कई भवन और स्मारक ऐसे होते हैं जहां से हम बस यूं ही गुज़र जाते हैं लेकिन हमें ये नहीं पता होता कि इनके साथ इतिहास की कितनी दिलचस्प कहानियां जुड़ी रहती हैं और जब हमें इनके बारे में पता चलता है तो हम भौचक्के से रह जाते हैं।
कर्नाटक के धारवाड़ शहर में अंग्रेज़ों के ज़माने का एक शानदार बंगला है जो आज उपायुक्त का सरकारी निवास है। ये बंगला औपनिवेशिक युग की निशानियों में से एक है। सन 1820 में बनी यह भव्य इमारत हमेशा से लोगों के आकर्षण का केंद्र रही थी। सभी लोग जहां इस बंगले के बारे में जानते हैं, वहीं कई लोगों को ये नहीं मालूम कि इस बंगले के साथ इतिहास संबंधी एक दिलचस्प कहानी भी जुड़ी हुई है।
बंगले में एक छोटा-सा कमरा है जिसका संबंध कित्तूर की रानी चेनम्मा से है। चेनम्मा पहली भारतीय रानी थीं जिन्होंने ताक़तवर अंग्रेज़ों से लोहा लिया था जो उनके साम्राज्य को हड़पना चाहते थे।
इसी कमरे में चेनम्मा को कुछ दिनों के लिए बंदी बनाकर रखा गया था। अंग्रेज़ों से कित्तूर का दूसरा युद्ध हारने के बाद चेनम्मा को बंदी बनाया गया था। उन्हें यहां मुक़दमें की सुनवाई के लाया गया था और बाद में उम्र क़ैद की सज़ा होने पर उन्हें बैलहोंगल भेज दिया गया था।
कित्तूर, जो आज इसी नाम से बेलगावी (बेलगाम) ज़िले में एक तालुक का मुख्यालय है, धारवाड़ से 30 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। कित्तूर महत्वपूर्ण रियासतों में से एक थी जिस पर लिंगायत देसाई परिवार का शासन होता था। मराठा साम्राज्य के साथ निकट संबंध होने की वजह से 17वीं और 18वीं सदी में ये राजवंश बहुत फलाफूला था। सन 1785 में मैसूर और मराठों के बीच दुश्मनी के दौरान टीपू सुल्तान ने कित्तूर के शासक मल्लसर्ज को हराकर उन्हें बंदी बना लिया था। बाद में उन्हें रिहाकर फिर कित्तूर का शासक बहाल कर दिया गया। मराठा साम्राज्य के पतन के बाद कित्तूर के अंग्रेज़ों के साथ मधुर संबंध हो गए थे।
ये अनजान-सी रियासत तब सुर्ख़ियों में आई जब इसने शक्तिशाली अंग्रेजों की विस्तारवादी नीतियों का विरोध किया। दुश्मनी तब औऱ बढ़ गई जब सन 1824 में, मल्लसर्ज का निधन हो गया। उनका कोई वारिस नहीं था । तभी उनके पुत्र का भी निधन हो चुका था और चेनम्मा को मजबूरन एक लड़का गोद लेना पड़ा। लेकिन धारवाड़ में अंग्रेज़ों के राजनीतिक एजेंट जॉन ठाकरे ने दत्तक पुत्र को क़ानूनी उत्तराधिकारी के रुप में मान्यता देने से इंकार कर दिया और 16 लाख रुपये के मूल्य वाले ख़ज़ाने और ज़ेवरात सौंपने का आदेश दे दिया। लेकिन चेनम्मा ने आदेश मानने से इनकार कर दिया जिसकी वजह से राजनीतिक संकट पैदा हो गया। ठाकरे ने क़िले और ख़ज़ाने पर कब्ज़े के लिए कित्तूर की तरफ़ कूच किया लेकिन उसे कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। ऐसी स्थिति में अक्टूबर सन 1824 को कित्तूर का पहला युद्ध हुआ। युद्ध मैदान में जहां ठाकरे मारा गया, वहीं दो अन्य अंग्रेज़ अफ़सर वॉल्टर इलियट और स्टीवनसन को बंदी बना लिया गया।
पूरा क्षेत्र अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हो गया और रानी चेनम्मा अंग्रेज़ों की औपनिवेशिक नीतियों के, विरोधी के प्रतीक के रुप में उभर के सामने आईं। लेकिन अंग्रेज़ों ने कित्तूर के लिए और भी ज़्यादा सैनिक भेज दिए। दिसंबर सन 1824 की जंग में रानी हार गईं और उन्हें बंदी बना लिया गया। विदेशियों से लड़ने के लिए स्वयं आगे आए स्थानीय लोगों में आज़ादी की भावना जगाने के बावजूद चेनम्मा को हार का मुंह देखना पड़ा।
आप इस बात से स्थिति की गंभीरता का अनुमान लगाया जा सकता है कि अंग्रेज़ों को विद्रोह कुचलने के लिए बीस हज़ार सैनिकों की टुकड़ी भेजनी पड़ी थी। रानी की हार का एक प्रमुख कारण उनका ख़ुद का एक ग़द्दार आदमी मलप्पा शेट्टी भी था जिसने तोप में इस्तेमाल होने वाली बारुद में गाय का गोबर और मिट्टी मिला दी थी। आज भी इस क्षेत्र में मलप्पा शेट्टी का नाम ग़द्दारी का प्रतीक बन गया है।
इसके बाद मुक़दमें की सुनवाई के लिए रानी चेनम्मा को धारवाड़ लाया गया जहां उन्हें उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई गई। मुक़दमे के दौरान उन्हें इसी बंगले में रखा गया था।
लेकिन कहानी की रहस्यमय बात ये है कि ये कमरा, जो मुख्य भवन के एक कोने में है, अब भी वैसा ही है जैसा 196 साल पहले था। इस दौरान भवन के अन्य हिस्सों की कई बार मरम्मत हो चुकी है लेकिन ये कमरा ज्यों का त्यों है। कमरे का फ़र्श, छत और यहां तक कि दीवारों को भी नहीं छुआ गया है। इसका कारण किसी को पता नहीं है। आज भी इस कमरे को, जहां दो-तीन लोग रह सकते हैं, किसी और काम के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया है। लेकिन कमरे की रोज़ाना सफ़ाई होती है और यहां ताला नहीं लगाया जाता है जैसा किसी ज़माने में होता था।
धारवाड़ के पूर्व उपायुक्त और वरिष्ठ भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी दर्पण जैन ने लेखक को बताया कि कमरे को रानी चेनम्मा की याद में संजोकर रखा गया था।
हालंकि इस कहानी की ऐतिहासिक तौर पुष्टी नहीं हुई है लेकिन वरिष्ठ शोधकर्ता और कर्नाटक विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर आर.एम. शदक सरैया का कहना है कि ऐसा माना जाता है कि बैलाहोंगल में उम्र क़ैद की सज़ा दिए जाने के पहले रानी और उनके रिश्तेदार वीरम्मा तथा जानकीबाई को यहां रखा गया था। लेकिन कमरे को क्यों नहीं छुआ गया, इसके बारे में कुछ पता नहीं चलता ।
धारवाड़ के बुज़ुर्ग लोगों का कहना है कि किन्हीं कारणों से कमरे को काफ़ी समय तक बंद रखा गया था और इसका एक कारण ये था कि इसका सम्बंध भूत-चुड़ैलों से माना जाता था। इस कमरे को आज़ादी मिलने के बाद ही खोला गया था। अब इसे भुतहा नहीं माना जाता है। बाद में कमरे की दीवार पर रानी का छाया-चित्र लगाया गया और तब से यहां रहने वाले उपायुक्त स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर पहले इस तस्वीर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, उसके बाद मुख्य समारोह में जाते हैं।
ये बात अजीब-सी लग सकती है कि चेनम्मा और उनके जीवन के बारे में काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है लेकिन अभी तक इतिहासकार इस कहानी के तार नहीं जोड़ पाए हैं। हो सकता है कि अभिलेखागार के अध्ययन और गहरी जांच-पड़ताल से रानी चेनम्मा के साथ जुड़े रहस्यों से पर्दा हमेशा के लिए उठ जाए और यह भी हो सकता है कि नई खोज से हमारे स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक नया अध्याय भी जुड़ जए।
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