मैंने कहा: प्यार? उधार?
स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे
अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार।
उस अनदेखे अरूप ने कहा: “हाँ,
क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं—
यह अकेलापन, यह अकुलाहट,
यह असमंजस, अचकचाहट,
आर्त अनुभव,
यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय
विरह व्यथा,
यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना
कि जो मेरा है वही ममेतर है
यह सब तुम्हारे पास है
तो थोड़ा मुझे दे दो—उधार—इस एक बार—
मुझे जो चरम आवश्यकता है।
–उधार / अज्ञेय
ये पंक्तियां “उधार” नामक एक सुंदर कविता की हैं । यह कविता सच्चिदानंद वात्स्यायन ने लिखी थी। सच्चिदानंद को “अज्ञेय” नाम से जाना जाता है। अज्ञेय हिंदी के प्रमुख साहित्यकारों में से एक थे, जिन्होंने पारंपरिक रास्ते से हटकर एक नई परिपाटी शुरु की जिसे “प्रयोगवाद” के नाम से जाना जाता है।
सच्चिदानंद का जन्म 7 मार्च सन 1911 में कुशीनगर के एक टेंट में हुआ था । उनके पुरातत्वविद पिता हीरानंद शास्त्री, उन दिनों खुदाई करने वाले एक दल के साथ कुशीनगर में थे। कुशीनगर वो प्रसिद्ध स्थान है, जहां भगवान बुद्ध ने अंतिम सांस ली थी और जहां उन्हें महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ था।
सच्चिदानंद, कम उम्र से ही अपने परिवार के साथ, एक स्थान से दूसरे स्थान जाते रहते थे। क्योंकि उनके पिता का पेशा ही कुछ ऐसा था। वह हर महीने एक नए नगर और एक नई जगह का अनुभव करते थे। इस तरह की जीवन शैली का सच्चिदानंद के मानसिक विकास पर बहुत प्रभाव पड़ा। उन्होंने इस दौरान कई भाषाएं सीखीं और कई संस्कृतियों को भी जाना। सन 1925 में पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास करने के बाद उन्होंने विज्ञान में माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में दाख़िला ले लिया और अंत में लाहौर के फ़ोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज से बैचलर की डिग्री हासिल की।
हालंकि उन्हें गणित और विज्ञान विषयों में दिलचस्पी थी लेकिन साहित्य के प्रति रुझान की वजह से उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. करने के लिए दाख़िला ले लिया। लेकिन वह पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वह स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। वह क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बन गए। चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे उनके अन्य साथियों ने उन्हें दिल्ली में मिलने और बम बनाने में संगठन की मदद करने को कहा।
लेकिन जल्द ही उनका नाम पुलिस की ब्लैकलिस्ट में आ गया। आरोप था कि उन्होंने जेल से भागने में भागत सिंह की मदद करने की, कोशिश की थी। इसी आरोप में, नवंबर सन 1930 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। 19 साल के सच्चिदानंद को चार वर्ष के कारावास की सज़ा हुई।
लेकिन इससे हिम्मत हारने के बजाय सच्चिदानंद, अपनी नवजवानी के इस दौर में, अपने लेखन पर ध्यान देने लगे। उन्होंने कई कविताएं और कहानियां लिखीं जो हंस पत्रिका में प्रकाशित हुईं जिसका संपादन मुंशी प्रेमचंद करते थे। इसी दौरान, दिलचस्प अंदाज़ में उनका उपनाम अज्ञेय तय हुआ। सच्चिदानंद अपनी कहानियां हिंदी के शिखर कहानीकार जैनेद्र को भेजा करते थे। चूंकि वह जेल में थे इसलिए उनकी रचनावों के साथ उनका नाम इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था। इसलिए जैनेद्र उनकी कहानियां ये कहकर प्रेमचंद को भेज दिया करते थे कि लेखक का नाम अज्ञेय(अज्ञात) है।
उनका पहला काव्य-संग्रह “भग्नदूत” सन 1933 में प्रकाशित हुआ तब भी वह जेल में थे।
मैं मिट्टी का दीपक, मैं ही हूँ उस में जलने का तेल,
मैं ही हूँ दीपक की बत्ती, कैसा है यह विधि का खेल!
तुम हो दीप-शिखा, मेरे उर का अमृत पी जाती हो-
जला-जला कर मुझ को ही अपनी तुम दीप्ति बढ़ाती हो।
–तुम और मैं (भग्नदूत) / अज्ञेय
अज्ञेय की अधिकतर कविताएं एकाकीपन में स्वयं को खोजने का तीव्र प्रयास हैं। वह अपने भीतर के कलाकार को लेकर हमेशा सजग थे और इसलिए एक ख़ास अंदाज़ और शैली में बात करते थे विनम्रता ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा। वह राष्ट्रीय कवि मैथली चरण गुप्त को अपना गुरु मानते थे।
जेल ने में रहते हुए ही अज्ञेय ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास “शेखर: एक जीवनी” का मसौदा तैयार कर लिया था। ये उपन्यास शेखर नामक एक ऐसे क्रांतिकारी के बारे में है जो अपने अतीत में डूबा हुआ था और फांसी के, एक रात पहले भावनात्मक पीड़ा से गुज़र रहा था।ये उपन्यास जेल में अज्ञेय के निजी अनुभवों पर आधारित था। सन 1934 में जेल से रिहाई के बाद अज्ञेय ने एक पत्रकार के रुप में, चंद अख़बारों के लिए भी काम किया जिनमें विशाल भारत, पत्रिका, वाक और नवभारत टाइम्स जैसे समाचार-पत्र शामिल थे। वह दिनमान के संस्थापक संपादक थे जिसकी रिपोर्टिंग और लेखों ने हिंदी पत्रकारिता में एक नए पैमाने स्थापित किए। अज्ञेय कभी भी सच बोलने और प्रशासन की आलोचना करने से पीछे नहीं हटे। बिहार के भयावह अकाल के समय लिखे गए उनके लेख और रिपोर्ताज़, जन-समर्थक पत्रकारिता में, मील-पत्थर माने जाते हैं।
अज्ञेय की लेखन शैली पर उनकी विदेश यात्राओं का भी बहुत प्रभाव पड़ा, ख़ासकर उनकी जापान-यात्रा से, जहां उन्होंने बौद्ध धर्म की ज़ैन विचारधारा के बारे में अध्ययन किया। उन्हें अतिथि-प्रोफ़ेसर के रुप में कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले भी आमंत्रित किया गया था।
इस दौरान अज्ञेय पूरे भारत में, विशेषकर उत्तर प्रदेश के साहित्यिक हलक़ों में काफ़ी सक्रिय रहे। सन 1956 में उन्होंने भारतीय शास्त्रीय नृत्य और कला इतिहास की प्रसिद्ध विद्वान कपिला वात्सायन से विवाह किया, जो उनकी दूसरी पत्नी थीं।
अज्ञेय प्रयोगवादी थे और “तारसप्तक” के रुप में उन्होंने हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण योगदान किया। तारसप्तक पत्रिका जिसका संपादन और प्रकाशन अज्ञय ने ख़ुद किया था। तारसप्तक में कुल सात नए कवियों की कविताएं होती थीं।उसमें अज्ञय की कविताए भी होती थीं। अज्ञय ने हिंदी कविता में प्रयोगवाद आंदोलन की शुरुआत की नई कविता ते नाम से एक नया रुझान शुरु किया। उनकी कविताओं का मक़सद प्रगतिशीलता के जनवादी दृष्टिकोण का विरोध करना था।
प्रयोगवादी कवियों ने काव्य के भावपक्ष और कलापक्ष दोनों को महत्व दिया। अज्ञेय अपने लेखन में बौद्धिक पक्ष के लिए जाने जाते थे और उन्होंने कविता, कहानी, आलोचना या फिर पत्रकारिता, जो भी विधा हो, उसमें अपनी विशेष छाप छोड़ी। 4 अप्रैल, सन 1987 को अज्ञय का देहांत हो गया था। लेकिन वह अपनी महत्वपूर्ण विरासत छोड़ कर गए हैं।
अज्ञेय एक ऐसे लेखक थे जो मात्र एक व्यक्ति से कहीं अधिक एक संस्थान थे। उनकी काव्यात्मक संवेदना की ताज़गी और प्रकृति तथा मनुष्य की समझ ने, ऐसी नवीनता पैदा की जिसका हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। साहित्य में उनके योगदान को पूरे दिल से सराहा भी गया । सन 1964 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरुस्कार और सन 1978 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।
उड़ चल, हारिल, लिये हाथ में यही अकेला ओछा तिनका।
ऊषा जाग उठी प्राची में-कैसी बाट, भरोसा किन का!
शक्ति रहे तेरे हाथों में-छुट न जाय यह चाह सृजन की;
शक्ति रहे तेरे हाथों में-रुक न जाय यह गति जीवन की!
-उड़ चल, हारिल / अज्ञेय
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