उत्तर प्रदेश का झाँसी शहर आमतौर पर दो महान विभूतियों की वजह से जाना जाता है- पहली तो झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई और दूसरे हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद। लेकिन इन दोनों के अलावा भी झांसी में बहुत कुछ है, जिसे जानना ज़रूरी है, जैसे झांसी के स्मारक। झांसी में आज भी कई ऐसे स्मारक हैं, जो इसके गौरवशाली इतिहास के गवाह हैं। इन ऐतिहासिक स्मारकों में से एक है रघुनाथ राव महल। झाँसी शहर की घनी आबादी के बीच नई बस्ती में स्थित यह एक पुरातात्विक धरोहर है। इसका निर्माण वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई के पति महाराजा गंगाधर राव के बड़े भाई महाराजा रघुनाथ राव-तृतीय (सन 1835-1838) ने करवाया था। इसीलिये इसे रघुनाथ राव महल के नाम से ही जाना जाता है।
18वीं और 19वीं शताब्दी के बीच झाँसी में नेवलकर राजाओं का शासन था। नेवलकर वंश के पितामह रघुनाथ राव नेवलकर थे, जो महाराष्ट्र के कोंकण के राजपुर ज़िले में पावास गांव के मुखिया थे। नेवलकर के पुत्रों और पौत्रों ने पेशवाओं की सेवा की। इसी वजह से वे सेना में उच्च पदों पर आसीन हुए। 18वीं शताब्दी में, बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल ने मराठा पेशवा बाजी राव-प्रथम को बुंदेलखंड के कुछ क्षेत्र उपहार में दिये थे, क्योंकि पेशवा ने मुग़ल सेना के विरुद्ध एक युद्ध में उनकी मदद की थी।
मराठा पेशवा ने रघुनाथ राव के पड़पोते, जिसका नाम भी रघुनाथ राव ही था, को झाँसी में एक विद्रोह सँभालने के लिये भेजा था। रघुनाथ राव ने झाँसी में पेशवा शासन को दोबारा स्थापित किया था। इससे खुश हो कर, झाँसी शहर, रघुनाथराव को एक जागीर के रूप में भेंट कर दिया गया और सन 1769 में उन्हें वहां का सूबेदार बना दिया गया। रघुनाथ राव एक क़ाबिल शासक और एक बहादुर योद्धा थे, जिनके शासन में झाँसी ख़ूब फूला-फला।
सन 1796 में जब उनकी मृत्यु हुई, तो उनके भाई शिवरावभाऊ को सूबेदार के रूप में उत्तराधिकारी बनाया। वो भी एक बहादुर योद्धा थे।
झांसी के सूबेदार शिवरावभाऊ की मृत्यु के बाद उनके पोते रामचन्द्र राव को झांसी का सूबेदार बनाया गया था। रामचन्द्र राव की मृत्यु के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने शिवराव हरि के दोनों पुत्रों में से बड़े पुत्र रघुनाथ राव-तृतीय को झांसी का राजा मनोनीत किया।
ढाई एकड़ के क्षेत्र में फैला रघुनाथ राव महल मराठा स्थापत्य की बेजोड़ मिसाल है। यह महल नगरकोट के बाहर स्थित है । इसीलिये इसकी सुरक्षा के लिये, इसके चारों ओर सुरक्षा-दीवार का निर्माण किया गया था।
महल में प्रवेश के लिये पूर्व एवं उत्तर दिशा में द्वार हैं। पूर्वी द्वार पर सादा मुग़ल मेहराब बनी हुई है। चांद दरवाज़े से नगरकोट के बाहर निकलने पर महल-परिसर के विशाल मैदान में पहुँचा जा सकता है। यहीं यानी ठीक सामने रघुनाथ राव महल है। महल-परिसर के निकट ही महाराजा रघुनाथ राव-तृतीय की मुस्लिम प्रेयसी गजरा बेगम की हवेली थी। क्योंकि रघुनाथ राव पूरे समय गजरा बेगम को अपनी नज़रों के सामने रखना चाहते थे, इसलिये उन्होंने इस महल का निर्माण करवाया था। ईद के मौक़े पर इसी चांद दरवाज़े के ऊपर चढ़कर गजरा बेगम ईद का चांद देखा करती थीं, इसलिये इस दरवाजे का नाम चांद दरवाजा पड़ गया था।
गजरा बेगम की क़ब्र जिला अस्पताल परिसर में बनी हुई है। राजा रघुनाथ राव रात दिन रास- रंग में मग्न रहा करते थे। उनके काल में प्रशासन अस्त-व्यस्त-त्रस्त हो गया था, जिससे राजस्व मात्र तीन लाख रुपये सालाना रह गया था। राज्य की आय कम थी, परन्तु महाराजा रघुनाथ राव दौलत की फ़िज़ूल ख़र्ची में व्यस्त रहते थे। इसके नतीजे में उन्हें अपने राज्य के ओरछा और ग्वालियर जैसे गांवों को गिरवी रखने पर मजबूर होना पड़ा। महाराजा रघुनाथ राव-तृतीय ने केवल तीन वर्ष तक राज किया। सन 1838 में उनका स्वर्गवास हो गया।
रघुनाथ राव के निधन के बाद, महल का उपयोग सेना के लिए किया गया। गंगाधर राव की सेना हो या रानी लक्ष्मीबाई की सेना, उनके सैनिक, घोड़ों और हाथियों को रखने के लिये इसी महल का इस्तेमाल करते थे। ये बात दिलचस्प है, कि रानी लक्ष्मीबाई ख़ुद कभी इस महल में नहीं गईं। सन 1857 के विद्रोह के बाद जब झाँसी अंग्रेज़ों के कब्ज़े में चला गया, तब महल उनकी सेनाओं के लिए काम आया। ये सिलसिला सन1947 में भारत की स्वतंत्रता तक चला, जिसके बाद ये महल उपेक्षा का शिकार हो गया और धीरे-धीरे वीरान होता चला गया।
महल में प्रवेश के लिये मुग़ल शैली की सादा मेहराब वाला, दो मंज़िला विशाल दरवाज़ा है। दरवाज़े के दोनों तरफ में दो मंज़िला दालान हैं, जिनके द्वार अन्दर की तरफ़ आंगन में खुलते हैं। प्रवेश-द्वार के ठीक ऊपर गोल मेहराबदार तीन छोटे दरवाज़े बनाकर इसे भव्य एवं सुन्दर बनाया गया है। इसकी ड्योढ़ी में दोनों तरफ के हिस्सों में तीन मंज़िला नौबत ख़ाना है। ड्योढ़ी के बाद फिर आंगन है, इसमें सामने दो मंज़िला ज़नानख़ाना या हरम है। ज़नानख़ाने का विशाल दरवाज़ा कटावदार मेहराब से सुसज्जित है। इसमें ड्योढ़ी के पश्चात् आंगन है, इसके चारों ओर दालान एवं उसके बाद अंतःकक्ष थे। इसमें हर जगह पर मुग़ल शैली के अनुरूप दीपकों की सजावट के लिये छोटे आलों या ताकों के समूह बने हैं।
ज़नान ख़ाने के बायीं ओर अस्तबल था, इसमें विशाल आंगन के तीन ओर खुले दालान थे। इन दालानों पर यूरोपियन शैली के चौड़े खपरैल की छत थी। बाद में इस ऐतिहासिक महल में रानी का पठान दस्ता और उनके घोड़े रहते थे, जो हर वक्त रानी के एक इशारे पर अपनी जान न्योछावर करने के लिये तैयार रहते थे। इस महल को अत्यधिक सुन्दर एवं समस्त सुविधाओं से परिपूर्ण बनाया गया था, इसके पीछे एक बड़ा मेंहदी बाग़ था। इस महल के निकट ही हाथी ख़ाना था, जहां सेना के हाथियों को रखा जाता था। इन हाथियों के लिये ही आंतिया तालाब बनवाया गया था। आज यह महल पूरी तरह खंडहर बन चुका है। कहीं कहीं चित्रों के अवशेष हैं, जिससे पता चलता है, कि इस महल की दीवरों पर चित्रकारी भी की गई थी। हाथी खाना के मुख्य-द्वार की केवल एक दीवार ही शेष बची है। गजरा बेगम की हवेली अबमहज़ इतिहास के पन्नों में ही ज़िंदा है।
अभी कुछ ही साल पहले रघुनाथ राव महल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत आ गया है, जहां थोड़ा बहुत मरम्मत का काम किया जा रहा है।
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