लेफ़्टिनेंट जनरल सगत सिंह ने सम्मान का वह तमग़ा हासिल किया था जो कोई भारतीय सैनिक बल्कि विश्व में कोई भी सैनिक हासिल नहीं कर सकता था। पुर्तगाल सरकार ने सगत सिंह को पकड़ने के लिए दस हज़ार डॉलर का इनाम रखा था। सगत सिंह ने गोवा में पुर्तगालियों का शासन समाप्त किया था।
सन 1961 में पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में सभी कॉफ़ी घरों और रेस्तरांओं में एक वांछित व्यक्ति के रुप में सगत सिंह के पोस्टर लगे हुए थे। लेकिन कोई भी उनको पकड़ नहीं सका और इस बहादुर सैनिक ने अपनी बाक़ी की ज़िंदगी पूरी आज़ादी से गुज़ारी ताकि वह दुनियां को बता सकें कि कैसे दिसंबर के एक भाग्यशाली दिन, उन्होंने और उनकी पैराशूट रेजीमेंट ने गोवा पर हमला बोल दिया था।
ऐसा नहीं कि सगत सिंह ने यही एकमात्र जीत हासिल की हुई हो। इस बहादुर सैनिक ने, जो एक होशियार रणनीतिज्ञ भी था और जो अपनी टीम के लिए ख़ुद मिसाल पेश करता था । सगत सिंह ने सन 1967 में चीन के साथ नाथू ला की झड़पों में और सन 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पुर्तगालियों से नाटकीय तरीक़े से पणजी छीनने के अलावा सगत सिंह को सन 1971 में हवाई ऑपरेशन के लिए भी जाना जाता है। उस ऑपरेशन में ढ़ाई हज़ार भारतीय सैनिक हेलिकॉप्टर से बांगलादेश में मेघना नदी के पार गेट ऑफ़ ढाका पर उतारे गए थे।
सगत सिंह का जन्म राजस्थान के शहर चुरु में, सन 1918 में हुआ था। उन्होंने सन 1938 में एक जूनियर अधिकारी के रुप में बीकानेर रियासत की सेना में नौकरी की शुरुआत की थी। उन्होंने बतौर सैनिक ईरान में भी रहे और फिर सन 1941 में सिंध प्रांत में हूर-विद्रोह (अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सूफ़ी समुदाय का विद्रोह) के समय भी अपनी सेवाएं दीं।
सन 1945 में सगत सिंह बीकानेर रियासत की सेना के ब्रिगेड मेजर बन गए थे। आज़ादी के बाद जब बीकानेर रियासत का भारतीय संघ में विलय हो गया तब रियासत की सेना को भी भारतीय सेना में शामिल कर लिया गया। भारतीय संघ में शामिल होने वाली बीकानेर पहली रियासत थी। इसके बाद सगत सिंह सन 1950 में भारतीय सेना की गोरखा रेजीमेंट में शामिल हो गए।
एक दशक के बाद उन्हें पदोन्नत कर भारत की एकमात्र (50वीं) छाताधारी ब्रिगेड (पैराशूट ब्रिगेड) का ब्रिगेड कमांडर बना दिया गया। इसके पहले ब्रिगेड के कमांडिंग ऑफ़िसर पैराट्रूपर्स ही होते थे लेकिन सगत सिंह रायफ़ल रेजीमेंट में एक पैदल सैनिक थे। वह पैराट्रूपर नहीं थे। तब उनकी उम्र भी 40 से ज़्यादा हो चुकी थी और कुछ ही अधिकारियों ने इतनी बड़ी उम्र में ऊपर से छलांग लगाना शुरु किया था।
बहरहाल सगत सिंह को छलांग लगाने से पहले सख़्त ट्रेनिंग लेनी पड़ी। उस परीक्षा में वह पूरे सम्मान के साथ पास हुए। भूरे रंग की गोल चपटी टोपी (मरुन बेरट) और पैरा विंग हासिल करने के बाद सगत सिंह को नवंबर सन 1961 में दिल्ली में रक्षा मंत्रालय के दफ़्तर बुलाया गया और उन्हें एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी सौंपी गई। उन्हें गोवा को, पुर्तगालियों से आज़ाद कराने के लिए, भारतीय सेना के अग्रिम दस्ते में शामिल किया गया।
ऑपरेशन विजय– भारतीय सेना ने गोवा को आज़ाद कराने की मुहिम का गुप्त नाम “ऑपरेशन विजय” रखा था जिसमें भारतीय सेना की तीनों शाखाएं थल, वायु और जल सेना शामिल थीं। वह ऑपरेशन तीन दिन तक चला। 11 दिसंबर सन 1961 को भारतीय सेना पणजी और मारमागाव (मौजूदा समय में मडगांव) पर कब्ज़े के लिए दो दिशाओं यानी उत्तर और पूर्व से गोवा में दाख़िल हुईं। जनरल सगत सिंह और उनके साथियों को पणजी पर कब्ज़ा करने का ज़िम्मा सौंपा गया था।
उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करते हुए सगत सिंह की ब्रिगेड ने नदी से होने वाली दिक़्कतों का सामना किया और बेड़े तथा स्थानीय नौकाओं से नदी पार की। उन्हें 19 दिसंबर को हवाई जहाज़ से पणजी में उतारा गया था। ऑपरेशन विजय के दौरान शहर में दाख़िल होने वाले सगत सिंह पहले सैनिक थे। एक रात पहले भारतीय सैनिकों ने पुर्तगाली सेनाओं को चारों तरफ़ से घेरकर उनसे आत्मसमर्पण करने को कहा था। अगले दिन गोवा की जनता ने मुक्तिदाता के रुप में सगत सिंह और उनके अर्ध-सैनिकों का स्वागत किया। ‘गोवा के मुक्तिदाता’ के रुप में सगत सिंह की ख्याति पुर्तगाल तक पहुंच गई जहां सरकार ने उनके सिर पर इनाम की घोषणा कर दी।
सन 1964 में सगत सिंह ने पैरा ब्रिगेड की कमांड छोड़ दी और उन्हें पदोन्नत कर मेजर जनरल बना दिया गया तथा 17वीं माउंटेन जिविज़न के प्रमुख के रुप में पूर्वोत्तर भारत भेज दिया गया। यहां उन्होंने वायु सेना से फिर अपने संबंध बनाए और ज़मीनी लड़ाई में वायु सेना की उपयोगिता तथा इसकी सामरिक क्षमता को समझना शुरु किया।
सगत सिंह पैदल सैनिकों को एक जगह से दूसरी जगह भेजने और ज़मीनी सैन्य अभियान में हेलिकॉप्टर के इस्तेमाल के क़ायल थे। वह इस अवधि के दौरान मिज़ो पहाड़ियों में विद्रोह-विरोधी अभियान में शामिल थे और उन्होंने मिज़ोरम में विद्रोह को ख़त्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके लिए उन्हें सन 1970 में परम विशिष्ट सेवा पदक से सम्मानित किया गया था।
नाथु ला का युद्ध: 1965 में चीन ने भारत पर सुरगाय (याक) जैसे जानवर चुराने का आरोप लगया जो चीन की सीमा से सिक्किम में घुस गए थे। सिक्किम में भारत के साथ लगी चीन की सीमा पर नाथु ला और जेलेप ला दर्रे के इलाकों में पांच हज़ार से ज़्यादा चीनी सैनिक तैनात कर दिए गए थे। सितंबर आते आते चीनी सैनिक सिक्किम के मुहाने पर आ गए
सगत सिंह ने अपने उच्च अधिकारियों को बताया कि अगर भारत को नाथु ला दर्रा छोड़कर जलविभाजक रेखा के पीछे हटना पड़ा तो चीन इस पर कब्ज़ा कर लेगा। इससे चीन का गंगटोक पर नियंत्रण हो जाएगा और वह सिलिगुड़ी गलियारे में घुस जाएगा जिसे चिकन्स नेक क्षेत्र कहते हैं (जो 25 कि.मी. चौड़ा है।)
सगत सिंह ऐसे फ़ैसले ले लेते थे जो उनके बड़े अधिकारियों को हमेशा पसंद नहीं आते थे। हालंकि भारतीय सैनिकों ने जेलेप ला क्षेत्र छोड़ दिया था लेकिन नाथु ला के ऊंचे इलाकों पर तब भी उनका नियंत्रण था। ये वो समय था जब सन 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध चल रहा था और चीन पूर्वी क्षेत्र में गड़बड़ी फैला रहा था।
सितंबर सन 1967 में भारतीय सैनिक सिक्किम में नाथु ला से लगी सीमा पर कटीले तारों की बाड़ लगाना चाहते थे जहां दोनों सेनाओं के बीच झड़पें होती रहती थीं। वहां सगत सिंह डिविज़न कमांडर के रुप में मौजूद थे। 11 सितंबर को चीनी सैनिकों ने भारतीय सैनिकों पर गोलियां चलाईं जो सीमा पर कंटीले तार लगा रहे थे। जवाब में सगत सिंह ने भी नाथु ला की रक्षा के लिए अपने जवानों को गोलियां चलाने का आदेश दिया।
युद्ध के मैदान में अवसरों को भुनाने में सगत सिंह माहिर थे और अगर उस दिन फ़ैसला लेने में देर हो जाती तो सन 1962 की पुनरावृत्ति हो सकती थी। सन 1962 में भारत और चीन के बीच हिमालई सीमा पर युद्ध हो चुका था। बहरहाल, चीनी बंकरों पर बमबारी की गई जिसमें चीनी सेना को काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा । इस बमबारी में 340 के क़रीब चीनी सैनिक मारे गए और 450 से ज़्यादा घायल हो गए। 14 सितंबर को चीन ने हवाई हमला करने की धमकी दी। इस धमकी से साफ़ था कि नाथु ला की लड़ाई में सगत सिंह के नेतृत्व में चीन को मुहंतोड़ जवाब मिला था।
सिल्हट (1971) बांग्लादेश मुक्ति-युद्ध में भारत का पहला हवाई ऑपरेशन- दिसंबर सन 1970 में सगत सिंह को पदेन्नत कर लेफ़्टिनेंट जनरल बनाकर तेज़पुर, असम भेज दिया गया। इसके बाद ही पाकिस्तान से बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान को मुक्त कराने के लिए) भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ।
सन 1971 में सगत सिंह को मेघना नदी के पश्चिम में पूरे पूर्वी पाकिस्तान के क्षेत्र की ज़िम्मेवारी सौंपी गई। मेघना बांग्लादेश में सबसे बड़ी नदियों में से एक है और इसे पार करने का एकमात्र ज़रिया रेल्वे पुल था जो उस समय पाकिस्तानी सेना के कब्ज़े में था। पुल का सबसे संकरा हिस्सा 3.6 कि.मी. चैड़ा था। पाकिस्तान सेना ने पुल को उड़ा दिया था ताकि भारतीय सेना, नदी के दूसरे तरफ़ यानी ढ़ाका न पहुंच सके । चूंकि सेना के इंजीनियरों को पुल की मरम्मत में बहुत समय लग सकता था, इसलिए लेफ़्टिनेंट जनरल सगत सिंह ने मेजर जनरल बी.एफ़. गोंज़ाल्विज़ के साथ मिलकर भारतीय सैनिकों और पाकिस्तानी सेना से लड़ रही बांग्लादेश की स्वतंत्र सेना मुक्ति-वाहिनी के सैनिकों को हवाई जहाज़ से उतारने का फ़ैसला किया।
सगत सिंह को मेघना नदी के पश्चिम की तरफ़ पूर्वी पाकिस्तान के क्षेत्र पर कब्ज़ा करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके कमांड वाले उत्तरी दिशा में यानी सिल्हट सेक्टर पर हमले का मक़सद दुश्मन के ज़्यादा से ज़्यादा क्षेत्रों पर कब्ज़ा करना था।
चांदपुर और दौड़कंदी पर आसानी से, बिना लड़ाई के कब्ज़ा कर लिया गया क्योंकि दुश्मन सेना को समझ में नहीं आ रहा था कि भारतीय सैनिक कहां हैं इसलिए उन्होंने लड़ने के बजाय वहां से हट जाना ही बेहतर समझा। सात दिसंबर की शाम तक चांदपुर भारतीय सेना के हाथ आ गया और सगत सिंह को अकेले, अपने दम पर चांदपुर पर कब्ज़ा करने का श्रेय मिला। क्षेत्र की निशानदेही के बाद 9 दिसंबर तक नौ हेलिकॉप्टरों ने 60 उड़ाने भरकर 584 सैनिकों को मेघना नदी के पार उतार दिया। 14 दिसंबर को दौड़कंदी पर कब्ज़ा हो गया। सगत सिंह ने सिल्हट के युद्ध में भारत के पहले हवाई हमले को सफलतापूर्वक अंजाम दिया था। जब ढ़ाका में पाकिस्तान के जनरल नियाज़ी ने आत्मसमर्पण दस्तावेज़ पर दस्तख़त किए तब सगत सिंह भी वहां मौजूद थे।
देश की विशिष्ट सेवाओं के लिए सगत सिंह को भारत सरकार ने सन 1976 में देश का तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। सन 2018 की बॉलीवुड फ़िल्म “पलटन” में अभिनेता जैकी श्राफ़ ने सगत सिंह का किरदार निभाया था। ये फ़िल्म नाथु ला और छोला ला में सन 1967 में हुई झड़पों पर आधारित थी।
26 सितंबर सन 2001 को दिल्ली के सैनिक अस्पताल में लेफ़्टिनेंट जनरल सगत सिंह का, 82 साल की उम्र में निधन हो गया। वह एक ऐसे निर्भीक सैनिक थे जिनके कारनामों को दोहराना बहुत मुश्किल होगा
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