18 मई सन 1955 को गोवा को पुर्तगालियों से आज़ाद कराने के लिये एक ग्रुप गोवा में दाख़िल हुआ। इस ग्रुप का नेतृत्व एक सेनापति कर रहा था जो कोई फ़ौजी नहीं था बल्कि अहिंसा में विश्वास रखने वाला एक सत्याग्रही था। इस सेनापति का नाम था पांडुरंग महादेव बापट जो महाराष्ट्र के एक समाजवादी स्वतंत्रता सैनानी थे। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। आईये जानते हैं पांडुरंग बापट की कहानी।
बापट का जन्म 12 नवंबर सन 1880 में महाराष्ट्र के, अहमदनगर ज़िले के पारनर शहर में, एक निम्न मध्यम वर्ग परिवार में हुआ था। वह पढ़ाई लिखाई में बहुत अच्छे थे और उन्होंने सन 1899 में मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। संस्कृत भाषा में उनकी प्रवीणता की वजह से उन्हें जगन्नाथ शंकरसेठ स्कॉलरशिप मिली थी।
स्कॉलरशिप की वजह से उन्हें पुणे के प्रतिष्ठित दक्कन कॉलेज में दाख़िला मिल गया। पुणे में ही भारत की आज़ादी के लिये चल रहे आंलन्दोलन में भाग लेने का जज़्बा उनके मन में पैदा हुआ। इस दौरान उनका संपर्क दामोदर बलवंत भिड़े से हुआ जो एक क्रांतिकारी ग्रुप के सदस्य थे। इस ग्रुप का नेतृत्व दामोदर छापेकर कर रहे थे। दामोदर छापेकर उन तीन भाईयों में से एक थे जो पुणे के ब्रटिश प्लेग कमिश्नर डबल्यू.सी. रैंड की हत्या में शामिल थे। दामोदर भिड़े ने तलवार पर हाथ रखवा कर बापट से शपथ दिलवाई थी कि वह मातृभूमि की सेवा में पूरा जीवन समर्पित कर देंगे।
दक्कन कॉलेज में पढ़ाई के दौरान पुणे में राजनीतिक माहौल बहुत गर्म था और इससे बापट के मन में राष्ट्र भावना पैदा हो गई। 1904 में कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें एक और छात्रवृत्ति, मंगलदास नाथुभाई स्कॉलरशिप मिल गई और वह इंग्लैंड चले गए जहां उन्होंने एडिनबर्ग में हेरिऑट-वॉट कॉलेज में दाख़िला ले लिया। यहां वह कॉलेज के क्वींस राइफ़ल क्लब के सदस्य बन गए और उन्होंने बंदूक़ चलाना सीख ली।
राजनीति में रुझान की वजह से बापट ने ब्रटिश नेताओं की कई राजनीतिक सभाओं में हिस्सा लिया। ऐसी ही एक सभा में उनकी मुलाक़ात समाजवादी नेता जॉन डिंगवैल से हुई जो लेबर पार्टी के एक प्रमुख सदस्य थे और भारत के स्वतंत्रता संघर्ष से हमदर्दी रखते थे। डिंगवैल ने, बापट को उनकी राजनीतिक समझ और बढ़ाने के लिये पढ़ने की सलाह दी। दादाभाई नौरोजी की किताब “पॉवर्टी एंड अन-ब्रटिश रुल इन इंडिया ” पढ़ने के बाद बापट ने अंग्रेज़ शासन के गंभीर आर्थिक प्रभावों को समझा। इसके पहले वह अंग्रेज़ों के शासन के सिर्फ़ सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं के बारे में ही जानते थे। जल्द ही बापट भारत में विदेशी शासन के ख़िलाफ़ इंग्लैंड में दमदार सार्वजनिक भाषण देने लगे।
सन 1906 में उन्होंने, “ हमारी कांग्रेस को क्या करना चाहिये (What shall our Congress do?)” शीर्षक से एक पेमफ़्लैट भी निकाला जिसमें उन्होंने कांग्रेस के नेताओं से याचिकाओं और प्रार्थनाओं की राजनीति छोड़कर आंदोलन की राजनीति करने की अपील की। इस पेमप़्लैट की वजह से बापट को स्कॉलरशिप से हाथ धोना पड़ा।
स्कॉलरशिप ख़त्म होने की वजह से बापट के सामने आर्थिक संकट पैदा हो गया था लेकिन श्यामजी कृष्ण वर्मा ने उनकी मदद की जो एक क्रांतिकारी थे। वर्मा ने सन 1905 में लंदन में इंडिया हाउस की शुरुआत की थी जो छातिरों की रिहाइशगाह बन गया था। इंडिया हाउस ब्रिटेन में भारतीय छात्रों के बीच उग्र राष्ट्रवादी छात्रों की बैठक का ठिकाना बन गया था। बापट भी इंडिया हाउस में रहने लगे थे।
इंडिया हाउस में बापट की मुलाक़ात विनायक सावरकर से हुई। सावरकर की सलाह पर बापट बम बनाने की तकनीक सीखने के लिये पेरिस गए। उनके साथ हेमचंद्र दास और मिर्ज़ा अब्बास भी थे। इस काम में विनायक के रुसी दोस्तों ने उनकी मदद की। सन 1908 में बापट बम बनाने की तकनीक की किताबों और दो रिवॉल्वर के साथ भारत वापस आये। उन्होंने ये किताबें गुप्त रुप से सारे भारत में क्रांतिकारियों में बांटी।
बापट ने बंगाल के क्रांतिकारियों से संपर्क किया जो उस समय बम विस्फोट करने और बड़े अधिकारियों की हत्या करने की योजना बना रहे थे। बापट को आतंकवाद की ये छुटपुट कार्रवाई पसंद नहीं थी और उन्होंने क्रांतिकारियों को संयम बरतने की सलाह दी। उनकी नज़र में क्रांतिकारियों को आतंकवाद की छुटपुट वारदात करने के बजाय पूरे भारत में गुप्त संस्थाओं का एक बड़ा मज़बूत संगठन बनाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ देशव्यापी संघर्ष करना चाहिये।
लेकिन बापट की सलाह पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और बंगाल के क्रांतिकारियों ने बंगाल में चांदनगर के मेयर की हत्या करने की कोशिश की जो असफल रही। इस असफल प्रयास के बाद क्रांतिकारियों को गिरफ़्तार कर लिया गया। इसके बाद सन 1908 में अलीपुर बम कांड हुआ और कलकत्ता में अनुशीलन समिति के कई भारतीय राष्ट्रवादियों पर मुक़दमे चले। इन पर सरकार के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने के आरोप लगे थे
बापट गिरफ़्तारी की आशंका से भूमिगत हो गए। इस दौरान उन्होंने पहचान छुपाने के लिये कई छद्म नाम रखकर भारत के कई हिस्सों की यात्रा की। क्रांतिकारियों के साथ संबंध रखने के आरोप में वह भी जल्द गिरफ़्तार हो गए लेकिन पुलिस हमलों के साथ उनका संबंध साबित नहीं कर पाई और वह सन 1913 में रिहा हो गए।
जेल में बापट का एक तरह से ह्दय परिवर्तन हुआ। वह क्रांतिकारी विचारधारा को छोड़कर सत्याग्रह और अहिंसा की गांधी की विचारधारा के क़रीब आ गए। जेल से रिहा होने के बाद वह पुणे में बाल गंगाधर तिलक के अंग्रेज़ी अख़बार “ माहरत्ता” में बतौर सहायक संपादक काम करने लगे।
सन 1917 में, रुस में बोल्शेविक क्रांति हुई। बापट बोल्शेविक के समानता, सामंतवादी और पूंजीवाद विरोधी सिद्धांतो से बहुत प्रभावित हुए। इन सिद्धांतों की वजह से ही बापट ने मुलशी सत्याग्रह शुरु किया।
सन 1920 के दशक में टाटा कम्पनी, पुणे के पास मुलशी पेटा में एक बांध बनाना चाहती थी। इस परियोजना को अंग्रेज़ सरकार का समर्थन हासिल था। बांध बनाने के लिये बिना किसी क़ानूनी औपचारिकता के किसानों के खेतों की ज़मीन पर खाईयां खोदी जाने लगीं। एक किसान ने जब इसका विरोध किया तो एक अंग्रेज़ इंजीनियर ने उसे पिस्तौल दिखाकर धमकाया। इससे विरोध और बढ़ गया। उस समय बापट पुणे में ही काम कर रहे थे। वह इस विरोध का नेतृत्व करने लगे और उन्होंने बांध निर्माण का काम एक साल तक रुकवा दिया। इसी के बाद लोगों ने उन्हें सेनापति का ख़िताब दे दिया।
इसके बाद बॉम्बे सरकार एक अध्यादेश लाई जिसके तहत टाटा कम्पनी किसानों को मुआवज़ा देकर उनकी ज़मीन ले सकती थी। अब बांध को लेकर लोग दो ख़ेमों में बंट गये। एक तरफ़ पुणे के ब्राह्मण ज़मींदार थे जिनके पास अधिकतर ज़मीनें थीं। वह मुआवज़े के पक्ष में थे। दूसरी तरफ़ वो पट्टेदार थे जिनको मुआवज़ो में कुछ नहीं मिलना था । वह बापट के साथ थे और बांध निर्माण के ख़िलाफ़ थे। विरोध तीन साल तक चला जो कुल मिलाकर अहिंसक था। लेकिन आख़िरकार बापट को बांध निर्माण में बाधा डालने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्होंने आत्म समर्पण कर दिया और बांध बन गया।
इसी दौरान बापट को समाज में वर्ग संघर्ष की बात समझ आई और उन्हें मेहनतकश मज़दूरों की परेशानियों तथा वेदना का एहसास हुआ।
मुलशी सत्याग्रह के लिये बापट क़रीब सात साल तक जेल में रहे और सन 1931 में रिहा हुए। रिहाई के बाद वह फिर भारत की आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय हो गये। 15 अगस्त सन 1947 में बापट को पुणे में राष्ट्रीय ध्वज फेहराने का गौरव हासिल हुआ।
अंग्रेज़ भारत छोड़ चुके थे लेकिन कुछ विदेशी शासक थे जो भारत में बने हुए थे। गोवा में पुर्गालियों का शासन था। बापट ने अन्य सत्याग्रहियों के साथ मिलकर गोवा को आज़ाद कराने की ठानी।
दिसंबर सन 1947 में आज़ाद भारत और पुर्तगाल के बीच राजनयिक संबंध स्थापित हुए। जनवरी सन 1948 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु पुर्तगाली वाणिज्यदूत से मिले और उन्होंने भारतीय संघ में गोवा को शामिल करने का मुद्दा उठाया। पुर्तगाली अपनी सामरिक भारतीय औपनिवेशिक चौकियों की एहमियत समझते थे इसलिये उन्होंने इस मसले पर बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जल्द ही क्रांतिकारियों के गुट सीधी कार्रवाई से गोवा को आज़ाद कराने मे जुट गए।
सोचा ये गया था कि गोवा के बाहर अगर भारतीय सत्याग्रह करते हैं तो गोवा को आज़ाद कराने का आंदोलन तेज़ी पकड़ लेगा। बहरहाल, इस काम के लिये महाराष्ट्र से सत्याग्रहियों के जत्थे भेजने का फ़ैसला किया गया और बापट ने ऐसे ही एक जत्थे का नेतृत्व करने की पेशकश की। बापट पहेल जत्थे का नेतृत्व करते हुए समाजवादी नेता एन.जी. गोरे जैसे अन्य नेताओं के साथ 18 मई सन 1955 को गोवा में दाख़िल हुए। इसका मक़सद सिर्फ़ पुर्तगाली सरकार पर दबाव डालना ही नहीं था बल्कि भारत सरकार को भी सख़्त क़दम उठाने के लिये उकसाना था।
लेकिन जब जत्था गोवा में दाख़िल हुआ तो उस पर गोलियां और लाठियां चलाई गईं तथा गिरफ़्तारियां भी हुईं। लाठीचार्ज में बापट की हड्डियां टूट गईं। बाद में बापट ने बेलगाम में एक सभा में कहा कि पुर्तगालियों के ख़िलाफ़ अहिंसक सत्याग्रह के ज़रिये लड़ने का कोई मतलब नहीं है। गोवा तभी आज़ाद हो सकता है जब भारत सरकार वहां फ़ौज भेजे। गोवा स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं का इस बीच विरोध जारी रहा। आख़िरकार भारत सरकार ने गोवा में फ़ौज भेजने का आदेश दिया और इस तरह से सन 1961 में गोवा आज़ाद हो गया।
बापट ने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में भी निर्णायक भूमिका निभाई। उन्होंने मोर्चे निकाले और चौपाटी पर लाखो लोगों की जन सभाएं की। 28 नवंबर सन 1967 में बापट का, 87 की उम्र में देहांत हो गया। उनकी स्मृति और उनके योगदान के लिये पुणे और मुंबई में कई सड़कों के नाम उनके नाम पर रखे गए हैं।
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