सिब्तैनाबाद इमामबाड़ा- लखनऊ का छुपा हुआ ख़ूबसूरत इमामबाड़ा 

इसी साल अप्रैल महीने में, एक विशाल-काय मशीन यानी अर्थमूवर के पंजे,लखनऊ के हज़रतगंज बाज़ार में मलबा समेट रहे थे। दृश्य वैसा ही था जैसा किसी इमारत के ढ़ह जाने पर होता है । अतिक्रमण और ग़ैरक़ानूनी फ़ेरबदल और निर्माण की वजह से इमारत का यह दरवाज़ा कमज़ोर हो गया था । पुराना जा रहा था और नया उसकी जगह ले रहा था । फ़र्क़ यह था कि पुराना कंगारुदार दरवाज़ा लखनऊ की उन बहुमूल्य विरासतों में से एक था जो नवाबी दौर की देन था। ये दरवाज़ा सिब्तैनाबाद इमामबाड़े के दो प्रवेश द्वारों में से एक था।

लखनऊ के शानदार बड़ा इमामबाड़े या शाहनजफ़ इमामबाड़े के बारे में लोग जानते हैं लेकिन सिब्तैनाबाद इमामबाड़े के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। शहर के बीचोंबीच ऐतिहासिक हज़रतगंज बाज़ार में स्थित सिब्तैनाबाद इमामबाड़ा देखने में छोटा है और इसकी डिज़ाइन भी मामूली है। बाज़ार का निर्माण अवध के चौथे नवाब अमजद अली शाह ने करवाया था जो 1842 में सत्ता में आए थे। नवाब अमजद अली शाह और उनके वज़ीर-ए-आज़म अमीनउद्दौलाह ने पुराने मार्केट का संग-ए-बुनियाद रखा था। बाद में स बाज़ार का नाम, उन्हीं के नाम पर अमीनाबाद रखा गया। लखनऊ से कानपुर जानेवाली पक्की सड़क बनवाने का सहरा भी उन्हीं के सिर बंधता है।

ऐसा माना जाता है कि जिस जगह पर इमामबाड़ा बनाया गया है वह ज़मीन मिर्ज़ा मेहमूद ख़ा की मिल्कियत थी जो मिर्ज़ा ख़ुर्रम के सबसे बड़े बेटे थे। मिर्ज़ा ख़ुर्रम बख़्त देहली सल्तनक के शहज़ादे थे और वह अवध के पहले बादशाह नवाब ग़ाज़ुद्दीन हैदर( 1818-1827) की फ़ौज में घुड़सवार टुकड़ी के कमांडर थे।

नवाब अमजद ली शाह एक मज़हबी शासक माने जाते थे। अमजद अली शाह ने सिब्तैनाबाद इमामबाड़े का निर्माण मजलिस के लिए शुरु करवाया था। मजलिस में इमाम हुसैन की शहादत को याद किया जाता है। वह यह भी चाहते थे कि मरने के बाद उन्हें यहीं दफ़्न किया जाए। लेकिन इमामबाड़ा बनने के पहले ही नवाब की मृत्यु हो गई और फिर बाद में उनके पुत्र अवध के नवाब वाजिद अली शाह (शासनकाल 1847-56) ने इसे पूरा करवाया। यह भी कहा जाता है कि नवाब वाजिद अली शाह ने, अपनी ताज पोशी के दिन ही, नवाब अमजद अली के मक़बरे, हाल की शाही सजावट और ख़ुशनुमा फ़ानूसों के लिए दस लाख रूपए स्वीकृत कर दिए थे।

इंडो-इस्लामिक डिज़ाइन में बने सिब्तैनाबाद इमामबाड़े के दो प्रवेश द्वार थे- एक द्वार मुख्य परिसर में खुलता है जबकि दूसरा द्वार, जो हाल ही में गिर गया, मुख्य हज़रतगंज बाज़ार में खुलता था। परिसर में दाख़िल होते ही आपको दाहिने तरफ़ एक आयताकार परिसर में एक सफ़ेद मस्जिद और कुछ रिहायशी मकान दिखेंगे। एक छोटी-सी सीढ़ी उठे हुए चबूतरे की तरफ़ जाती है।यह चबूतरा ही इमामबाड़े का आधार है। मुख्य सभागार में पांच ख़ूबसूरत मेहराबदार प्रवेश द्वार हैं जिन पर चिरपरिचित नवाबी अस्तरकारी है।

प्रवेश द्वारों पर कांच के पैनल भी हैं। मुख्य सभागार दो हिस्सों में बंटा हुआ है, इसकी ऊंची दीवारेंऔर छतें अस्तरकारी तथा फ़ानूसों से सुसज्जित हैं।

इमामबाड़े को मक़बरा परिसर भी कहा जाता है क्योंकि यहां नवाब अमजद अली शाह, उनके पोते मिर्ज़ा जावेद अली और नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी ताजउन्निसा बेगम की क़ब्रें हैं। दुख की बात ये है कि सन 1857 के ग़दर में ये इमामबाड़ा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। विद्रोह के दौरान लुटेरे रेशम के क़ालीन और फ़ानूस जैसी कई बेशक़ीमती चीज़े लूट कर ले गए थे।

अंग्रेज़ों ने जब लखनऊ पर दोबारा कब्ज़ा करने की कोशिश की तो अंग्रेज़ सेना की सिख रेजीमेंट ने इमामबाड़े की दीवारें नष्ट कर दी थीं। दस्तावेज़ों से पता चलता है कि मार्च 12 और 13 सन 1858 को,अंग्रेज़ फ़ौजें बंदूक़ों से हमला करते हुए इमारत के दर घुस गईं थीं जिसकी वजह से रियासती फ़ौजें इमारत छोड़ कर भाग गईं थीं । अंग्रेज़ सेना क़ैसरबाग़ की तरफ़ कूच कर रही थी जहां नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हज़रत महल ने अपने वफ़ादार लोगों के साथ मोर्चाबंदी कर रखी थी।

विद्रोह के बाद जब तनाव ख़त्म हुआ तब अंग्रेज़ सेना ने इमामबाड़े को गिरजाघर में तब्दील कर दिया, जहां सेना के अधिकारी प्रार्थना करते थे। लेकिन सन 1860 में शहर में क्राइस्ट चर्च बनने के बाद गिरजाघर को फिर इमामबाड़े में तब्दील कर दिया गया।

अंग्रेज़ों के समय इमामबाड़े की बाहरी दीवार को तोड़कर वहां दुकानें बना दी गईं थीं जो अब हज़रतगंज बाज़ार का हिस्सा हैं। सन 1919 में आख़िरकार इमामबाड़ा को हेरिटेज स्मारक घोषित कर दिया गया। जब भारत आज़ाद हुआ तब भवन परिसर का एक हिस्सा पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों के लिए किराए पर दे दिया गया था।

सिब्तैनाबाद इमामबाड़े के एक हिस्से को अब एएसआई के संरक्षण में ले लिया गया है। एएसआई ने मुख्य इमारत के आसपास लोहे के तारों की बाड़ लगा दी है। सिब्तैनाबाद इमामबाड़ा की मुख्य इमारत में आज भी धार्मिक आयोजन होते हैं और हर साल मोहर्रम के दौरान यहां इबादतें की जाती हैं।

इमामबाड़ा ख़बरों में तब आया जब, हज़रतगंज के मुख्य मार्ग की तरफ़ ख़ुलने वाला बड़ा दरवाज़ा, भारी अतिक्रमण और लापरवाही की वजह से गिर गया था। हालांकि इस दरवाज़े की मरम्मत करवाई जा रही है लेकिन अशंका है कि वह शायद ही अपनी पुरानी शान को प्राप्त कर सकेगा ।सिब्तैनाबाद इमामबाड़ा शहर के बीचोंबीच है फिर भी इसकी छवि कमतर और स्थिति लगभग अनजान है।लेकिन लखनऊ के व्यस्त बाज़ार की गंदगी और शोरशराबे ने इसे एक गुप्त आश्चर्य और पुरसुकून नख़लिस्तान ( रेगिस्तान के बीच हरियाली) बना दिया है।

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