भारतीय संस्कृति के पंचांग के अनुसार प्रत्येक तीन वर्ष बाद, साल में एक माह अधिक होता है जिसे अधिमास कहते हैं। इससे पहले सन 1860 में ऐसा अधिमास आया था जब उसी साल लीप ईयर भी था। वैसे हर तीन वर्ष में एक माह अधिकमास होता है। इस मास के पीछे वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी रहा है। इस मास में किसी भी प्रकार के मांगलिक कार्य नहीं किये जाते । इस दौरान केवल ईश्वर के ध्यान में लीन रहकर जप-तप, व्रत-उपवास, दान-पुण्य, भजन-कीर्तन और धार्मिक यात्राएं कि जाती हैं। राजस्थान में इस प्रकार की धार्मिक यात्राओं में ब्रज गोवर्धन यात्रा, भरतपुर, जोधपुर की भौगीशैल परिक्रमा, जयपुर की छह और बारह कोस परिक्रमाए, डिग्गी मालपुरा, सालासर, खाटू श्याम की वार्षिक यात्रा, मालकेत सीकर की चौबीस कोसी परिक्रमा, मीरां नगरी मेड़ता सिटी की परिक्रमा तथा प्रत्येक गांव में कावड़ यात्रा आयोजित होती है।
इस वर्ष वैश्विक महामारी ‘‘कोविड-19’’ की वजह से यह सभी कार्यक्रम निरस्त है। चलिये आपको एल.एच.आई. के माध्यम से तीर्थराज पुष्कर की चौबीस कोसीय धार्मिक पदयात्रा के ऐतिहासिक स्थलों से रूबरू करवाते हैं।
दुष्कर पुष्करे गन्तुं दुष्कर पुष्करे तपः
दुष्कर पुष्करे दानं वस्तु चैन दुष्करम्
पर्वतानाम् यथामेरूः पक्षिणा गरूड़ोयथा
तद्वत् समस्त तीर्थनामधं पुष्कर मिष्यते
पुष्कर तीर्थ में गमन करना बड़ा कठिन है। महान पुण्य के उदय होने पर ही वह प्राप्त होता है। फिर इस पुण्य तीर्थ में तप करना और भी अधिक कठिन है। इस क्षेत्र में दान करना तथा यहां निवास करना यह सब बड़े भाग्य से ही प्राप्त हो सकता है।
जिस प्रकार पक्षियों में गुरुड़, पर्वतों में मेरू पर्वत सर्वश्रेष्ठ है ठीक उसी प्रकार धरती पर स्थित सभी तीर्थों में पुष्कर राज सर्वश्रेष्ठ है। राजस्थान के मध्य भाग की अरावली पहाड़ियों के बीच में स्थित इसी तीर्थ स्थल पर स्वयं जगत पिता ब्रह्मा जी ने तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की उपस्थिति में विशाल यज्ञ किया था। वेद एवं पुराणों के अनुसार जगत पिता ब्रह्माजी के कर कमलों से गिराए गए कमल पुष्प के छूने मात्र से ही इस मरूधरा पर निर्मल और मीठे पानी की तेज़ धारा बह निकली और यहाँ एक विशाल सरोवर बन गया।
यह सतयुग के तीर्थ के रूप में विश्व-विख्यात है। साथ ही ज्येष्ठ (ब्रह्मा), मध्य (विष्णु), कनिष्ठ (रूद्र) तथा बूढ़ा पुष्कर के नाम से जाने जाते है। मुख्य पवित्र सरोवर के चारों ओर 52 घाट और कई धार्मिक स्थल व मंदिर बने हुए हैं। यहाँ प्रतिदिन देश-विदेश से सैंकड़ों की संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं।
तीर्थराज पुष्कर के चारों ओर 24 कोसीय परिक्रमा:
इस यात्रा का आयोजन पुष्कर स्थित गायत्री शक्ति पीठ मंदिर की ओर से प्रति वर्ष करवायी जाती है। महेन्द्रसिंह कड़ेल बताते हैं कि इसके मार्ग में आने वाले प्रमुख धार्मिक एवं पर्यटन स्थलों में श्री महर्षि विश्वामित्र आश्रम, श्री महर्षि जमदग्नि आश्रम, श्री महर्षि वामदेव गुफा, श्री मार्कण्डय ऋषि आश्रम, श्री लोमश ऋषि आश्राम, श्री नंदा सरस्वती संगम स्थल, गालव बावड़ी, पाप मोचनी माता जी मंदिर, श्री कपिल कुण्ड, श्री मृकण्ड ऋषि का आश्रम, अगस्त मुनि जी की गुफा, पंच कुण्ड-पांडवों की तपस्या स्थली, गुरु मुख-नील कंठ महादेव मंदिर, श्री मध्य पुष्कर, श्री गया कुण्ड, सुधाभाय, श्री बूढ़ा पुष्कर, श्री प्राचीन बैजनाथ महादेव, श्री रोजड़ी माता जी, श्री अजगंधेस्वर महादेव, अजयपाल पर्वत, श्री कानबाय प्राचीन कृष्ण-राधा जी मंदिर, श्री ककड़ेश्वर और श्री मकड़ेश्वर मंदिर, श्री चतुर्भुज महोदव, श्री नन्दराय माताजी, श्री थांवलेश्वर महादेव, राजाभृर्तहरी जी गुफा, श्री झरनेश्वर, श्री कल्पवृक्ष कपालेश्वर महोदव मंदिर, श्री ब्रह्म पुष्कर सरोवर मुख्य हैं।
महत्वपूर्ण प्रमुख स्थल:
इस परिक्रमा मार्ग में कुछ स्थल अति प्राचीनतम होने के कारण इनका धार्मिक एवं पुरातात्त्विक दृष्टि से महत्व अधिक होने से देश-विदेश के शोधार्थियों में जिज्ञासा बनी रहती है। इनमें से श्री कानबाय (श्री कृष्ण की विश्राम स्थली) कान हथाई, श्री चतुर्भुजमुखी शिवलिंग, नन्दा सरस्वती संगम स्थली और च्यवन ऋषि आश्रम (चमनदड़ा) ह
कानबाय क्षीर सागर:
इस स्थल का सम्बन्ध सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग से रहा है। पदम और हरिवंश पुराण तथा अन्य ग्रन्थों के अनुसार भगवान विष्णु का पदार्पण स्थल रहा है। इनके अलावा भगवान राम और श्री कृष्ण का भी इस पवित्र धरा से गहरा लगाव रहा है। यहीं पर अति-प्राचीन लगभग 8वीं-9वीं सदी की महाविष्णु (अनन्तशायी विष्णु) महादेवी लक्ष्मी सहित शेषनाग पर विराजित प्रतिमा है। कहते हैं कि द्वारका जाते समय श्री कृष्ण ने इसी जगह पर कई दिनों तक निवास किया था। इस कारण उन्होंने यहाँ ब्रज भूमि के गांवो के नाम पर गांव बसाये थे। आज भी यहां के गांवों के नाम जैसे नन्दग्राम (नांद), गोकुल (गोवलिया), मथुरा (मोतीसर), बरसाना (बासेली), कृष्णधाम (किशनपुरा), रामपुरा, भगवानपुरा आदि हैं। श्री कृष्ण ने जहां गाये चराई उस स्थान को आज भी कान हथाई कहते हैं। इस मंदिर के पास प्राचीन क्षीर सागर (कानबाय) में स्नान कर पुष्कर की चौबीस कौसी परिक्रमा का बड़ा महत्त्व बतलाया गया है। प्रतिवर्ष यहाँ श्री कृष्ण जन्मोत्सव का विशाल आयोजन किया जाता है। जिसमें आस-पास के गाँवों से सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु पहुँचते है।
श्री चतुर्मुखी भभूतेश्वर महादेव:
इस परिक्रमा मार्ग में नन्दा सरस्वती संगम स्थल के समीप एक ऐसा प्राचीन शिवलिंग स्थापित है जो पुरातत्व एवं शिल्पकारी की दृष्टि से कुषाण कालीन (2वीं-3वीं शताब्दी) में शैवमत की पूजा का प्रमुख प्रमाण है। यह शिवलिंग मूर्ति शास्त्र की दृष्टि से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। इस चतुर्मुखी मानवाकार सर्वतोभद्र शिवलिंग पर भगवान शिव के अवतार लकुलिश को उत्कृष्ट शिल्पकला में उत्त्कीर्ण किया गया है। शैव शिल्प इतिहास में शिव का अनोखा अंकन है। इस शिवलिंग पर सनाल कमल, चक्रधारी विष्णु के साथ देवी लक्ष्मी, हलधर बलराम, सूर्यदेव सहित कुल 33 देव प्रतिमाओं का अंकन है।
लकुलिश शिव के साथ-साथ सौर, वैष्णव व शाक्त भावों के कारण इसका अत्यधिक सांस्कृतिक महत्व है। लकुलिश शिव की पूजा भारतीय संस्कृति में काफ़ी लम्बे समय तक होती रही है। जिसके प्रमाण उत्तर गुप्तकाल तक मिलते हैं। यह शिवलिंग जन-जन की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। स्थानीय लोगों में यह भभूतेश्वर महादेव नाम से प्रसिद्ध है। जनश्रुति के अनुसार राजा प्रभंजन का कुष्ट रोग इसी शिवलिंग की आराधना से दूर हुआ था। यहां के ग्रामीणों का मानना है कि मानव शरीर पर सफ़ेद दाग़ हो जाने पर ब्रह्ममुर्हुत में मौनव्रत धारण कर यहां नन्दा-सरस्वती कुण्ड में स्नान कर विधिवत पूजा अर्चना और परिक्रमा करने से लाभ प्राप्त होता है।
नन्दा-सरस्वती उद्गम स्थल:
सरस्वती का नाम नन्दा पड़ने की कथा इस तरह है। पौराणिक कथानुसार पुष्कर क्षेत्र में प्रभंजन नाम का प्रसिद्ध राजा एक दिन जंगल में शिकार कर रहा था। उनका एक तीक्ष्ण बाण एक मादा हिरणी को लग गया। इसी वजह से राजा को पशु योनि में व्याघ्र हो जाने का शाप मिला था। उस हिरणी ने,दोबारा मानव योनि में आने के लिए राजा को एक वरदान भी दिया था । वह इस तरह था कि सौ वर्षों बाद उसी जगह पर नन्दा नामक एक गाय से वार्ता होने पर राजा शाप मुक्त हो जायेगा। सौ वर्षों बाद एक दिन नन्दा नामक गाय और व्याघ्र बने राजा प्रभंजन के बीच वार्ता हुई। जिसमें, राजा के हाथों, असंख्य जीवों की हत्या करने से हुये पापों और उनसे छुटकारा पाने के लिये तप, जप, दान और कलयुग में अहिंसा के समान न कोई दान न कोई तपस्या आदि विषयों पर विस्तार से बाजचीत हुई।
तब राजा शाप से मुक्त हुए। सत्य का पालन करने पर नन्दा गाय को, इसी जगह पर स्वयं धर्मराज महाराज ने वरदान देते हुए कहाँ कि यह स्थान ऋषि, मुनियों को धर्म प्रदान करने वाला शुभ तीर्थ बनने तथा यहाँ बहने वाली सरस्वती नदी गाय के नाम से नन्दा सरस्वती संगम नाम से प्रसिद्ध होगी। इस प्रकार यहाँ के खजूर वन में स्थित रोहित पर्वत क्षेत्र में यह स्थल जन-जन की आस्था का स्थल बन गया। पदम पुराण में कहां गया है कि जो प्राणी इन चौबीस कोस परिक्रमा स्थलों पर स्नान कर पूजा-अर्चना करता है उसे अश्वमेघ यज्ञ समान फल प्राप्त होता है।
च्यवन ऋषि आश्रम (चमन दड़ा):
इस संगम स्थल के पास सरस्वती नदी के तट पर विभिन्न प्रकार से वृक्षों व लताओं से घिरे वन में च्यवन ऋषि ने कई वर्षों तक कठोर तप किया था। पौराणिक कथानुसार उनके पुरे शरीर पर इतनी दीमकें चढ़ गई थीं कि आंखों के अलावा उनके शरीर का कोई भी भाग दिखाई नहीं दे रहा था। एक समय राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या अपनी सहेलियों के साथ इधर से गुज़र रही थी, तब उसने, एक पेड़ के नीचे तपस्या कर रहे ऋषि की दोनों चमकती हुई आंखों को तिनके से छेद दिया था। इसके बाद ऋषि के शाप के डर के कारण सुकन्या ने अन्धे च्यवन से शादी करली और इनकी सेवा करने का प्रण किया। कुछ वर्षों बाद यहां आए अश्विनी कुमार ने ऋषि को नैत्र और नव यौवन प्रदान किया। इसलिए यह जगह सूर्यकुण्ड नाम से प्रसिद्ध हुई। इस प्रकार पुष्कर यज्ञ के दौरान भगवान शिव द्वारा स्थापित इन चैकियों पर अपने गणो को यज्ञ की रक्षा हेतु नियुक्त किया था। इन रक्षा चैकियों की परिक्रमा ही पुष्कर राज की चौबीस कोसय परिक्रमा कहलाती है।
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