संघर्ष और क़ुर्बानियों के बाद अस्तित्व में आई शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक समिति

अंग्रेज़ों की हुक़ूमत के समय गुरूद्वारों के हालात ख़राब हो रहे थे । इनकी प्रतिष्ठा पर भी आंच आने लगी थी। ऐसे में हालात को सुधारना ज़रूरी समझा गया था। इसके लिए पहली ज़रूरत थी गुरूद्वारों के मौजूदा महन्तों और मुख्याओं के वर्चस्व को ख़त्म करना और उनकी जगह सिखों के लोकतांत्रिक तरीक़े से चुने गए लोगों को लाना था।  उन दिनों अंग्रेज़ों की सरकार ने सियालकोट (अब पाकिस्तान में) के  गुरूद्वारा बाबे दी बेर का प्रधान गंडा सिंह नाम के एक ईसाई को बना रखा था। उसका बेटा हैडो गुरूद्वारे में आने वाले सिख श्रद्धालुओं को पिस्तौल दिखाकर डराता-धमकाता था। सिखों ने इसका विरोध करना शुरु कर दिया। पहले तो इस विरोध-प्रदर्शन पर अंग्रेज़ों ने कोई ध्यान नहीं दिया, लेकिन सिखों के लगातार बढ़ रहे विरोध और ग़ुस्से को देखते हुए सरकार को सख़्त क़दम उठाने पड़े। इसी के तहत  5 अक्तूबर,सन 1920 को गुरूद्वारे का प्रबंध सिखों को सौंप दिया गया।

उन्हीं दिनों सिंह सभा (सिखों का सुधारवादी संगठन) के प्रचार और अमृत संचार या संस्कार (गुरु गोविंद सिंह के सिख धर्म को अपनाने के लिए तय चार संस्कार) मुहिम ज़ोरों पर थी। समाज के पिछड़े वर्ग में सिख धर्म का प्रचार करने के लिए भाई मेहताब सिंह के नेतृत्व में ‘खालसा बिरादरी जत्थे’ की स्थापना हो चुकी थी। इस जत्थे ने अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में 10 -12 अक्तूबर,सन 1920 को एक बैठक आयोजित की। 12 अक्तूबर को पिछड़े वर्ग के लोगों ने अमृत छका और एक जुलूस के रूप में कड़ाह-प्रसाद लेकर दर्शनों के लिए श्री दरबार साहिब पहुंचे। दरबार साहिब के सिख ग्रंथियों ने उनका कड़ाह-प्रसाद लेने से मना कर दिया जिसे लेकर लड़ाई-झगड़ा हुआ। आख़िरकार यह तय हुआ कि इस बाबत गुरू ग्रंथ साहिब में संदर्भ देखा जाए। ये संदर्भ इस तरह था:

निगुणिया नू आप बखसि लये भाई।

हरि जीओ आपे बखसि मिलाई।

गुण हीण हम अपराधी भाई।

पूरे सतिगुरू लये रलाये।

यह संदर्भ पढ़ने के बाद ग्रंथियों ने कड़ाह-प्रसाद स्वीकार कर लिया और अरदास के बाद इसे श्रद्धालुओं में बांट दिया।

श्री दरबार साहिब के बाद ये जत्था कड़ाह-प्रसाद लेकर श्री अकाल तख्त साहिब में मात्था टेकने गया। इस जत्थे में  करतार सिंह झब्बर, तेजा सिंह भुच्चर और प्रोफ़ेसर तेजा सिंह (खालसा कॉलेज अमृतसर) भी शामिल थे। ये लोग जब वहां पहुंचे, तो ग्रंथी तख़्त साहिब छोड़कर भाग गए। इसके बाद सिख संगत ने गुरुद्वारे का प्रबंधन, सैंट्रल माझा खालसा दीवान के प्रबंधक, तेजा सिंह भुच्चर के सुपुर्द कर दिया।

श्री अकाल तख़्त साहिब के बाद, गुरूद्वारा तरनतारन साहिब और गुरूद्वारा पंजा साहिब सहित श्री दरबार साहिब से संबंधित सभी गुरूद्वारों को भी, महन्तों और प्रमुखों के क़ब्ज़े से मुक्त करवाया गया। उन सभी गुरुद्वारों को  सिखों के लोकतांत्रिक तरीक़े से चुने गए प्रबंधन को सौंप दिया गया। इसके बाद अलग-अलग क्षेत्र की स्थानीय सिख संगतों (धार्मिक और सांस्कृतिक संस्था) ने गुरूद्वारों को महंतों के क़ब्ज़े से मुक्त कराकर अपने क़ब्ज़े में लेना शुरू कर दिया।

सन 1947 में देश के बटवारे के बाद पंजाब के मंत्री बने सरदार ईशर सिंह मझैल ‘अभिनंदन’ में लिखते हैं, कि सरकार के लिए हर जगह दख़ल देकर गिरफ्तारियां करना मुश्किल काम था, क्योंकि सिख संगत के उत्साह और विरोध को सख़्ती से दबाना संभव नहीं था। इसलिए सरकार ने 32 लोगों की एक समिति बना दी जो क़ब्ज़े में आए गुरूद्वारों का प्रबंधन देख सके। हरबंस सिंह अटारी इसके अध्यक्ष बनाए गए। 15 नवम्बर,सन 1920 को श्री अकाल तख्त साहिब पर पंथक सेवा दल(धार्मिक संगठन) की बैठक हुई और गुरूद्वारों का प्रबंधन देखने के लिए 175 सिंहों की एक समिति बनाई गई। इसका नाम शिरोमणि समिति रखा गया। इसमें सरकार के 36 सदस्य भी शामिल थे। सुंदर सिंह मजीठिया ने सिख पंथ की एकजुटता देखकर श्री अकाल तख़्त साहिब में हाज़िर होकर अपनी पिछली भूलों के लिए माफ़ी मांग ली। पंथ ने न सिर्फ़ उन्हें माफ़ कर दिया बल्कि सर्वसम्मति से समिति का अध्यक्ष भी चुना लिया।

शिरोमणि समिति बन जाने के बाद भी पंजाब में गुरूद्वारों को पंथ में शामिल करने की मुहिम जारी रही। इसकी वजह से सरकार चिंतित थी। वो अकालियों की बढ़ती ताक़त और गुरूद्वारों पर किए जा रहे क़ब्ज़ों को शक की नज़र से देख  रही थी। सरकार ने महसूस किया, कि अगर गुरूद्वारों के प्रबंधन के लिए कोई क़ानून बना दिया जाए तो यह मुहिम अपने आप समाप्त हो जाएगी। चुनांचे नई बनी समिति से सलाह मशवरे के बाद गुरूद्वारा बिल (विधेयक) तैयार करने का काम शुरू किया गया।

गुरूद्वारा बिल को लेकर सरकार और शिरोमणि समिति की सोच  एकदम अलग थी। सरकार चाहती थी, कि प्रत्येक गुरूद्वारे की अलग प्रबंधक समिति हो और कोई  केंद्रीय समिति न हो। जबकि केंद्रीय समिति बनाना शिरोमणि समिति की प्रमुख मांग थी। इस मांग के संबंध में सरकारी पक्ष सर जॉन मेनारड के इस बयान से साफ़ हो जाता है-“एक राज्य के अंदर दूसरा राज्य बर्दाश्त नहीं किया जा सकता और सारे ऐतिहासिक गुरूद्वारे एक केंद्रीय समिति के अंतर्गत लाने से, केंद्रीय कमेटी पंजाब सरकार के बराबर ताक़तवर हो जाएगी।”

जुलाई,सन 1921 में शिरोमणि समिति का चुनाव हुआ। सरदार खड़क सिंह उसके अध्यक्ष और मास्टर तारा सिंह सचिव चुन लिए गए। इस दौरान सरकार और सिखों के बीच संधर्ष जारी रहा। सिखों की गिरफ़्तारियां हो रही थीं। नवम्बर माह में श्री दरबार साहिब के तोषाख़ाने यानी ख़जाने की चाबियों पर पहरा लग गया। समिति के पदाधिकारियों के अलावा पूरे पंजाब से सारे प्रमुख अकाली रहनुमाओं और अन्य सिखों को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया।

सरकार ने अपनी मर्ज़ी से, सन 1922 में सिख गुरूद्वारा एंड  श्राइन्स एक्ट पास कर दिया, लेकिन इसपर अमल नहीं हो सका। उसके बाद गुरुद्वारा का बाग़,अमृतसर पर भी पहरा लग गया। शिरोमणि समिति का नया चुनाव हुआ और सरदार बहादुर मेहताब सिंह अध्यक्ष और सरदार तेजा सिंह समुंद्री उपाध्यक्ष चुने गए। नाभा रियासत के महाराजा को अंग्रेज़ी सरकार ने सत्ता से बेदख़ल कर नज़रबंद कर दिया। शिरोमणि समिति ने महाराजा नाभा को फिर से गद्दी पर बैठाने का फ़ैसला किया। इस पर सरकार ने समिति को ग़ैर-क़ानूनी क़रार देते हुए, 13 अक्तूबर,सन 1923 को, शिरोमणि कमेटी की अंतरिंग कमेटी के सदस्यों और पूरे स्टाफ़ को अंग्रेज़ी हुकूमत के विरूद्ध बग़ावत करने के आरोप में गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया।

नाभा रियासत में गुरूद्वारा गंगसर जैतो में संगत ने नाभा के महाराजा के समर्थन में 25 अगस्त,सन 1923 को अखण्ड पाठ शुरू किया। पुलिस के दख़ल देने पर जैतो का विरोध शुरू हो गया। शिरोमणि समिति के सदस्यों के विरूद्ध पहले अमृतसर जेल में और फिर लाहौर में मुक़दमा चला। यहीं पर नया गुरूद्वारा बिल इन रहनुमाओं की सलाह से बनना शुरू हुआ। थक-हार कर इस बार अंग्रेज़ी सरकार ने स्थानीय गुरूद्वारा प्रबंधक समितियों के आलावा गुरूद्वारों की एक केंद्रीय समिति बनाने की बात मान ली। इस तरह 9 जुलाई, सन 1925 को पंजाब कौंसिल के सिख सदस्यों और अकाली रहनुमाओं की सर्वसम्मति से गुरूद्वारों के प्रबंधन के लिए क़ानून पास हो गया ।

एक नवम्बर,सन 1925 को इसे सिख गुरूद्वारा एक्ट 1925 के तौर पर लागू कर दिया गया। क़ानून की धारा 85 के तहत गुरूद्वारा पंजा साहिब, गुरूद्वारा डेरा साहिब (लाहौर), श्री दरबार साहिब (अमृतसर) और गुरूद्वारा तरनतारन साहिब आदि जैसे बड़े-बड़े गुरूद्वारों की समितियां बननी थीं। इसी तरह धारा 29 और 27 के तहत बाक़ी गुरुद्वारों की प्रबंधक समितियां भी बनाई जानी थीं। इन सभी गुरूद्वारों के प्रबंधन और खंडों की देखभाल के लिए गुरूद्वारा सैंट्रल बोर्ड बनाया गया। सन 1929 में हुए गुरूद्वारा चुनावों के बाद इस बोर्ड का नाम शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक समिति हो गया।

आज  शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक समिति सिख पंथ की प्रमुख धार्मिक और सामाजिक संस्था है। ये समिति गुरूद्वारों के कुशल प्रबंधन, गुरूद्वारों के अंदर चलने वाले लंगरों, कड़ाह-प्रसाद वितरण का लेखा-जोखा कंप्यूट्राइज़्ड तरीक़े से करती है। इसके अलावा ये सिखों की युवा पीढ़ी को सिख धर्म की शिक्षा देने, देश-विदेश से आने वाले श्रद्धालुओं के ठहरने की व्यवस्था, अति आधुनिक सरायों का निर्माण कराने के साथ-साथ बड़ी संख्या में बेहतर सिख संस्थान खोलने और स्वास्थ्य सेवाएं देने जैसे सराहनीय काम करती है।

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