेज़ सिपाहियों को सिकंदर बाग़ की तरफ़ बढ़ता देख, पुरुष भेस में उदा देवी बरगद के एक पेड़ पर चढ़ गईं और 32 अंगरेज़ सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। एक अधिकारी ने बाद में देखा कि ज़्यादातर सिपाहियों के शवों पर गोलियों के निशान थे जो ऊपर से चलाईं गईं थीं। अंगरेज़ों को पहले से ही शक था कि कोई बाग़ी पास के पेड़ों में छुपकर उन पर गोली चला सकता है। अंगरेज़ अधिकारियों ने पास के पेड़ों पर गोलियां चलाईं और एक पेड़ से गोलियों से छलनी एक महिला का शव नीचे आकर गिरा। शव के गिरने के बाद ही अंगरेज़ों को पता लगा कि ये बाग़ी महिला थी। कहा जाता है कि अंगरेज़ अफ़सर कॉलिन कैम्पबेल उदा देवी की बहादुरी से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उनके शव के सामने में सिर झुका दिया। जांच के बाद पता चला कि उदा देवी सच्चे मायने में एक बाग़ी थीं।
माना जाता है कि अंगरेज़ सिपाहियों ने सिकंदर बाग़ की लड़ाई में हज़ारों भारतीयों की नृशंस हत्या की थी। लेकिन उनकी क्रूरता वहीं नहीं रुकी और अंगरेज़ अफ़सरों ने मृतकों के परिजनों को शव ले जाने और अंतिम संस्कार करने की इजाज़त नहीं थी। अंगरेज़ों ने मृतकों के शव वहीं गिद्धों के लिये छोड़ दिए। सिकंदर बाग़ के आसपास पड़े कंकालों की एक प्रसिद्ध तस्वीर भी है। बाद में चौथी पंजाब बटालियन 11 दिनों तक सिकंदर बाग़ में ही डेरा डाली रही और 27 नवंबर को अंगरेज़ों ने लखनऊ ख़ाली करवा लिया जबकि कमांडर इन चीफ़ और उनका स्टाफ़ पश्चिमी सिकंदर बाग़ के दक्षिणी द्वार के नीचे एक स्थान पर जमा रहा।
सिकंदर बाग़ की खुदाई में तोप के गोले, तलवारें, ढ़ालें, बंदूक़ और रायफ़लों के पुरज़े मिले थे जो अब लखनऊ में नैशनल बोटेनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट में रखे हुए हैं। सिकंदर बाग़ की दीवारों पर तोप के गोलों के निशान उस लड़ाई के आज भी गवाह हैं। अब सिकंदर बाग़ की एक दीवार, एक छोटी सी मस्जिद और विशाल मुख्य प्रवेश द्वार बचा रह गया है। आज व्यस्त सड़क से घिरा सिकंदर बाग़ सन 1857 की बग़ावत का एक मूक गवाह है।
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