“या कुन्देन्दु तुषार हार धवला, या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणा वरदडमण्डितकरा, या श्वेत पद्मासना”
वैदिक काल से ही विद्या की देवी सरस्वती के दो रूपों का उल्लेख मिलता है। पौराणिक साहित्य के अलावा जनश्रुतियों के आधार पर ‘नदी’ और ‘विद्या की देवी’ के रूप में वर्णन है। ऋग्वेद में उपलब्ध विवरण के अनुसार सरस्वती केवल नदी ही नहीं बल्कि विद्या की देवी भी है, जिसका वाहन हंस है। उसके वस्त्र सफेद हैं तथा चारों हाथों में से एक में वीणा है जिससे यह स्पष्ट है कि वह विद्या की ही नहीं बल्कि संगीत और अन्य ललित कलाओं की माता भी है। उसकी उपासना करने वाले को ज्ञान की प्राप्ति होती है।
आज बंसत पंचमी के पावन अवसर पर राजस्थान के विभिन्न जगहों से प्राप्त देवी सरस्वती की प्राचीन प्रतिमाओं की जानकारी से रूबरू होते हैं।
ऐसा माना जाता है कि सरस्वती पूजा का आरम्भ वैदिक काल से हुआ है। साहित्यकार विजय कुमार झा के अनुसार स्वतंत्र देवी के रूप में सरस्वती की विशिष्टता सर्व प्रथम वैदिक धर्म में ही प्राप्त हुई है। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में देवी सरस्वती की स्तुति की हुई है। ‘सरस्वत’ शब्द का अर्थ प्रचुर जल विशेष से है। इसी शब्द का स्त्रीलिंग सरस्वती है। वेदों में इन्हें प्रचुर जल विशेष का स्वरूप ही माना गया है।
वैदिक संस्कृति सरस्वती नदी के तटवर्ती प्रदेशों में परवान चढ़ी है। भारत में आर्यों के आगमन की और वेदों की रचना भी इसी नदी के किनारे मानी गई है। ऋग्वेद में इस नदी का उल्लेख लगभग पचास स्थानों पर किया हुआ है। इस वेद के तीसरे मंडल में विश्वामित्र ने भी देवी सरस्वती की स्तुति की है। इसी वेद के दूसरे मंडल में मंत्र दृष्टा ऋषिधृत समद भी सरस्वती को माताओं, नदियों तथा देवियों में सर्वश्रेष्ठ मानते हुए वंदना करते हैं। आगे चलकर ऋषि-मुनियों ने भी इन्हें चेतना शून्य जल प्रवाह मात्र नहीं समझा बल्कि उनमें एक अदृश्य देवता का साक्षात्कार किया जो केवल जलधारा की नहीं बल्कि इन्हें यज्ञ को सफल बनाने वाली, अन्न-धनदात्री, सुंदर बुद्धि, विद्या देने वाली देवी भी माना है। इस देवी के अनेक नामों का उल्लेख मिलता है। पुराणों में सरस्वती को ब्रह्मा की वामांगी माना गया है।
देवी सरस्वती विश्वव्यापी ज्योर्तिमय ब्रह्मा की प्रतीक इस देवी के ललाट पर अर्द्ध द्विजराज सौंदर्य और ज्योति स्वरूप को व्यक्त करता है। चार भुजाएँ, चारों दिशाएं अर्थात विश्वव्यापी स्वरूप की प्रतीक है। हाथ में धारण की हुई वीणा, पुस्तक, लेखनी, पदमयुगल का आसन और श्वेत भोज ये सभी शिल्प, विज्ञान और साहित्य को प्रदर्शित करते हैं। देवी सरस्वती की बनाई हुई विभिन्न प्रतिमाओं की प्रत्येक वस्तु एक न एक गुण को प्रकट करती है। बौद्ध अनुयायी इन्हें ‘मंजुश्री’ की आत्मा के रूप में स्वीकार कर पूजा करते हैं। भारत सहित विभिन्न देशों में भी देवी सरस्वती की उपासना की परंपरा रही है। ख़ासकर उन देशों में जहां बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ । इसी क्रम में तिब्बत में एक मूर्ति में सरस्वती देवी को वीणा बजाते हुए दर्शाया गया है तो जावा में एक सिंहासन पर विराजमान देवी की मूर्ति मिली है।
यूनान में सरस्वती को देवदूत हारमिस के पुरूष रूप में मिनर्वा या अर्टिमिस के रूप में पूजा जाता था। इसी प्रकार जैन धर्म में हिन्दू देवी-देवताओं को आत्मसात करने का भी सुंदर उदहारण मिलता है। विशेषकर वाग्देवी सरस्वती जैन धर्म में बहुत लोकप्रिय रही है। इसका उदाहरण पल्लू (हनुमानगढ़), नाडोल, सेवाड़ी (पाली), अर्थूणा (बांसवाड़ा) और लाडनू (नागौर) की जैन सरस्वती प्रतिमाएं राजस्थान की मध्यकालीन कला की उत्कृष्ट कृतियाँ मानी जाती हैं। अर्थूणा गाँव से प्राप्त दो काले पत्थर की प्रतिमाओं पर क्रमशः संवत् 1216 तथा 1254 के लेख उत्कीर्ण हैं। यह परमार कालीन कला के सुंदर उदाहरण हैं। शेष तीनों स्थलों की प्रतिमाएं सफ़ेद संगमरमर से निर्मित हैं।
जैन सरस्वती प्रतिमा लाडनू, नागौर
नागौर ज़िले के इस ऐतिहासिक क़स्बे के दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर में सफ़ेद मकराना संगमरमर से निर्मित लगभग साठे तीन फ़ुट, ऊँची अपूर्व सौदंर्यमयी सरस्वती की प्रतिमा मौजूद है। साहित्यकार भंवरलाल जांगिड़ ने इस मूर्ति के बारे में लिखा है कि त्रिभंग मुद्रा में कमलासन पर खड़ी इस मूर्ति पर उकेरे गए लेख इस प्रकार हैं, “संवत् 1219 वैशाख सूदी 3 शुक्रे ।। श्री माथुरसंघे।। आचार्य श्री अनंतकीर्ति भक्ति श्रेष्ठि बहुदेव पत्नी आसादेवी सकुटुम्ब सरस्वतीम् प्रणमति।। शुभमस्त।।” यह प्रतिमा अद्धितीय है तथा शोध की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण है।
इतिहासकार श्रवण सागर जैन संत के अनुसार जैन धर्म में वाग्देवी के रूप सरस्वती की मान्यता बहुत प्राचीन रही है। देवी सरस्वती को आगमिक ज्ञान की माता माना गया है। त्रिभंग मुद्रा अनुपम यष्टि एवं अलंकारिक प्रभा मंडल युक्त यह प्रतिमा अत्यंत आकर्षक है। इसके अलावा भव्य नाड़ी आभूषण, प्रलम्बहार तेष्ठित कंठा (गले में लम्बा हार ) , लटकते मुक्ताहार( मोतियों की माला) , मोतियों की जाल मुक्त मेखला (करधनी) सज्जित कटिबंद एवं झालरों युक्त वस्त्र शिला सौंदर्य की पराकाष्ठा है। खड़गासन की यह मूर्ति कलात्मकता, भव्यता, सौम्यता आदि गुणों से मुक्त है। निः संदेह यह एक विलक्ष्ण एवं उत्कृष्ट कलाकृति है। इस प्रतिमा के शीर्ष पर कई जिन प्रतिमाएं उत्कीर्ण की हुई है। सिर पर मुकुट कानों में कुण्डल, मोतियों का हार तथा सम्पूर्ण प्रतिमा आभूषणों से अलंकृत होने के साथ ही चारों भूजाओं में क्रमशः पुष्प, शास्त्र, माला और कमण्डल धारण किए हुए है। चारभुजा युक्त यह प्रतिमा चार अनुयोग का प्रतीक है। बारहवीं सदी की यह मूर्ति भावपूर्व मोहक मुद्रा एवं अद्भूत कला का संयोजन है।
इस मंदिर में सरस्वती प्रतिमा के पास दो अन्य प्राचीन पत्थर के फलक मौजूद हैं। एक फलक पर जैन परंपरा की सोलह विद्या देवियाँ उकेरी गई हैं। आचार्य बप्पभट्ट सूरि कृत चतुर्विशतिका के अनुसार इनके नाम रोहिणी, प्रज्ञाप्ति, वज्रश्रृंखला, वज्रांकुशा, जाम्बूनदा, पुरूषदत्ता, काली, महाकाली, गौरी, गांधारी, ज्वाला मालिनी, मानवी, वैरोटी, अच्युता, मानसी और महा मानसी हैं। इनका सृजन-काल बारहवीं सदी माना गया है। एक अन्य पत्थर पर आराधिका की खड़गासन प्रतिमा है जिसका परिकर पन्द्रह ध्यानस्थ जिन प्रतिमाओं से सज्जित है। भावपूर्ण मुद्रा एवं अप्रतिम नारी सौंदर्य मंडित मनोहर इस मूर्ति पर संवत् 1226 का एक शिला-लेख भी अंकित है।
पल्लू, हनुमानगढ़ की जैन सरस्वती
हनुमानगढ़ ज़िले के पल्लू गाँव से, ग्याहरवीं सदी की दो जैन सरस्वती प्रतिमाएं इटली के विद्वान द्वारा खोजी गई थीं। जिनमें से एक राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली तथा दूसरी गंगा राजकीय संग्रहालय बीकानेर की शोभा बढ़ा रही है। बीकानेर में प्रदर्शित मकराना के सफ़ेद पत्थर से निर्मित यह कृति मूर्ति-कला का नायाब नमूना है।
निरंजन कुमार पुरोहित के अनुसार चतुर्बाहु देवी ने अपने नीचे के दाहिने हाथ में माला और बायें हाथ में कमण्डल धारण कर रखा है एवं दाहिने हाथ में बड़ा ही सुंदर षोडशकमलदल (कमल की सोलह पंखुड़ियों वाला) और बायें हाथ में नौ इंच लम्बी सुंदर ताड़पत्रीय पुस्तक लिए हुए है। ग्रंथ को दोनों तरफ़ लकड़ी की तख़्ती के सहारे तीन जगह, डोरी की चार-चार लड़ियों से बांधा गया है। प्रतिमा का चेहरा शांत और कपड़े और गहने और बालों की सजावट बहुत ही आकर्षक तथा उस समय की समृद्ध आर्थिक स्थिति को दर्शाती है। विद्या की देवी सरस्वती की इस प्रतिमा को कला-विदों ने मध्यकालीन भारतीय मूर्तिकला की एक उत्कृष्ट कृति माना है।
श्री बावन जिनालय, सेवाड़ी, पाली ज़िला
भगवान महावीर स्वामी को समर्पित इस मंदिर में कई प्राचीन मुर्तियां स्थापित हैं। शोधार्थी जितेन्द्रसिंह बताते हैं कि यहां की देवी सरस्वती की प्रतिमा लगभग ग्याहरवीं सदी की मानी गई है। चौकोर आकार की इस मूर्ति की एक भुजा में रुद्राक्ष की माला, दूसरे में कमल, हंस का जोड़ा, तीसरे में पुस्तकों का समूह और चैथे में कमंडल अंकित हैं।
यह मूर्ति तक्षण कला से निर्मित है। इसी प्रकार वसन्तगढ़ से प्राप्त धातु की द्विभुज मूर्ति के एक हाथ में कमल और दूसरे में रुद्राक्ष की माला है। देवी सरस्वती के प्रति अटूट श्रद्धा, भक्ति और आस्था के कारण, जैन श्रेष्ठियों ने, इनकी कई मूर्तियां मूंगा, बिल्लोरी पत्थर सहित अन्य बहुमुल्य रत्नों से भी बनवाई थीं।
‘‘कुंदिंदु गोक्खीरतुसारवन्ना, सरोजहत्था कमले निसन्नाः वाअेसिरी पुत्थयवग्गहत्था, सुहाय सा अम्ह सया प्रसत्या।।’’
इस प्रकार भारतवर्ष में जैन सरस्वती मूर्तियाँ प्राप्त होने का गौरव राजस्थान प्रांत को है।
वसंत उत्सव की देवी सरस्वती
शास्त्रों के अनुसार देवी को श्री तथा बसंत पचंमी को इनका आविर्भाव दिवस एवं श्री पंचमी भी कहा जाता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार भगवती का ब्रह्मा के मुख से आविर्भाव हुआ था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार श्री कृष्ण के मुख से वीणा और पुस्तक लिए शुक्ल वर्ण की देवी विवर्तित हुई थी। श्री कृष्ण ने ही सर्वप्रथम माघ शुक्ल पंचमी के दिन सरस्वती पूजा का आरंभ किया था। इनके पश्चात ही अनेक देवों और मनुष्यों ने सरस्वती की पूजा की थी। इस प्रकार वसंत पंचमी के दिन पूजा अर्चना का विधान शुरू हुआ था।
इसी पंचमी से ही आरंभ होनेवाली ऋतु वसंत में प्रकृति में सत्त्वगुण का प्रभुत्व होता है, अतः प्राचीन काल में प्रचलित षोडश (सोलह) संस्कारों में एक विद्यारंभ संस्कार आज के दिन संपन्न होता है जो कालांतर में सरस्वती पूजन महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। मारवाड़ में इस दिन सभी लोग पीले वस्त्र धारण करके अपनी पगड़ी पर गेहूँ की टहनी लगाकर देवी की पूजा अर्चना करते है। महिलाएं अपने हाथों की चूड़ियों पर गेहूँ के ज्वारे लगाकर पूजन करती है।
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