सरला ठकराल: आसमान में उड़ान की कहानी

तू शाहीन है, परवाज़ है काम तेरा
तेरे सामने आसमॉ और भी हैं

ऐसा लगता है, कि अलाम्मा इक़बाल ने ये शे’र सरला ठकराल के लिये ही लिखा होगा। शाहीन यानी बाज़ या गरुड़….जो आकाश में सबसे ऊंचा उड़नेवाला पक्षी होता है..सरला ठुकराल ने भी आसमान में कुछ ऐसी ही उड़ाने भरी थीं। सन 1911 में भारत में पहले विमान की उड़ान के बाद से,  देश में कई विमानन क्लब, ट्रैनिंग केंद्र और हवाई अड्डे बन गये थे, जिनकी देखरेख पुरुष किया करते थे। उसके 25 साल बाद  एक युवती ने हवाई जहाज़ उड़ाने का साहस दिखाया और इस तरह वह अकेले विमान उड़ाने वाली पहली भारतीय महिला बन गईं। ज़ाहिर है, वह भावी पीढ़ी की भारतीय महिला चालकों के लिये प्रेरणा स्रोत भी बन गईं।

सरला ठकराल सन 1936 में एक विमान (जिप्सी मॉथ) उड़ाने वाली पहली भारतीय महिला थीं और वह विमान उड़ाने का लाइसेंस हासिल करने वाली पहली महिला भी बनीं। उनकी प्रेरणादायक यात्रा दृढ़ संकल्प और साहस का एक आदर्श उदाहरण है।

एयरमेल (1911) की शुरुआत के बाद  रॉयल एयरो क्लब ऑफ़ इंडिया एंड बर्मा (1927) की स्थापना के साथ विमानन ने भारत में अपने पंख फैलाना शुरू कर दिये,  जिसकी वजह से बॉम्बे, दिल्ली, जोधपुर और मद्रास जैसी जगहों पर स्थानीय फ़्लाइंग क्लब खुलने शुरु हो गये थे।

इसी तरह लाहौर में भी सन 1930 में ‘नॉर्दर्न इंडिया फ़्लाइंग क्लब’  खुल गया। तब किसी को इस बात का अंदाज़ा नहीं था, कि एक दिन सरला जैसी पक्के इरादेवाली युवती,आसमान से दो-दो हाथ करने के लिये यहां ट्रैनिंग ले रही होगी।

सन 1914 में दिल्ली में जन्मी सरला की शादी 16 साल की उम्र में पी.डी.शर्मा से हो गई थी, जो भारत के पहले एयरमेल पायलट के रूप में मशहूर थे। दिलचस्प बात यह है, कि लाहौर (वर्तमान समय में पाकिस्तान में) में शर्मा के परिवार में ऐसे लोग थे, जो पहले से ही व्यवसायिक पायलट थे, और जो उड़ान को करियर के रुप में अपनाने के लिए सरला की प्रेरक शक्ति बन गये थे।

ये वो समय था, जब भारतीय समाज में महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में बहुत धीमी प्रगति हो रही थी और परिवार वाले बहुत मुश्किल से अपनी बेटियों को पढ़ने या करियर बनाने की इजाज़त देते थे। लेकिन सरला ने जब हवाई जहाज़ उड़ानें और सीखने की इच्छा व्यक्त की, तो उन्हें ससुराल वालों से पूरा समर्थन मिला। शादी के पहले साल में मां बनने के बावजूद सरला के परिवार वालों ने लाहौर फ्लाइंग क्लब में विमान उड़ाने की ट्रैनिंग लेने के लिए उनका साथ दिया। सरला अपने बच्चे की देखभाल के साथ-साथ विमान उड़ाने की बुनियादी बातें भी सीखने लगीं।

पति शर्मा लाहौर और कराची के बीच उड़ान भरने में व्यस्त रहते थे, जिसके कारण उनके पिता ने न सिर्फ़ सरला को ट्रैनिंग के लिए फ्लाइंग क्लब में भर्ती कराया, बल्कि ट्रैनिंग के लिये छोड़ने भी जाया करते थे। फ़्लाइंग क्लब में पुरुष जहां उड़ान के लिए तयशुदा लिबास पहनते थे, वहीं सरला ने भारतीय पारंपरिक कपड़े यानी साड़ी पहनकर ही जिप्सी मॉथ बाइप्लेन उड़ाना सीखा। उनके अध्यापक को ये देखकर हैरानी हुई, कि सरला एक जन्मजात पायलट थीं। अकेले उड़ान भरने की योग्यता पाने के लिए लगभग 10-12 घंटे अकेले विमान उड़ाने का अभ्यास ज़रुरी होता था, लेकिन इस पैमाने के विपरीत सरला को महज़ आठ घंटे की उड़ान पूरी करने के बाद ही उन्हें अकेले उड़ान भरने के लायक़ मान लिया गया था!

गौरव का क्षण आख़िरकार सन 1936 में आ ही गया, जब 21 साल की सरला को अकेले जिप्सी मॉथ बाइप्लेन उड़ाने का मौक़ा मिल गया। वह न सिर्फ़ विमान को आवश्यक ऊंचाई तक ले गईं बल्कि इसे सफलतापूर्वक उतारा भी। इस तरह सरला अकेले विमान उड़ाने वाली पहली भारतीय महिला बन गईं। लेकिन मामला यहीं ख़त्म नहीं हुआ। अगले तीन वर्षों में उन्होंने विमान उड़ाने का लगभग एक हज़ार घंटे का अनुभव प्राप्त किया और ‘ए’ लाइसेंस (प्रथम चरण उड़ान लाइसेंस) पाने वाली पहली भारतीय महिलाओं में से एक बन गईं।

सरला अब उड़ान के क्षेत्र में अपने करियर को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थीं, और वह इस दिशा में आगे बढ़ना चाहती थीं। लेकिन उनका आनंदमय सफ़र बहुत छोटा साबित हुआ। सन 1939 में एक उड़ान के दौरान हादसे में उनके पति का निधन हो गया। इस सदमे से सरला बेहद दुखी थीं, लेकिन इस दुख से उबरने के लिए उन्होंने  जोधपुर में “बी” लाइसेंस (व्यवसायिक पायलट) के लिए आवेदन किया। जोधपुर भारत के पहले अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों में से एक था, जहां व्यवसायिक पायलट बनने के लिये बेहतर सुविधाएं और ट्रैनिंग की व्यवस्था थी। लेकिन एक बार फिर भाग्य उनसे रूठ गया, क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) के कारण व्यवसायिक उड़ानें अस्थायी रुप से निलंबित कर दी गई थीं। इस तरह सरला के हाथों से व्यवयायिक विमान चालक बनने के अवसर निकल गया।

निलंबन हटने की कोई संभावना नहीं दिखाई दे रही थी, इसलिये दुखी सरला वापस लाहौर चली आईं। भारी मन से सरला ने अपने सपनों को अलबिदा कहने का फ़ैसला किया। लेकिन वो घर बैठने वाली तो थीं नहीं। जिस लगन और जोश के साथ उन्होंने विमान उड़ाना सीखा था और इसमें ज़बरदस्त कामयाबी भी हासिल की थी, उसी लगन से उन्होंने मेयो स्कूल ऑफ़ आर्ट (लाहौर) में दाख़िला लिया और ललित कला में डिप्लोमा हासिल कर लिया।

सन 1940 के दशक की शुरुआत में सरला ने साड़ियों में इस्तेमाल होने वाले रंगीन बुने हुए रेशमी कपड़ों में सजावट का काम शुरु कर दिया, लेकिन उनकी इस रचनात्मक यात्रा पर एक फिर विराम लग गया। सन 1947 में आज़ादी मिलने के साथ ही भारत का विभाजन हो गया। लाहौर में सांप्रदायिक तनाव को देखते हुए सरला वापस दिल्ली चली गईं।

अपने सस्ते-सुंदर गहनों का काम फिर से शुरू करने के बाद  सरला ने अपने रचनात्मक करियर में ब्लॉक प्रिंटिंग, साड़ी डिज़ाइनिंग और कैलीग्राफ़ी (सुलेखन) जैसे अन्य कला रूपों को शामिल किया, जिससे वो देशभर में लोकप्रिय हो गई। उनकी महारत ऐसी थी, कि सन 1958 में  संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की दीवारों पर डिज़ाइन बनाने और पेंट करने के लिए नियुक्त किया। सरला पक्की आर्य समाजी थीं, इसलिये उन्होंने सन 1949 में दोबारा शादी की और दिल्ली के पी.पी. ठकराल को जीवन साथी बना लिया।

 कला के क्षेत्र में दशकों तक अपना जादू जगाने के बाद, 15 मार्च सन 2008 को 94 वर्ष की उम्र में सरला के जीवन की उड़ान थम गई। विमानन के क्षेत्र में उनकी विरासत को प्रेम माथुर और दुर्बा बनर्जी ने आगे बढ़ाया, जो पहली भारतीय व्यवसायिक महिला पायलट बनीं। सन 1994  में  हरिता कौर देओल भारतीय वायु सेना के सैन्य विमान को अकेले उड़ाने वाली पहली महिला बनीं।

सरला ठकराल ने कई भूमिकाएं निभाते हुए अपनी शर्तों पर जीवन जिया। उनकी कहानी आज भी कई महिलाओं को आसमान में उड़ान भरने के साथ और साहस तथा गरिमा के साथ जीवन जीने के लिये प्रेरित करती हैं।

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