रजवाड़ों और रियासतों की बात करते ही हमारे ज़हन में बरबस राजाओं-महाराजाओं के राजसी ठाठ-बाट, उनकी शानों-शौकत, हीरे-जवाहरात और क़ीमती कारों के ज़ख़ीरों की तस्वीरें उभरती हैं। लेकिन आज हम आपको शाही घराने के एक ऐसी शख़्सियत के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसे आम राजाओं की तरह विलासिता से हट कर एक ऐसी चीज़ से जूनून की हद तक लगाव था , जिसका उदाहरण किसी राज घराने के व्यक्ति में विरले ही मिल पाएगा। यह शौक़ था, इतिहास के अध्ययन, लेखन, शोध और ख़ोज तथा ऐतिहासिक वस्तुओं के संकलन का।
शौक़ ऐसा, कि जिस राज-निवास में उनके पूर्वजों का बसेरा था और जहां उनका जन्म हुआ था, उसे उन्होंने संग्रहालय और आर्काइव यानि अभिलेखागार में तब्दील कर दिया। जिस राजनिवास को अपने पसंद की डिज़ाइन के साथ ख़ुद अपनी देख-रेख में बनवाया, वहां लाईब्रेरी व शोध-संस्थान स्थापित कर दिए। अपनी सम्पत्ति को भोग-विलास पर ख़र्च करने की बजाय महत्वपूर्ण किताबों, प्राचीन पांडुलिपियों, दस्तावेज़ों के संग्रह करने में लगा दिए। और, यहां तक कि, जब राज-गद्दी पर बैठने का समय आया, तो अपनी जगह अपने बड़े पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर खुद की पूरी ज़िंदगी इतिहास के शोध एवं खोज में लगा दी। यहां तक कि, ‘महाराजा’ कहलाने की बजाय ‘महाराजकुमार’ कहलाना पसंद किया।
हम बात कर रहे हैं, मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में स्थित सीतामऊ रियासत (वर्तमान में मंदसौर ज़िले का एक क़स्बा) के युवराज महाराजकुमार डॉ. रघुबीर सिंह की जो विद्वानों की दुनिया में ‘प्रिंसली हिस्टोरियन’ अर्थात् ‘शाही इतिहासकार’ के नाम से जाने जाते हैं। भारत के रजवाड़ों के इतिहास में अपने जूनून में किसी शाही वंशज के राज-पाट छोड़ने का इस तरह का दूसरा विरल उदाहरण सौराष्ट्र (गुजरात) के गोंडल रियासत के महाराजा भागवत सिंह का है, जो अपनी प्रजा को बेहतर चिकित्सा सुविधा मुहैया कराने की मंशा से राज्य की कमान अपने पारसी दीवान को सौंपकर ख़ुद डाक्टरी की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए थे।
डॉ. रघुबीर सिंह सीतामऊ रियासत के राजा राम सिंह एवं रानी सरस कुंवर के बड़े पुत्र थे जिनका जन्म 23 फ़रवरी, सन 1908 को सीतामऊ से 3 किमी. दक्षिण स्थित लदूना के राजनिवास गढ़ में हुआ था। रघुबीर सिंह की पत्नी का नाम मोहन कुंवर था जो प्रतापगढ़ की राजकुमारी थीं। उनके दो पुत्र थे, जिनमें बड़े कृष्ण सिंह मध्यप्रदेश के आई.जी. पुलिस के पद से रिटायर हुए। छोटे बेटे ब्रजराज सिंह ने अमेरिका के ओक्लाहोमा यूनिवर्सिटी से पी-एच.डी. किया था जिनकी सन 1967 में एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी।
मध्य भारत की प्रमुख रियासतों में एक, मालवा क्षेत्र के सीतामऊ में जन्मे, पले-बढ़े और प्रशिक्षित हुए रघुबीर सिंह का संबंध एक ऐतिहासिक राजवंश से था जिनके पूर्वज जोधपुर के राठौड़ राजवंश से आते थे। पिता के जीवन-काल में उन्हें ‘महाराजकुमार’ की पदवी मिली थी। पिता की मृत्यु के बाद जब उनके राज्याभिषेक का समय आया, तो अपने बड़े पुत्र का राजतिलक करवा दिया और ख़ुद ताउम्र ‘महाराजा’ के बजाय ‘महाराजकुमार’ कहलाना पसंद किया। रघुबीर सिंह ने ऐसा निर्णय रियासतों के इतिहास के एक ऐसे दौर में लिया था जब राज-गद्दी पर क़ाब़िज़ होने के लिए उत्तराधिकारियों के बीच मारकाट मचना आम बात होती थी। ज़ाहिर है डॉ. रघुबीर सिंह ने ऐसा निर्णय अपने इतिहास-प्रेम के कारण लिया जो वाक़ई एक अपवाद भी है और उदाहरण भी।
महाराजकुमार रघुबीर सिंह को छात्र-जीवन से ही इतिहास के प्रति गहरा लगाव हो गया था और अपनी अध्ययनशीलता से सम्पूर्ण भारतीय इतिहास पर अधिकार हासिल कर लिया था।
चाहे राजस्थान, मालवा,मराठा इतिहास की बात हो या सल्तनत और मुग़लकालीन – उन्होंने हर काल पर बहुत कुछ लिखा। हिंदी और अंग्रेज़ी तथा मराठी-राजस्थानी भाषाओं पर पकड़ के साथ वह फ़ारसी भाषा भी जानते थे।
डॉ. रघुबीर सिंह के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर रौशनी डालते हुए डॉ. रेखा द्विवेदी अपनी किताब ‘इतिहासकार डॉ. रघुबीर सिंह एवं उनके इतिहास ग्रंथ’ में कहती हैं कि “डॉ. रघुबीर सिंह एक सुविज्ञ चिंतनशील इतिहासकार थे। इतिहास को उन्होंने अत्यावश्यक वैज्ञानिक दृष्टि से देखा-भाला और परखा था। जहाँ तक संभव हो सही प्रमाणिक विवरण प्रस्तुत करना उनका एकमात्र इतिहास-दर्शन था।”
इतिहास के क्षेत्र में उनके योगदान का अंदाज़ा इस बात से सहज लगाया जा सकता है, कि उन्होंने 13 ग्रंथ लिखे और 29 ग्रंथों के सम्पादन कियाष साथ ही दर्जनों शोध-विषयक लेख लिखे।
रघुबीर सिंह द्वारा लिखे गए मुख्य ग्रंथों में ‘मालवा इन ट्रांज़िशन ऑर ए सेंचुरी ऑफ़ एनार्की’, ‘स्टडीज ऑन मराठा एंड राजपूत हिस्ट्री’, ‘दुर्गादास राठौड़’, ‘इंडियन स्टेट्स एंड द न्यू रिजीम’ (सभी अंग्रेजी), ‘पूर्व मध्यकालीन भारत’, ‘महाराणा प्रताप’, ‘राजस्थान के प्रमुख इतिहासकार और उनका कृतित्व’, ‘रतन रासो’, ‘जोधपुर राज्य की ख्यात’, ‘साभर युद्ध’ आदि के नाम शामिल हैं।
उनके द्वारा सम्पादित ग्रंथों में मशहूर इतिहासकार जादुनाथ सरकार की ‘हिस्ट्री ऑफ़ जयपुर’, ‘वाक़्या-ए-होलकर’ और’शिवाजी’, कर्नल जेम्स टॉड की चर्चित किताब ‘एन्नल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान’ (पहले खंड का ‘राजपूत कुलों का इतिहास’ शीर्षक से सम्पादन), मुंशी देवीप्रसाद की ‘शाहजहांनामा’ और’ज़हांगीरनामा’, जादुनाथ सरकार और जी.एस. सरदेसाई की ‘इंग्लिश रेकार्ड्स ऑफ मराठा हिस्ट्री’, जादुनाथ सरकार तथा एम.एफ़. लोखंडवाला की ‘फ़तुहात-ए-आलमगिरी’ आदि के नाम शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने जादुनाथ सरकार की ‘ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ औरंगज़ैब’ का हिंदी में अनुवाद भी किया था।
रघुबीर सिंह को एक इतिहासकार के रूप में संवारने-निखारने में मध्यकालीन इतिहास के विशेषज्ञ और औरंगज़ैब की जीवनी के गहरे जानकर जादुनाथ सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। किस तरह राजवंश के एक राजकुमार का इतिहास के प्रति रूझान और ललक देख उन्होंने उसे एक ‘प्रिंसली हिस्टोरियन’ अर्थात् ‘शाही इतिहासकार’ के मुक़ाम तक पहुंचाया, इसकी जीवंत झलक एस.आर. टीकेकर के सम्पादन में सन1975 में महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार द्वारा प्रकाशित ग्रंथ ‘मैकिंग ऑफ़ ए प्रिंसली हिस्टोरियन’ में मिलती है। इस ग्रंथ में तक़रीबन 50 वर्षों की अवधि में जादुनाथ सरकार द्वारा रघुबीर सिंह को लिखे 329 पत्रों के संकलन गवाह हैं, कि किस तरह एक सक्षम गुरु का मार्गदर्शन और प्रोत्साहन पाकर एक युवराज भारतीय इतिहास की मीमांसा में अपनी पूरी ज़िंदगी लगा देने के लिए प्रेरित हुआ।
जादुनाथ सरकार के साथ रघुबीर सिंह का पहला परिचय आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. जे.सी. तालुक़दार ने कराया था। उस समय रघुबीर सिंह एम.ए. करने के बाद डी.लिट. की डिग्री के लिए ‘मालवा इन ट्रांज़िशन ऑर ए सेंचुरी ऑफ़ एनार्की (1698-1766)’ विषय पर शोध करने की तैयारी में थे।
जब श्री सरकार को यह बताया गया, कि रघुबीर सिंह उनके निर्देशन में शोध करना चाहते हैं, तो वे यह सुनकर चौंक गए थे। क्योंकि मामला एक जटिल विषय पर शोध-प्रबंध (थीसिस) लिखने का था, वो भी एक रियासत के उत्तराधिकारी के द्वारा। एक राजपूत युवराज की इतिहास में इतनी रूचि, उस दौर में बिल्कुल असामान्य-सी बात थी। पारखी नज़र रखनेवाले जादुनाथ सरकार ने सहसा यह भांप लिया, कि इतिहास का यह नया छात्र भविष्य में ज़रुर कोई बड़ा मुक़ाम हासिल करेगा। उन्होंने शोधकार्य में उनका मार्गदर्शन करने की हामी भर दी।
रघुबीर सिंह की थीसिस की दो परीक्षकों में, एक मराठा इतिहास के विशेषज्ञ डॉ. जी.एस. सरदेसाई थे, जो जादुनाथ सरकार के अभिन्न मित्र थे, और दूसरे परीक्षक अंग्रेज़ इतिहासकार पी.ई. रॉबर्ट्स बनाये गए थे।
रघुबीर सिंह के इतिहास के प्रति समर्पण-भाव से प्रभावित जादुनाथ सरकार ने जी.एस. सरदेसाई को उनकी (रघुबीर सिंह की) थीसिस पर अपनी रिपोर्ट अग्रसारित करते हुए लिखा, “शोधकर्ता (रघुबीर सिंह) के कार्य को देखकर मैं उनके भविष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हूँ। मुझे उम्मीद है, कि पुख़्ता ऐतिहासिक ख़ोज संबंधी हमारे अभियान के लिए यह नव-आगंतुक एक योग्य पात्र साबित होगा।”
इस तरह जदुनाथ सरकार और जी.एस. सरदेसाई के साथ रघुबीर सिंह के संबंधों की शुरुआत तो गुरु-शिष्य के रूप में हुई, लेकिन 50 वर्षों की अवधि तक चले।लेकिन अपनी क्षमता के ब़ल पर वह कब एक शिष्य से, अपने गुरूओं की बराबरी में पहुंचकर सहयोगी बन गए, यह पता ही नहीं चला।किंतु रघुबीर सिंह ने गुरु के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वहन में कभी कोताही नहीं बरती। इसका एक उदाहरण देते हुए, रघुबीर सिंह के साथ सहायक शोध-अधिकारी के रूप में काम कर चुके तथा जादुनाथ सरकार की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ जयपुर’ के सम्पादन में रघुबीर सिंह का सहयोग करनेवाले सूरतगढ़ कॉलेज, राजस्थान से रिटायर डॉ. विद्यानंद सिंह बताते हैं, कि “जदुनाथ सरकार के लिए इंडिया ऑफ़िस लाईब्रेरी, लंदन से दस्तावेज़ों की जो फ़ोटो कॉपियां मंगवाई जाती थीं और उन्हें पढ़कर सुनाने के लिए जो फ़ारसी के जानकार को रखा गया था, उसका सारा ख़र्च रघुबीर सिंह ख़ुद वहन करते थे।”
जादुनाथ सरकार, जी.एस. सरदेसाई और रघुबीर सिंह यानी विद्वानों की इस ‘तिकड़ी’ ने आपसी सहयोग और समन्वय से 17 वीं और 18 वीं सदी के इतिहास के कई नए पक्षों को उजागर किया।
रघुबीर सिंह ने जहां मध्य भारत में मराठा-मुग़ल हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि में इतिहास को खंगाला, तो जी.एस. सरदेसाई ने मराठा शक्ति के उदय और पतन की पड़ताल की। वहीं जादुनाथ सरकार ने इन दोनों विषयों के साथ औरंगज़ैब-शिवाजी के नाटकीय पहलूओं के साथ मुग़ल सल्तनत सहित 18 वीं सदी की अन्य शक्तियों के पतन के तथ्यों की मीमांसा की।
जादुनाथ सरकार, जी.एस. सरदेसाई और रघुबीर सिंह के बीच संबंधों की इस प्रगाढ़ता के पीछे बस एक ही बात थी – विभिन्न तथ्यात्मक स्रोतों की खोज कर इतिहास के अनजाने पहलूओं को उजागर करना और इतिहास के कालक्रम का सटीक निर्धारण। इन तीनों विद्वानों में इतिहास की खोज़ के प्रति कैसी ललक थी, इसके गवाह उनके बीच में हुआ पत्राचार है। उनके बीच लिखी गईपंद्रह सौके क़रीब चिष्ठियां हैं जिसे लेखक टी.सी.ए. राघवन ने बख़ूबी, मई,सन 2020 में प्रकाशित अपनी किताब ‘हिस्ट्री मैन: जदुनाथ सरकार, जी.एस. सरदेसाई, रघुबीर सिंह एंड देयर क्वेस्ट फ़ॉर इंडियाज पास्ट” (प्रकाशक:हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया) में संकलित किया है।
विद्वानों की इस ‘त्रिमूर्ति’ के केंद्र में जदुनाथ सरकार थे जिनके इर्द-गिर्द उस समय के इतिहासकारों का मजमा लगा रहता था। ऐसे इतिहासकारों में के.आर. क़ानूनगो, ए.एल. श्रीवास्तव, हरिराम गुप्ता, एन.बी. रॉय, वी.जे. दीघे, एस.आर. टीकेकर आदि के नाम प्रमुख हैं जिनके साथ रघुबीर सिंह के भी अच्छे संबंध थे।
इतिहास को एक संजीदा विषय माननेवाले डॉ. रघुबीर सिंह की यह मान्यता थी, कि इतिहास का उद्देश्य वैज्ञानिक रीति से विवेचित सही प्रमाणिक विवरणों की प्रस्तुति होनी चाहिए जिसके लिए विभिन्न अध्ययन स्रोतों एवं आधार सामग्रियों का संकलन और संरक्षण ज़रुरी है।
जिस दौर में रघुबीर सिंह ने इतिहास के क्षेत्र में क़दम रखा, उस समय देश की आज़ादी की बेला में देशी रियासतें विघटन और विलय के कगार पर थीं। नतीजे में रजवाड़ों के पुराने अभिलेख, पांडुलिपियां, ताम्रपत्र, भित्ति-चित्र सरीखे इतिहास के महत्वपूर्ण अध्ययन स्रोतों की या तो उस समय के राजाओं, ज़मींदारों, ठाकुरों, पंडितों द्वारा उपेक्षा की जा रही थी अथवा चाटुकारिता में गोरे साहबों को भेंट किए जा रहे थे। इनकी ऐतिहासिक महत्ता को आंकते हुए रघुबीर सिंह ने इनके संकलन और संरक्षण का उल्लेखनीय कार्य किया। उन्होंने भारतीय इतिहास, विशेषकर मध्य-काल, राजस्थान, मालवा और मराठा इतिहास की महत्वपूर्ण आधार सामग्रियों, अभिलेखों, पांडुलिपियों आदि को पूरी सूझबूझ के साथ योजनाबद्ध तरीक़े से एकत्रित किया। इसके लिए उन्होंने रघुबीर लाईब्रेरी, नटनागर शोध संस्थान, केशवदास अभिलेखागार और राज सिंह संग्रहालय सरीखी संस्थाओं की स्थापना की, जो आज शोधकर्ताओं के लिए एक तीर्थस्थान-से बन गए हैं।
अपने सम्पूर्ण ऐतिहासिक संकलनों के संग्रह के लिए उन्होंने अपने राजभवन में, सन 1936 में ‘रघुबीर लाईब्रेरी’ की स्थापना की। यहां हिंदी और अंग्रेज़ी सहित मराठी, फ़ारसी आदि भाषाओं के 40 हज़ार से अधिक किताबें और हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी, राजस्थानी, मराठी में लिखित 6 हज़ार से भी अधिक पांडुलिपियां रखी हैं।
ग़ौरतलब है कि इस लाईब्रेरी को शानदार बनाने में रघुबीर सिंह को अपने गुरु जादुनाथ सरकार का भरपूर मार्गदर्शन और सहयोग मिला। जादुनाथ सरकार ने इस लाईब्रेरी को न सिर्फ़ अपनी लाईब्रेरी की दुर्लभ पांडुलिपियों की कॉपियां उपलब्ध कराईं, बल्कि इंडिया ऑफ़िस लाईब्रेरी, लंदन से मंगाए गए फ़ारसी अभिलेखों और इनके अंग्रेज़ी अनुवादों की प्रतियां भी दीं। यहां जादुनाथ सरकार, जी.एस. सरदेसाई तथा रघुबीर सिंह के पत्रों का पूरा सेट भी संग्रहित है।
इस लाईब्रेरी में दुर्लभ पुस्तकों, महत्वपूर्ण पांडुलिपियों और अभिलेखों का ऐसा संग्रह है कि मध्यकालीन भारतीय इतिहास के शोध एवं अध्ययन कर्ताओं के लिए यहां आना एक आवश्यक शर्त बन गया है। इसकी भविष्य में उपयोगिता का अनुमान लगाते हुए इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने सन 1949 में टिप्पणी की थी, “यदि कभी स्वतंत्र भारत में केंद्रीय ऐतिहासिक संस्था का निर्माण हुआ, तो रघुबीर संग्रह इसकी अनिवार्य इकाई होगी। रघुबीर लाईब्रेरी का पूर्ण उपयोग किए बिना बीते काल पर कोई शोध-कार्य नहीं कर सकता।”
समृद्ध लाईब्रेरी के अलावा रघुबीर सिंह ने सन 1976 में सीतामऊ के लदूना गढ़ राजनिवास में रियासत में पूर्व से चले आ रहे अभिलेखागार मे ‘केशवदास अभिलेखागार’ की स्थापना की। यहाँ फ़ारसी के पुराने और मराठा आधिपत्य कालीन कागज़ात के अलावा 19 वीं सदी के मध्य से लेकर सीतामऊ राज्य के भारतीय संघ में विलय होने की तिथि 30 जून, सन 1948 तक के अभिलेखों के संग्रह हैं। यहाँ पर संग्रहित अभिलेखों में मूल अभिलेखों के 412 बस्तों, 3 हज़ार बहियों और ढ़ाई हज़ार पुराने रजिस्टरों के अतिरिक्त पूर्व सीतामऊ राज्य के ‘इंग्लिश ऑफ़िस’ की 450 फ़ाईलों में महत्त्वपूर्ण पत्राचारों की प्रतियां शामिल हैं।
लदूना स्थित गढ़ में रघुबीर सिंह ने एक अन्य महत्वपूर्ण संस्थान ‘राज सिंह संग्रहालय’ की भी स्थापना की थी। इस संग्रहालय में मालवा के प्राचीन सिक्के, ताम्र-पत्र और दुर्लभ वस्तुओं सहित क्षेत्रीय कलाकृतियां, भित्ति-चित्र, लैंड स्कैप आदि प्रदर्शित हैं।
इन संस्थानों के अलावा यदि भारतीय इतिहास को रघुबीर सिंह के सबसे बड़े योगदान की बात की जाए, तो वो है 14 मई, सन 1974 के दिन सीतामऊ में ‘नटनागर शोध संस्थान’ की स्थापना। इस शोध संस्थान की स्थापना के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य था, रघुबीर लाईब्रेरी को अधिक से अधिक समृद्ध बनाकर यहाँ आनेवाले ऐतिहासिक विषयों के शोधकर्ताओं और इतिहासकारों को महत्वपूर्ण सामग्रियां उपलब्ध कराना। आज यह शोध संस्थान पूरी सफलता के साथ अपने इन उद्देश्यों को पूरा कर रहा है।
नटनागर शोध संस्थान में संग्रहित दुर्लभ दस्तावेज़ों की बात की जाय तो यहाँ सल्तनत काल सहित हुमायूँ, अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ और औरंगज़ैब के साथ 14 वीं से 18 वीं सदी तक के मुग़ल और उत्तर मुग़ल काल, मालवा तथा गुजरात के सल्तनत काल, मराठा तथा ब्रिटिश काल की सैंकड़ों पांडुलिपियां, हस्तलिखित फ़ारसी ग्रंथों की प्रतियां, अख़बारात, सनद आदि सुरक्षित हैं।
इनके अलावा यहां ब्रिटिश म्यूज़ियम और इंडिया ऑफ़िस लाईब्रेरी, लंदन, बॉडलियन लाईब्रेरी, ऑक्सफ़ोर्ड के साथ पेरिस और यूरोप के अन्य महत्वपूर्ण जगहों में सुरक्षित पांडुलिपियों की एक लाख माईक्रो फ़िल्म प्रतियां तथा पूना के पेशवा ऑफ़िस में रखे फ़ारसी लेखों की क़रीब 30 हज़ार फ़ोटो और माईक्रो फ़िल्म प्रतियां भी यहां संग्रहित हैं। ब्रिटिश काल के प्रमुख दुर्लभ दस्तावेजों में एशियाटिक एनुएल रजिस्टर (1799-1811), एशियाटिक जनरल एंड मंथली रजिस्टर, बंगाल सिविल एंड मिलिट्री रजिस्टर (1787) आदि के नाम शामिल हैं।
नटनागर शोध संस्थान की पहचान मध्यकालीन इतिहास की दृष्टि से देश के सबसे बड़े केंद्र के रूप में है, जो मध्य प्रदेश सरकार से एक उल्लेखनीय संस्था के रूप में मान्यता प्राप्त है। यहाँ पर सहायक शोध अधिकारी रह चुके सूरतगढ़ कॉलेज, राजस्थान से रिटायर डॉ. विद्यानंद सिंह का कहना है कि “यह संस्थान उत्तर मुग़लकालीन इतिहास के शोधकर्ताओं और संकलनकर्ताओं के लिए अद्वितीय है।” संस्थान से जुड़े उदयपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘अक्षय लोकजन’ के सम्पादक डॉ. जयकिशन चौबे बताते हैं, कि वैसे तो यहाँ साल भर शोधकार्य से जुड़े लोगों का आना-जाना लगा रहता है, लेकिन यहाँ साल में एक बार देश के प्रमुख विद्वान भी जमा होते हैं।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी महाराजकुमार डॉ. रघुबीर सिंह एक सक्षम इतिहासकार के साथ एक कुशल साहित्यकार भी थे। पांच साहित्यिक किताबों को लिखने के साथ उन्होंने कई ग्रंथों के सम्पादन किए और उनके दर्जनों लेख कई स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।
जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रा नंदन पंत, महादेवी वर्मा, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल सरीखे साहित्यकारों से उनके संपर्क थे और वे बराबर साहित्यिक गोष्ठियों में शिरकत भी करते थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उनके बारे में कहा था, “महाराजकुमार (रघुबीर सिंह) जैसे इतिहास के प्रकांड विद्वान के हाथों में (साहित्य का) ऐसा सागर लहराते देख मैं तृप्त हो गया।”
साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से प्रकाशित किताब ‘भारतीय साहित्य के निर्माता: रघुबीर सिंह’ में लेखक अशोक कुमार सिंह ने उनके साहित्यिक अवदानों पर विस्तार से चर्चा की है। इतिहास लेखन की संलग्नता के साथ महाराजकुमार रघुबीर सिंह ने अपने सार्वजनिक जीवन के दायित्वों को भी पूरी तत्परता से निभाया। पिता के जीवनकाल में राज-काज में हाथ बंटाया। उदारवादी दृष्टि का परिचय देते हुए सीतामऊ रियासत के लिए एक ऐसा संविधान बनाया जिसमें प्रजा की भी भागीदारी थी।
दूसरे विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश हुकूमत के अह्वान पर शीर्ष सैन्य प्रशिक्षण संस्थानों में बाक़ायदा ट्रेनिंग लेने के बाद डॉ रघुबीर ने सेना में कैप्टन और कमीशन्ड अधिकारी के रूप में काम किया। अपनी योग्यता के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। राजस्थान विद्यापीठ के उप-कुलपति सहित इंडियन हिस्टॉरिकल रिकार्ड्स कमीशन, रिज़नल रिकार्ड्स सर्वे कमिटी, ज़िला गज़ेटियर संशोधन सलाहकार बोर्ड सरीखी कई संस्थाओं के वह मानद सदस्य-अध्यक्ष रहे।
इस तरह अपना पूरा जीवन सक्रियता के साथ बितानेवाले इतिहास-पुरुष महाराजकुमार डॉ.रघुबीर सिंह ने 13 फ़रवरी, सन 1991 को अपनी अंतिम सांस ली। जादुनाथ सरकार, जी.एस. सरदेसाई और रघुबीर सिंह पर ‘हिस्ट्री मैन’ शीर्षक से बेस्ट सेलर किताब लिखनेवाले टी.सी. ए. राघवन कहते हैं, कि हालांकि अपनी मृत्यु के समय तक, रघुबीर सिंह की पहचान एक समर्पित शोधकर्ता और एक सफल लेखक के रूप में बनी रही, किंतु उनकी शोहरत राजकुमार से इतिहासकार बननेवाले शख़्स के तौर पर ही थी।
महाराजकुमार डॉ. रघुबीर सिंह की मृत्यु के उपरांत सन 1994 में उनके सम्मान में नटनागर शोध संस्थान के द्वारा एक स्मृति-ग्रंथ का प्रकाशन किया गया था। ‘प्रिंसली हिस्टॉरियन’ शीर्षक से प्रकाशित इस ग्रंथ के सम्पादक-मंडल में डॉ. इरफ़ान हबीब़, डॉ. करण सिंह, डॉ.बी.डी. शुक्ला, डॉ. राजकमल बोरा, डॉ. डी.एल. पालीवाल सरीखी हस्तियां शामिल थीं।
जादुनाथ सरकार के योग्य शिष्य के रुप में अपना जीवन शुरू कर इतिहास-लेखन के शिखर तक का सफल सफ़र तय करनेवाले डॉ. रघुबीर सिंह के बारे के.आर. क़ानूनगो की यह टिप्पणी बिल्कुल सटीक लगती है: “ऐतिहासिक शोध-कार्य के क्षेत्र में जदुनाथ सरकार का यह महानतम योगदान माना जाएगा कि उन्होंने हिंदुस्तान के पतनशील शासक घरानों के ‘मुरादों’ (बादशाह शाहजहाँ का छोटा बेटा) के ‘चूहा दौड़’ की भीड़ से एक ‘दारा शिकोह’ (शाहजहाँ का इतिहास-प्रेमी बड़ा बेटा) को ढूंढ निकाला। ये शख़्स हैं सीतामऊ के राजकुमार रघुबीर सिंह, जिन्होंने शहज़ादा दारा शिकोह की ही तरह अपनी अकूत सम्पत्ति को सीतामऊ में एक शानदार रिसर्च लाईब्रेरी बनाने में लगा दिया।”
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