राजनगर -बिहार का इतालवी लुटियन्स

उत्तर बिहार के एक शहर में झाड़-झंखाड़ के बीच ऐसे भव्य और यादगार अवशेष हैं जो कभी बिसरा दी गई शाही राजधानी के हिस्सा हुआ करते थे। ये अवशेष कोई मामूली अवशेष नहीं हैं। इस शाही-परिसर की डिज़ाइन यूरोपीय शैली की थी लेकिन इसमें भारतीय वास्तुकला का भी पुट था। परिसर में एक विशाल महल, एक सचिवालय, प्रशासनिक भवन, कई मंदिर, लंबे धारीदार स्तंभ, ऊंचे भित्ति स्तंभ, सजावट वाले गुंबद, नक़क़ाशीदार बरामदे और कंगूरेदार मेहराबें हुआ करती थीं।

हम राजनगर में हैं जो कभी राज दरभंगा के महाराजा की राजधानी हुआ करता था। राज दरभंगा मौजूदा समय में बिहार का मधुबनी ज़िला है। दरभंगा से 50 कि.मी. और पटना से 190 कि.मी. दूर स्थित दरभंगा शहर कभी शाही राजधानी हुआ करता था जिसे बहुत प्यार और दिल से बनाया गया था।

राजनगर का निर्माण बेहद समृद्ध महाराजा ने 20वीं सदी के आरंभिक वर्षों में करवाया था हालंकि आज इसके अवशेष ही रह गए हैं। इसके बावजूद मेहराबदार चार प्रवेश द्वारों में से किसी एक द्वार से शाही परिसर में दाख़िल होते ही आपको राजनगर मोहित कर लेगा।

लेकिन सवाल ये है कि नेपाल के साथ भारत की सीमा के पास बिहार के एक कोने में आख़िर ये इतालवी लुटियन्स कहां से आया और कैसे सैलानियों को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है?

राज दरभंगा या दरभंगा राज भारत में कभी सबसे बड़ी और समृद्ध ज़मींदारियों में से एक हुआ करती थी जो उत्तर बिहार में 6,200 स्क्वैयर कि.मी. तक फैली हुई थी। ये क्षेत्र जिसे मिथिलांचल या तिरहुत भी कहा जाता है, आज मधुबनी कला के लिये प्रसिद्ध है। दरभंगा के पहले ब्राह्मण ज़मींदार पंडित महेश ठाकुर ने सन 1577 में मुग़ल बादशाह अकबर द्वारा जारी फ़रमान के तहत अनुदान में दरभंगा राज मिलने के बाद मिथिला में खंडवाल राजवंश की नींव डाली थी।

अकबर ने जब शेर शाह के वंशजों से राज सत्ता ली तब दरभंगा में अराजकता थी और अकबर को कर वसूली और शांति के लिये किसी रखवाले की ज़रुरत थी। चूंकि इस क्षेत्र में ब्राह्मणों की संख्या अधिक थी, अकबर ने पंडित महेश ठाकुर को स्थानीय ज़मींदार नियुक्त कर दिया और इस तरह से वह स्थानीय शासक बन गए।

तीन सदियों के बाद महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह (1860-1889) को किसी साम्राज्य में एक राजधानी की तरह ज़मींदारी का एक बड़ा केंद्र बनाने का विचार सूझा। वह ये केन्द्र अपने भाई के लिये बनाना चाहते थे। उस समय सत्ता पर बैठे महाराजा के लिये छोटे भाई को अनुदान में ज़मीन देना आम बात हुआ करती थी। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने अपने भाई रामेश्वर सिंह (1898-1929) को भू-अनुदान के रुप में राजनगर दे दिया। लेकिन वह यहीं नहीं रुके, उन्होंने अपने छोटे भाई के लिये शाही निवास बनाने की भी योजना बनाई। इस दौरान महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह की सन 1898 में मृत्यु हो गई और चूंकि उनकी कोई औलाद नहीं थी,इसलिए रामेश्वर सिंह राज दरभंगा के राजा बन गए।

अपने बड़े भाई की योजना को आगे बढ़ाते हुए रामेश्वर सिंह ने सन 1904 में राजनगर को एक शाही शहर के रुप में विकसित करना शुरु किया। इस तरह भव्य राजधानी बनी जिसके केंद्र में नौलखा महल था।

यहां एक विशालकाय सचिवालय बनाया जाना था और इस क्लासिकी शैली के सचिवालय को बनाया प्रसिद्ध इतालवी वास्तुकार एम.ए. कोरोन ने। राजनगर शाही परिसर में सचिवालय के अलावा कई देवी-देवताओं के सुंदर मंदिर भी बनवाए गए।

महाराजा रामेश्वर सिंह ख़ुद भी एक कुशल तांत्रिक थे और इसीलिये महल-परिसर में काली देवी का एक सुंदर मंदिर बनवाया गया। ये मंदिर सफ़ेद संगमरमर से बनवाया गया था। दक्क्षिणेश्वरी काली देवी राज दरभंगा की पीठासीन देवी होती थीं। परिसर में दुर्गा देवी और भगवान शिव को समर्पित मंदिर भी थे।

भवनों की दीवारें मधुबनी अथवा मिथिला चित्रकारी से सजी हुईं थीं जिसके लिये मधुबनी आज भी प्रसिद्ध है। कई लोगों के ये नहीं पता कि विश्व में सबसे पुरानी मिथिला पेंटिंग (सौ साल पुरानी) आज भी गसौनी घर की दीवारों पर देखी जा सकती है। राजनगर महल में गसौनी घर वह जगह होती थी जहां कुल देवी की मूर्ति रखी जाती थी। ये पेंटिंग सन 1919 में महाराजा रामेश्वर सिंह की बेटी के विवाह के समय बनाई गई थी मगर दुर्भाग्य से आज ये ख़राब अवस्था में है।

दिलचस्प बात ये है कि राजनगर महल के साथ कई चीज़े पहली बार शुरु हुईं। उदाहरण के लिये उस समय वास्तुकार और इंजीनियर भारत में भवन निर्माण में सीमेंट का इस्तेमाल शुरु कर रहे थे। इतालवी वास्तुकार कोरोन ने महाराजा के सामने सीमेंट की ख़ूबियां गिनाते हुए कहा था, “सीमेंट से बना स्तंभ इतना मज़बूत होगा कि उसे हाथी भी नहीं तोड़ पाएगा।“

इस दावे से महाराजा आश्चर्यचकित रह गए और उन्होंने कोरोन से सीमेंट का हाथी बनाने को कहा। कोरोन ने, महाराजा की इच्छा के मुताबिक़ सीमेंट का हाथी बना दिया जिसे देखकर महाराजा इतने ख़ुश हुए कि उन्होंने इतालवी वास्तुकार से उनके सचिवालय की डिज़ाइन में सीमेंट के हाथी शामिल करने को कहा।

राजनगर सचिवालय के प्रवेश-द्वार को सहारा देने के लिये कोरोन ने हाथी की शैली में स्तंभ बनाये जो आज भी मज़बूती से खड़े हैं। इस तरह कोरोन का दावा ठीक साबित हुआ। सन 1934 के भयंकर भूकंप में जहां अधिकांश शाही नगर तबाह हो गया वहीं इन स्तंभों पर कोई असर नहीं पड़ा।

महाराजा रामेश्वर सिंह के लिये कोरोन जब भव्य राजधानी बना रहे थे तभी लुटियन्स दिल्ली भी विकसित हो रही थी। इसीलिये मिथिला विश्वविद्यालय( दरभंगा ) के इतिहास विभाग के प्रमुख प्रो. अयोध्यानाथ झा ने कहा कि राजनगर की भव्यता और वैभव तथा राजनगर और लुटियन्स दिल्ली के साथ साथ बनने की वजह से राजनगर को राज दरभंगा का “इतालवी लुटियन्स” कहा जा सकता है।

सन 1929 में महाराजा रामेश्वर सिंह के निधन तक राजनगर में ख़ुशहाली का सिलसिला जारी रहा। उनके बाद उनके पुत्र सर कामेश्वर सिंह सत्ता में आए। कामेश्वर सिंह दरभंगा के अंतिम शासक थे। कामेश्वर सिंह के शासक बनने के बाद राजधानी और प्रशासन राजनगर से वापस पारिवारिक राजधानी दरभंगा चला गया।

फिर 15 जनवरी सन 1934 को एक विनाशकारी “नेपाल-बिहार” भूकंप आया जिसने उत्तर बिहार को तबाह कर दिया। भूकंप की तीव्रता 8.4 थी जिसने समूचे उत्तर भारत को हिलाकर रख दिया था और इसकी ज़द में कोरोन का लुटयन्स राजनगर भी आ गया। भूकंप में नौलखा महल बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया और शिव का सुंदर मंदिर भी इतना क्षतिग्रस्त हो गया कि इसमें प्रवेश ख़तरनाक हो गया। महल-परिसर में अन्य मंदिरों, सचिवालय और राजस्व कार्यालय भवन के कुछ हिस्से बचे रह गए। ये अवशेष हमें आज भी उस विनाशकारी भूकंप की याद दिलाते हैं।

जहां सर रामेश्वर सिंह के निधन से दरभंगा की राजधानी के रुप में राजनगर का वैभव समाप्त हुआ वैसे ही सन 1934 के भूकंप ने इस सुंदर राजधानी को गुमनामी के अंधेरे और अतिक्रमण की तरफ ढ़केल दिया। और सबसे बड़े दुख की बात यह है कि इसे धीमी गति से मरने के लिए छोड़ दिया गया है।

दरभंगा के शाही परिवार ने भी राजनगर महल-परिसर को दोबारा बनाने का कोई प्रयास नहीं किया है क्योंकि भूकंप की वजह से वहां की ज़मीन अस्थिर हो गई है। यहीं नहीं, शाही परिवार महल-परिसर की ज़मीनें बेचता रहा है जिसकी वजह से शाही राजधानी के पास लोग अपने घर बना रहे हैं। इससे महल परिसर के वजूद पर ही ख़तरा मंडराने लगा है।

अगर समय रहते सरकार या फिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने राजनगर महल परिसर को बचाने के लिये क़दम नहीं उठाए तो हम वास्तुकला की एक शानदार धरोहर और बिहार के गौरवशाली इतिहास का एक हिस्सा खों देंगे।

लेखक परिचय: क़ानूनी दिमाग़ रखनेवाले आकाश का दिल उन तमाम चीज़ों को देखकर धड़कता है जिनका संबंध इतिहास से होता है।

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