ये 25 जून सन 1975 की बात है। दिल्ली के रामलीला मैदान में हज़ारों लोग जमा थे। इंदिरा गांधी की सरकार (कांग्रेस) के ख़िलाफ़ एकजुट होने के जयप्रकाश नारायण(जेपी) के आव्हान पर देश के लोग उनके पीछे खड़े हो गए थे। जैसे ही जयप्रकाश नारायण ने मंच से कहा, ‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है’, सारा रामलीला मैदान तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। ये विचारोत्तेजक युद्धनाद लोगों के दिलों में पहले से ही घर चुका था। ये जन समूह इन पंक्तियों को लिखने वाले कवि की वजह से ही वहां एकत्र हुआ था जिनका हवाला जेपी ने अपने भाषण में दिया था। इस दिन से पहले 25 वर्ष पूर्व रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी कविता ‘जनतंत्र का जन्म’ भारत को समर्पित की थी। उस दिन भारत स्वतंत्र गणराज्य बना था। जेपी अपने गुरु महात्मा गांधी की तरह एक होशियार नेता थे जिन्हें पता था कि लोगों के दिलों में कैसे घर किया जाता है। वह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासन के ख़िलाफ़ दिनकर की कविता की पंक्तियों का इस्तेमाल कर रहे थे।
उसी रात इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी।
वो काला दिन देखने के लिये दिनकर तो जीवित नहीं थे लेकिन विद्रोह और देशभक्ति से भरी उनकी कविता ने लोगों को आपातकाल के ख़िलाफ़ एक साथ ला खड़ा किया।
दिनकर जिन्हें आज राष्ट्रीय कवि माना जाता है। रामधारी सिंह दिनकर का जीवन और साहित्य उनके संघर्ष और उनकी देशभक्ति की भावना को दर्शाता है। उनका और भारत के स्वतंत्रता सैनानियों की एक पीढ़ी का एक ही सपना था-कल्याणकारी और समावेषी भारत का निर्माण।
दिनकर का जन्म 23 सितम्बर सन 1908 को , बिहार के सिमरिया गांव में हुआ था, जो आज बिहार के बेगुसराय ज़िले में है। उनके परिजन किसान थे और उनका बचपन ग़रीबी में बीता। उनकी ग़ुरीबी को लेकर एक क़िस्सा बहुत प्रसिद्ध है। दिनकर स्कूल में पूरा दिन पढ़ाई नहीं कर पाते थे। उन्हें बीच में से ही स्कूल छोड़ना पड़ता था क्योंकि उन्हें अपने गांव जाने वाला अंतिम स्टीमर पकड़ना होता था। उनके पास हॉस्टल में रहने के लिए पैसे नहीं होते थे। तमाम मुश्किलों के बावजूद वह मेघावी छात्र थे और उन्होंने हिंदी,मैथली, उर्दू, बांग्ला और अंग्रेज़ी भाषाएं सीखीं।
दिनकर ने सन 1929 में पटना विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया। ये वो समय था जब पूरे देश में बदलाव की लहर चल रही थी और वह भी इससे अछूते नहीं रहे। स्वतंत्रता आंदोलन ज़ोर पकड़ चुका था और जल्द ही दिनकर देशभक्ति और उनके आसपास जो घटित हो रहा था, उसे लेकर कविताएं लिखने लगे। उदाहरण के लिये उन्होंने गुजरात में सरदार पटेल के नेतृत्व वाले किसानों के सत्याग्रह के सम्मान में विजय संदेश नामक कविता लिखी। तब इस “सत्याग्रह को बारदोली” सत्याग्रह के नाम से जाना जाता था।
समय के साथ दिनकर एक लोकप्रिय लेखक बन गये और हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी साहित्यिक कृतियां पाठक पसंद करने लगे थे। उन्होंने अपनी सरल और दो टूक शैली से कविता को फिर से जन जन में पहुंचा दिया। सन 1935 में उनकी कविताओं का संकलन रेणुका प्रकाशित हुआ जिसकी एक प्रति महात्मा गांधी को भी भेंट की गई।
उनकी कविताएं सिर्फ़ राष्ट्रवादी भावनाओं से ही नहीं भरी रहती थीं बल्कि उन्होंने जटिल-विश्व और आज़ादी के लिये छटपटा रहे देश (भारत) में नैतिक दुविधा को लेकर भी कविताएं लिखीं। उन्होंने हिंसा बनाम अहिंसा और युद्ध बनाम शांति जैसे विषयों पर भी लिखा। इन विषयों पर लिखी गईं कविताओं का उनका संग्रह कुरुक्षेत्र सन1946 में छपा जिसमें उन्होंने लगातार हो रहे अत्याचार और अन्याय के माहौल में अहिंसा के सिद्धांत पर सवालिया निशान लगाया था।
आज़ादी के बाद दिनकर की कविताओं में एक नया मोड़ आया। वह सत्ता से लगातार ये प्रश्न पूछने लगे कि भारतीय होने का अर्थ क्या है? वह आज़ादी के बाद के वातावरण से दुखी थे और उन्हें जल्द ही लगने लगा कि पुराने औपनिवेशिक शासकों की जगह नए औपनिवेशिक शासक आ गए हैं क्योंकि ग़रीबी, अन्याय और अत्याचार तब भी जारी था। ‘नये भारत’ में उन्होंने आसमानता और शोषण देखा और उसके बारे में व्यंग लिखे।
ऐसा नहीं कि दिनकर ने हमेशा आलोचना और विद्रोह को ही अपना विषय बनाया हो। उन्होंने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पुस्तक भी लिखी जिस पर उन्हें सन 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। इस पुस्तक में उन्होंने आर्यों के आगमन, वेदिक पूर्व समय में विकास, बुद्ध और महावीर के दर्शन और भारत में इस्लाम के प्रवेश तथा इसका भारत की भाषा और कला पर प्रभाव तथा यूरोपीयों के आने के साथ औपनिवेशिक व्यवस्था जैसे विषयों के ज़रिये भारत की संस्कृति को देखने की कोशिश की।
“उर्वशी’ दिनकर की वो रचना थी जिसके लिये उन्हें सन 1973 में प्रतिष्ठित भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। दिनकर की ये छायावादी रचना उनकी पूर्व की साहित्यिक रचनाओं से एकदम अलग थी। इसमें उन्होंने प्रेम, अनुराग और स्त्री तथा पुरुष के बीच संबंधों के बारे बात करते हुए मानवीय मनोभावों के रहस्य को जानने की कोशिश की।
सन 1952 में दिनकर को राज्य सभा में मनोनीत किया गया। वह सन 1964 तक दो बार राज्यसभा के सदस्य रहे। सन 1959 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। वह बिहार के भागलपुर विश्वविद्यालय के उप-कुलपति भी रहे। 66 वर्ष की आयु में, सन 1974 में उनका निधन हो गया।
किसे पता था कि उनके निधन के एक साल बाद ही, दिल्ली के रामलीला मैदान में, अन्याय के विरुद्ध जनता को जगाने के लिये, एक बार फिर उनकी काव्य पंक्तियों का इस्तेमाल किया जाएगा। शायद किसी कवि को याद करने का इससे बेहतर तरीक़ा कोई और नहीं हो सकता वो भी एक ऐसा कवि जिसने हमेशा निडर होकर देश को आईना दिखाया।
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