ये एक ऐसा यंत्र है जिसका संबंध राजस्थान के चारण और लोक संगीतकारों से रहा है। लेकिन क्या आपको पता है कि तारोंवाला वाद्ययंत्र रावणहत्था रामायण के खलनायक रावण ने ईजाद किया था? लोक-कथा के भीतर भी एक और दिलचस्प कहानी है । महत्वपूर्ण बात ये है कि सारे विश्व के संगीत से संबंधित इतिहासकारों का मानना है कि रावणहत्था एक प्राचीन वाद्ययंत्र है। कुछ का दावा है कि सीधे सादे तारोंवाला ये वाद्य-यंत्र आधुनिक वायलिन का जनक है।
रावणहत्था एक चिकारा है जिसे राजस्थान और गुजरात में चारण और नायक समुदाय के लोक-गायक बजाते हैं। भोपा नाम से प्रचलित इस वाद्य-यंत्र को लोक-गायक राजस्थान की रैबारी या बंजारा समुदाय की लोक देवी के सम्मान में धार्मिक विषयों पर आधारित गानों के साथ बजाते हैं। राजस्थान में 32 से ज़्यादा बंजारा अथवा अर्ध-बंजारा समुदाय हैं। इन सबकी अपनी ख़ास सांस्कृतिक पहचान और परंपराएं हैं। रैबारी पशुपालक होते हैं और उनका विश्वास है कि उन्हें भगवान शिव ने पार्वती के ऊंटों की देखभाल के लिये भेजा था।
रावणहत्था वाद्य-यंत्र बांस का बना होता है जिसके एक सिरे पर नारियल का ख़ोल लगा होता है । वह बकरी की चमड़ी से ढ़का रहता है। वाद्य-यंत्र के तार घोड़े के बाल के होते हैं जिसे लकड़ी के धनुष (मिजराब) से छेड़ा जाता है।
रावणहत्था शब्द “रावण हस्त वीणा” का बिगड़ा हुआ रुप है। लोक-कथाओं के अनुसार लंका-नरेश रावण शिव का बहुत बड़ा भक्त था और वह रावणहत्था बजाकर शिव की पूजा करता था। माना जाता है कि भगवान राम के हाथों रावण के मारे जाने के बाद हनुमान लंका से रावणहत्थाअपने साथ भारत ले आए थे। लेकिन श्रीलंका में इस तरह के किसी वाद्ययंत्र के अस्तित्व का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है।
मिथक और लोक-कथाओं से परे संगीत वैज्ञानिकों और इतिहासकारों के बीच रावणहत्था वाद्य-यंत्र को, जो बात महत्वपूर्ण और दिलचस्प बनाती है वो ये है कि ये उन प्राचीन वाद्य-यंत्रों में से एक है जिसे मिज़राब से बजाया जाता था। विलियम सेंडीज़ की “ द हिस्ट्री ऑफ़ वायलिन और ज्योफ़्री अल्विन” की “द वायलिन एंड इट्स स्टोरी” जैसी संगीत पर 19वीं और 20वीं शताब्दी में प्रकाशित किताबों के अनुसार रावणहत्था जिसे वे “रावणस्ट्रोम” कहते थे, से ही आधुनिक वायलिन की उपज हुई थी।
बहरहाल, इसे लेकर इतिहासकारों की अलग अलग राय है। संगीत वैज्ञानिक वर्नर बैकमन ने अपने, 1969 के शोध-पत्र “ द ओरीजिन ऑफ़ बोइंग” में लिखा कि मिज़राब से किसी वाद्ययंत्र को बजाने का उल्लेख दसवीं शताब्दी के बाद से ही मिलता है वो भी यूनानी और अरब साम्राज्यों के क्षेत्रों से।
भारत में रावणहत्था का आरंभिक शाब्दिक उल्लेख भरतभास्य निबंध में मिलता है जो बिहार में मिथिला में रहने वाले नान्यदेव (1094-1133) ने लिखा था। इस वाद्ययंत्र का ज़िक्र 17वीं शताब्दी की तमिल कवयित्री रमाभद्रांभा के निबंधों में भी है। उन्होंने तंजोर दरबार में महिला संगीतकारों द्वारा इस वाद्ययंत्र को बजाने का उल्लेख किया है। सन 1711 में ट्रांक्यूबार के जर्मन धर्म प्रचारक बर्थोलोमस ज़ीगेनबाल्ग ने मलाबार के वाद्य-यंत्रों पर लिखी अपनी किताब में इसका उल्लेख किया है।
लीडन विश्वविद्यालय के संगीत के प्रोफ़ेसर और संगीत-विज्ञानिक के जोप बोर ने भी रावणहत्था का गहरा अध्ययन किया है। उन्होंने अपने शोध “रावणहत्था:ए म्यूज़ीकोलोजिकल पज़ल” में कहा है कि रावणहत्था भारत में 12वीं शताब्दी के पहले कभी लोकप्रिय हुआ था लेकिन शुरु से ही ये वाद्ययंत्र संगीत वाद्ययंत्र की मुख्यधारा से अलग थलग रहा । इसे शास्त्रीय वाद्य-यंत्र नहीं बल्कि भिखारियों का वाद्य-यंत्र माना जाता था। सदियो के दौरान इस वाद्य-यंत्र का प्रयोग और कम होता गया। ये राजस्थान और गुजरात के बंजारों का वाद्ययंत्र होकर रह गया।
एक समय रावणहत्था बंजारों तक ही सीमित था लेकिन आज लोक-कला और संगीत की लोकप्रियता की वजह से रावणहत्था वाद्य-यंत्र को लोकप्रिय पर्यटक स्थलों, होटलों टीवी विज्ञापनों और भारतीय टेलीविज़न के रियलिटी शो में भी सुना जा सकता है।
आज भी इस वाद्य-यंत्र के सरल सुरों का आनंद लेनेवालों को शायद ही पता होगा कि इसे इतना सुरीला बनाने में परत-दर-परत, कितनी मंज़िलें तय करनी पड़ी होंगी।
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