‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ ये मुहावरा तो आप बचपन से सुनते आ रहे होंगे। इस मुहावरे में मनुष्य को ईश्वर की आराधना या किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सिर्फ़ मानसिक रूप से शुद्ध रहने की बात कही गई है। मगर क्या आप जानते हैं ,कि ये प्रसिद्ध बात किस महापुरुष ने कही थी?
यह महापुरुष थे…संत रविदास, जिनके विचार और कार्य आज के सामाजिक परिवेश में भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं, जितने उनके दौर में हुआ करते थे। इनके जीवन के अधिकाँश क़िस्से या तो रहस्य की चादर में ढके हैं, या दंतकथाओं के माध्यम से प्रचलित हुए हैं। मगर सबसे महत्वपूर्ण बात ये है, कि निम्नवर्गीय लोगों के हितों के लिए उन्होंने जो संघर्ष किया, वह आज अंतर्राष्ट्रीय और राजनैतिक स्तर पर उभरकर सामने आ चुका है!
संत रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा के दिन, चौदहवीं शताब्दी के अंत (कुछ तथ्यों के मुताबिक़ पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य) में वाराणसी के सीर गोवेर्धन में हुआ था । उनका ताल्लुक़ चमार समुदाय से था, जो चमड़े के सामान बनाने में माहिर था। दुर्भाग्यवश, इस समुदाय को समाज का निम्न र्ग माना जाता था, जिसके कारण इस समुदाय के लोगों के लिए मंदिरों में प्रवेश और यहां तक की गंगा-स्नान करना भी वर्जित था!
ये वो दौर था, जब उत्तर भारत में सल्तनत काल के डावांडोल होने के साथ-साथ जाति प्रथा और साम्प्रदायिकता अपने पैर पसार रही थी। वहीँ इस्लाम के विस्तार होने के कारण, अलगाव की दीवारें और भी मज़बूत हो रहीं थी। इन सबके बीच, निम्नवर्गीय लोगों के लिए सांस लेना मुश्किल हो गया था। इस अलगाव को दूर करने के लिए सूफ़ी संतों ने आध्यामिकता का एक मध्य मार्ग अपनाया, और इंसानियत को एक नया चेहरा देने की मुहिम शुरू की ।
ऐसे माहौल में संत रविदास के जीवन में बहुत बड़ा मोड़ तब आया, जब उन्होंने वाराणसी शहर का रुख़ किया। जूते बनाने की कला में कुशलता प्राप्त करने के बाद, वो साधुओं, फ़क़ीरों और सन्यासियों के लिए जूते मुहैया करवाने के व्यवसाय में जुट गए। इनकी संगत, संत रविदास के लिए बहुत लाभदायक साबित हुई, जिनसे उन्होंने धर्म, आध्यामिकता, जीवन, तप आदि का ज्ञान प्राप्त किया। इस ज्ञान से अलंकृत संत रविदास अब स्वयं को आज़ाद ख़्याल के चर्मकार मानने लगे थे और जीवन के स्थाई मूल्यों और अच्छे कर्मों के बारे में अपने विचारों को जन-मानस के साथ साझा करने लगे थे ।
अपने व्यवसाय के साथ-साथ संत रविदास अपने विचारों की वजह से वाराणसी में लोकप्रिय हुए। माना जाता है, कि संत रविदास कभी दान नहीं लेते थे और और अपने चमड़े के काम से ही गुज़ारा करते थे ।
मगर एक ‘चमार’ की लोकप्रियता वाराणसी के पंडितों को रास नहीं आ रही थी। बात यहाँ तक पहुंच गयी थी, कि कई पंडित, बनारस के राजाओं के सामने संत रविदास के ख़िलाफ़,उनकी जाति के आधार पर झूठी दलीलें पेश करने लगे थे। कहा जाता है, कि एक दिन शास्त्रार्थ के दौरान पंडितों ने रीति-रिवाजों के आधार पर अपने तर्क रखे । वहीँ संत रविदास ने आध्यामिकता और मानव कल्याण पर तवज्जो दिलाते हुए अपने विचार प्रकट किए, जिसके कारण वह पंडित उनके सामने फ़ीके पड़ गए। संत रविदास के विचारों से राजा इतने प्रभावित हुए, कि उन्हें अपने सोने के रथ पर बैठाकर पूरा नगर घुमाया । इस घटना का ज़िक्र हमें गुरु ग्रन्थ साहिब में भी मिलता है।
संत रविदास की सबसे बड़ी ख़ूबी ये थी कि उच्च-वर्ग के लोग, निम्न वर्ग के लोगों पर जो अत्याचार कर रहे थे, उसे उन्होंने अहिंसा और सद्भावना के माध्यम से मिटाने की कोशिशें कीं। वह कभी भी अपने विचारों को किसी पर लादना लाज़मी नहीं समझते थे। उनके इसी रवैये से मुख्यधारा के लोगों के साथ-साथ कई असरदार लोग जैसे मालवा के राजा पीपा, दिल्ली के सिकंदर लोधी, और चित्तोड़गढ़ की झाली रानी जैसी कई शाही तपके के लोग भी बेहद प्रभावित हुए। उनमें से कईयों ने संत रविदास के नाम पर कई मठों और मन्दिरों का निर्माण करवाया । मगर दुःख की बात ये है, कि उनमें से आज सिर्फ़ मुट्ठी भर ही सक्रिय रूप से मौजूद हैं।
संत रविदास के अनुयायियों में मीराबाई भी शामिल थीं, जिनके बारे में उन्होंने अपने गीतों में कुछ इस तरह लिखा है:
“गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी,
चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी।”
सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के दौरान उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन अपने चरम पर आने लगा था, जहां संत रविदास के साथ-साथ गुरु नानक, दादूदयाल और कबीर जैसे महान संतों के विचारों का भी विस्तार हो रहा था । इन संतों में एक–दूसरे के लिए बहुत सम्मान था और इनके बीच चर्चाएं भी होती रहती थीं, जहां आध्यामिकता, सामजिक व्यवस्था और मानव कल्याण जैसे गम्भीर विषयों पर ग़ौर किया गया जाता था। गुरू नानक, संत रविदास के विचारों से इतने प्रभावित हुए, कि उनकी गुफ़्गू का सार हमें गुरु ग्रन्थ साहिब में मिलता है। गुरू ग्रंथ साहिब में संत रविदास के चालीस भजन और एक दोहा मौजूद है।
भक्ति आन्दोलन ने उत्तर भारत के निम्न वर्गीय समुदाय में एक नई आस और क्रान्ति की भावना जगा दी थी। वो लोग ‘निर्गुण’ परम्परा को मानने लगे थे। इस आध्यात्मिक क्रान्ति ने उत्तर भारत में ‘रविदासिया’ पन्थ की स्थापना की, जो आज भी सक्रिय है। सन 2010 में सिखों का एक पंथ ‘रविदासिया डेरा’ के नाम से शुरू किया गया, जिन्होंने ‘अमृतबानी सतगुरु रविदास महाराज’ को अपना ग्रन्थ माना, जिसमें संत रविदास की क़रीब 200 रचनाएं मौजूद हैं।
संत रविदास ‘बेग़मपुरा’ के सिद्धांत को मानते थे, जिसका अर्थ है, वो नगर जहां किसी तरह का कोई ‘ग़म’ (दुख) नहीं हो। उनकी नज़र में इसे एक ऐसा नगर होना चाहिए, जहां किसी प्रकार की कोई पीड़ा या भेदभाव ना हो। वो वर्ग रहित समाज के निर्माण में यक़ीन रखते थे। दिलचस्प बात ये है, कि आज सीर गोवर्धन में मौजूद उनकी जन्मस्थली ‘बेग़मपुरा’ के नाम से ही मशहूर है!
भारतीय समाज में अपनी विशेष छाप छोड़ने वाले संत रविदास ने सन 1540 में दुनिया को अलविदा कहा। बताया जाता है, कि इनकी मृत्यु वाराणसी में आयु-सम्बन्धी बीमारियों से हुई थी तब उनकी उम्र 151 साल थी।
सामाजिक अन्याय के विरुद्ध संत रविदास के विचारों ने जिस पन्थ को जन्म दिया, वो आज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय है। भारतीय राजनैतिक पृष्ठभूमि में शायद ही कोई ऐसा संत होगा, जिसको संत रविदास की तरह यश प्राप्त हुआ हो। उनके विचारों के आधार पर निम्नवर्गीय लोगों के कल्याण पर संघर्ष आज भी जारी है।
संत रविदास के विचार, डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर जैसे महान समाज सेवकों के लिए भी प्रेरणास्त्रोत बनें। बाबा साहिब ने अपनी किताब ‘दि अंटचेबल्स’ में तमिल संत नंदनार और मराठी संत चोखामेला के साथ-साथ संत रविदास को भी उद्रित किया है। कई रविदासीया लोग, डॉ. आंबेडकर को संत रविदास का अवतार बताते हैं,क्योंकि उन्होंने भी सामाजिक दुराचार और अन्याय के ख़िलाफ़ अहिंसा और शिक्षा के बल पर लड़ाई लड़ने पर जोर दिया था । हाल ही में, गिन्नी माही और शाहिद माल्या जैसे कलाकारों ने गुरु रविदास पर जो गीत लिखे हैं, उन गीतों को आज के राजनैतिक माहौल में लोकप्रियता मिली है। हर माघ पूर्णिमा के दौरान, रविदास जयंती बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है।
मुख्य चित्र: कवर्स सेवेन
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