हम मे ज़्यादातर लोग, जासूसी के क़िस्से सुनकर रोमांचित हो जाते हैं। आज हम आपको एक ऐसी महिला जासूस का क़िस्सा सुनाने जा रहे हैं, जो महज़ 16 साल की उम्र में आज़ाद हिंद फ़ौज की जासूस बनीं।
जासूसी की कहानियां हमेशा रोमांचक लगती हैं, चाहे वे काल्पनिक हों या फिर वास्तविक। इन्होने भारत की सुरक्षा के लिए काम किए हैं और इनके क़िस्से इतिहास के पन्नों में दबे हुए हैं। हम आपको सरस्वती राजामणि के बारे में बताने जा रहे हैं, जो सिर्फ़ 16 साल की उम्र में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज की जासूस बन गई थीं। वह इंडियन नैशनल आर्मी के लिए गुप्त सूचनाओं की तस्करी किया करती थीं।
राजामणि का जन्म बर्मा स्थित भारतीय परिवार में, सन 1927 में हुआ था और बचपन से ही उनके भीतर देशभक्ति की भावना भरी हुई थी। उनके पिता भी देशभक्त थे। उनके पिता त्रिचि (मौजूदा समय में तमिलनाडू) में सोने की खान के मालिक थे और स्वतंत्रता संग्राम के समर्थक थे। वह आज़ादी के समर्थन में होने वाले विरोध और गतिविधियों की वित्तीय सहायता भी करते थे, जिसकी वजह से वह अंग्रेज़ों की नज़रों में आ गए थे। गिरफ़्तारी से बचने के लिए वह अपने परिवार के साथ बर्मा चले गए थे जहां उस समय व्यापार ख़ूब फल-फूल रहा था और भारतीय लोग ख़ुशहाल थे। रंगून में राजामणि के परिवार की सोने की खान थी और जल्द ही उसकी गिनती रंगून के प्रभावशाली परिवारों में होने लगी।
19वीं सदी के मध्य में, एंग्लो-बर्मा युद्ध की वजह से बर्मा अंग्रेज़ साम्राज्य का हिस्सा बन गया था। अधिनियम-1935 के तहत बर्मा, भारतीय उप-महाद्वीप के बाहर, भारत सरकार के अधीन, एक अलग कालोनी बना। भारत की तरह बर्मा भी आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा था। सन 1927 में मद्रास में बर्मीस कांग्रेस अधिवेशन हुआ, जिसमें बर्मा से दो प्रमुख स्वतंत्रता सैनानी मौंग मौंग और पादरी ओट्टम हिस्सा लेने आए। दोनों ने, दोनों देशों के बीच एकता और आज़ादी के लिए एकजुट होकर लड़ने की वकालत की। बर्मा के कुछ अन्य नेताओं की तरह मौंग मौंग भी सन 1931 में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची अधिवेशन के अभिन्न अंग हो बन गए । महात्मा गांधी, सन 1929 और सन 1937 में, दो बार बर्मा गए थे। उन्होंने इन यात्राओं के दौरान अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संघर्ष में बर्मा के स्वाधीनता की बात को बल पूर्वक उठाया था। तब तक गांधी जी कांग्रेस के एक क़द्दावर नेता बन चुके थे।
सन 1937 में बर्मा की अपनी दूसरी यात्रा के दौरान गांधी जी ने रंगून में राजामणि परिवार से मुलाक़ात की। इस मुलाक़ात में राजामणि को छोड़कर परिवार के सभी सदस्य मौजूद थे। राजामणि की तलाश की गई और ये देखकर गांधी सहित राजामणि परिवार के अन्य सदस्य हैरान रह गए, कि दस साल की राजामणि घर के बाग़ में खिलौने वाली पिस्तौल से निशाना साधने का अभ्यास कर रही थी। उसके बाद आज़ादी के लिए हिंसक मार्ग अपनाने को लेकर गांधी जी और राजामणि की बीच थोड़ी बहस भी हुई। राजमणि का जवाब था,“जब लूटेरे लूटते हैं तो हम भी उन्हें गोली मार देते हैं। यहां भी ऐसा ही होगा और बड़ा होने पर मैं भी कम से कम एक अंग्रेज़ को मारुंगी।”
दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) में जापान ने 14 अप्रैल 1941 को बर्मा इंडीपेंडेंस आर्मी के सहयोग से बर्मा पर कब्ज़ा कर लिया। जापान का पूर्वी एशिया पर आक्रमण करने का मक़सद कोबाल्ट, तेल, चावल और अन्य चीज़ें हासिल करना था, जो उन्होंने कम ही समय में हासिल कर लिया क्योंकि ये क्षेत्र सुरक्षा की दृष्टि से यूरोपीय सरहदों की तरह सक्षम नहीं थे। जापानी सेना ने कई एशिया के पूर्वी क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया और अंग्रेज़ी सेना के भारतीय सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया । यही वह वक़्त था, जब अगस्त सन 1942 में रास बिहारी बोस और नेताजी ने आज़ाद हिंद फ़ौज की स्थापना की, साथ ही जापान और बर्मा के मामले में हस्तक्षेप किया। यह ख़बर 15 साल की राजामणि के कानों तक पहुंच गई।
इसके बाद अगले कुछ साल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए बहुत महत्वपूर्ण थे। ये वो वक्त था, जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने इंडियन नैशनल आर्मी का गठन किया। नेताजी और इंडियन नैशनल आर्मी की वजह से राजामणि में देशभक्ति की भावना जागी।
अपनी मुहिम के तहत नेताजी ने भारत के बाहर रहने वाले भारतीयों को अंग्रेज़ साम्राज्य के ख़िलाफ़ हथियार उठाने के लिए प्रेरित किया। उनकी विचारधारा और इंडियन नैशनल आर्मी के देशभक्ति के गीतों का राजामणि पर गहरा प्रभाव पड़ा। राजामणि रेडियो या फिर जनसभाओं में नेताजी के भाषणों को सुनकर उन्हें अपनी डायरी में लिखा लिया करती थी। लेकिन राजामणि को नेताजी जी के सबसे मशहूर इस नारे ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया-“तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा।”
धन एकत्रित करने और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई में लोगों को भर्ती करने के लिए नेताजी, 17 जनवरी सन 1944 को रंगून आए। राजामणि ने सोने और हीरे के अपने सारे ज़ेवर इंडियन नैशनल आर्मी को दान किए, लेकिन नेताजी को ये पसंद नहीं आया और वह राजामणि के घर गए और यह कहकर सब ज़ेवर वापस कर दिए, कि राजामणि ने ये मासूमियत के तहत किया है। लेकिन राजामणि भी अपने ज़ेवर वापस लेने को तैयार नहीं थी। हालांकि उनके पिता ने ख़ुद भी तीन लाख रुपये दान किए थे। राजामणि का कहना था, कि ये उनके अपने ज़ेवर हैं, जो वह दान कर रही हैं। इसे बात पर बहस होती रही लेकिन नेताजी राजामणि के दृढ़ संकल्प और अक़्लमंदी से बहुत प्रभावित हुए।
बहरहाल, नेताजी और राजमणि के बीच आख़िरकार समझौता हो गया, जिसके तहत ज़ेवर वापस लेने के बदले राजामणि को इंडियन नैशनल आर्मी में नर्स की ज़िम्मेदारी मिल गई। नेताजी ने उनका नाम सरस्वती रखा दिया और कहा, कि लक्ष्मी (धन) तो आती जाती रहती है, लेकिन विद्या (सरस्वती) हमेशा साथ रहती है। और इस तरह उसका नाम सरस्वती राजामणि पड़ा।
इंडियन नैशनल आर्मी में अपने शुरुआती दिनों में राजामणि ने घायल सैनिकों की देखभाल की, लेकिन वह इससे संतुष्ट नहीं थी। एक दिन उसे ये देखकर हैरानी हुई, कि कुछ स्थानीय लोग अंग्रेज़ सैनिकों से पैसे लेकर उन्हें सूचना दे रहे हैं। ये बात उन्होंने रंगून शहर से पांच कि.मी. दूर आर्मी के एक शिविर में जाकर नेताजी को बताई।
राजामणि की कुशलता से प्रभावित होकर नेताजी ने उसे रानी झांसी रेजीमेंट में शामिल कर लिया, जहां उसे सैनिक प्रशिक्षण मिला। यहां उसकी दोस्ती दुर्गा नाम की एक महिला से हुई, जो बाद में उनके जासूसी मिशन में सहयोगी बनी। कुछ ही दिनों बाद, इस रेजीमेंट को रंगून से क़रीब 680 कि.मी. दूर इम्फ़ाल और कोहिमा रोड के पास मैयमो में उत्तरी बर्मा भेजा गया। अन्य महिलाओं के अलावा दुर्गा और राजामणि को भी अंग्रेज़ सैनिकों की जासूसी करने का काम सौंपा गया। दिलचस्प बात ये थी, कि इस मिशन का नेटवर्क फ़ैलाने के लिए, वहां रहने वाले कई भारतीय भी आगे आ गए थे।
राजामणि और दुर्गा ने अपने बाल कटवा लिए और लड़कों की तरह, अंग्रेज़ों के सैन्य शिविरों और अधिकारियों के घरों में काम करने लगीं। यहां से वे सूचनाएं एकत्र कर अपने साथी कॉमरेड को भेजती थीं, जो इन्हें नेताजी तक पहुंचा देते थे। कपड़े धोने, जूतों पर पॉलिश करने औऱ साफ़-सफ़ाई का काम करने के दौरान उनके हाथ कुछ महत्वपूर्ण फ़ाइलें औऱ हथियार भी लगे। उन्हें ख़ासतौर पर हिदायत दी गई थी, कि उनमें से अगर कोई पकड़ा जाता है, तो वह गोली से खुद को मारेगा औऱ बाक़ी लोग फ़रार हो जाएंगे। मणि नाम से जासूसी का काम डेढ़ साल तक जारी रहा और इसने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इंडियन आर्मी की प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान किया।
लेकिन जासूसी का काम में वो ज़्यादा दिन बच नहीं सकीं। एक दिन अंग्रेज़ों ने दुर्गा को पकड़ लिया गया और एक बेहद सुरक्षित जेल में बंद कर दिया। राजामणि को पता होने के बावजूद, कि जासूसी करते पकड़े जाने और गोली खाने के खतरे होने के बावजूद, उसने दुर्गा को बचाने का फ़ैसला किया। वह नृतकी के भेस में जेल गईं औऱ वहां अंग्रेज़ अफ़सरों के सामने नृत्य किया। उसने और उसके सहयोगियों ने अंग्रेज़ों की शराब में अफ़ीम मिलादी, जिसे पीकर वह बेहोश हो गए और इस तरह दुर्गा को बचा लिया गया।
जेल के बाहर तैनात अंग्रेज़ सैनिकों ने जब दुर्गा औऱ राजमणि को भागते देखा, तो बिना समय बर्बाद किए उन पर गोलियां चलाई। एक गोली राजामणि के पाव में लगी लेकिन फिर भी वह दौड़ती रही। राजामणि के पांव से ख़ून निकल रहा था, लेकिन वह अपने सहयोगियों के साथ एक पेड़ के ऊपर चढ़ गई, जहां वह लोग दो दिन तक रहे, जबकि अंग्रेज़ सैनिक उसकी तलाश में लगे हुए थे। दो दिन बाद राजामणि और उनकी सहयोगी पेड़ से नीचे उतरी और एक स्थानीय बस से आठ घंटे का थकानभरा सफ़र करके रंगून और फिर अपने कैम्प पहुंची।
गोली की चोट की वजह से राजामणि हमेशा के लिए लंगड़ी हो गईं, लेकिन इसका उन्हें कोई मलाल नहीं रहा। वह इसे इंडियन नैशनल आर्मी के गौरवपूर्ण दिनों की निशानी मानती थीं। सेहतमंद होने के बाद राजामणि को नेताजी का एक पत्र मिला, जिसमें उन्होंने राजामणि की बहादुरी की प्रशंसा की और उसे इंडियन नैशनल आर्मी का न सिर्फ़ सबसे युवा सदस्य बल्कि पहली भारतीय महिला जासूस भी मान। जापान की सरकार ने उसे उसके योगदान के लिए प्रमाण-पत्र भी दिया।
दूसरा विश्व युद्ध ख़त्म हो गया और जापान हार गया। अंग्रेज़ों के युद्ध जीतने के बाद इंडियन नैशनल आर्मी भंग हो गई। ऐसा विश्वास किया जाता है, कि 18 मार्च सन 1945 को तैहोकु (ताईवान) में एक विमान दुर्घटना में नेताजी का निधन हुआ। दो साल बाद 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हो गया। आज़ादी के एक दशक बाद राजामणि का परिवार सोने की खान सहित अपनी सारी संपत्ति बेचकर सन 1957 में भारत आ गया और त्रिची में रहने लगा।
इसके बाद राजामणि को पेंशन के लिए सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाने पड़े और फिर उन्हें चैन्नई आकर रहना पड़ा, जहां वह बर्मा में बेची गई अपनी संपत्ति के पैसों से गुज़र-बसर करने लगी। संघर्ष के इस दौर में एक दिन उन्होंने एक अधिकारी को बताया कि इंडियन नैशनल आर्मी के दिनों में वह नेताजी के साथ काम करती थीं। इससे नाराज़ होकर अधिकारी ने उनके कागज़ात फ़ाड़ डाले औऱ उनसे कहा, कि वह नेताजी से ही पेंशन ले लें।
आजादी के 24 साल बाद सन 1971 में राजामणि और इंडियन नैशनल आर्मी के अन्य सैनिकों को पेंशन मिलनी शुरु हुई। समय के साथ राजामणि के परिवार के सदस्य अन्य जगहों पर बस गए। दूसरी तरफ़ राजामणि दर्ज़ियों की दुकानों पर जाकर कपड़ों की क़तरने और ख़ारिज कपड़े जमा करके उनसे कपड़े बनाकर यतीमों और बूढ़ों के घरों में बांटने का काम करने लगीं। ये काम वह अपने अंतिम दिनों तक करती रहीं। सन 2000 के मध्य तक वह एक कमरे के टूटे-फूटे मकान में रहीं और सन 2005 में कहीं जाकर तमिलनाडू सरकार ने चेन्नई में पीटर्स रोड पर स्थित तमिलनाडू हाउसिंग सोसाइटी में उन्हें एक मकान आवंटित किया और वित्तीय सहायता भी दी।
सन 2005 में दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने नेताजी के बारे में ये बात कही-
“वह इतने दूरदर्शी थे, कि वह देख सकते थे कि कल क्या होने जा रहा है। वह अलग-अलग भेस में आकर आपको हमेशा चौंका देते थे। वह स्वामी विवेकानंद के आदर्शों पर विश्वास करते थे और नेताजी हमारे लिये भगवान के समान थे।”
राजमणि ने सन 2006 में आई सुनामी के लिए अपनी पेंशन दान की थी।सन 2008 में उन्होंने कटक में नेताजी सुभाष के जन्म स्थल कटक के नैशनल म्यूज़ियम को अपनी वर्दी और अपना तमग़ा दान किया। राजामणि अपने जीवन में अधिकतर समय चेन्नई में एक पुराने घर में अकेली रहीं। उनके पास बचत का कोई पैसा भी नहीं था। 13 जनवरी सन 2018 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। उनके जीवन पर कई टीवी कार्यक्रम, फ़िल्में औऱ वेब सिरीज़ बनी हैं जिनमें इंडियन नैशनल आर्मी के बारे में बताया गया है।
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