कलकत्ता में देश के कुछ सबसे उच्च श्रेणी के शैक्षणिक संस्थान हैं। दरअसल शहर में कॉलेज स्ट्रीट का नाम ही यहां स्थित कुछ सबसे प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों के नाम पर पड़ा है। कलकत्ता विश्वविद्यालय भी इनमें शामिल है, जो भारत के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इस विश्वविद्यालय से कुछ ही फासले पर एक ऐसा संस्थान भी है, जिसका अपना एक समृद्ध इतिहास रहा है।
प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय, जिसे पहले प्रेसीडेंसी कॉलेज के नाम से जाना जाता था, एक शासकीय विश्वविद्यालय है, और देश के सबसे पुराने शिक्षा संस्थानों में से एक है। जैसा कि हम जानते हैं, कि प्रेसीडेंसी कॉलेज की शुरुआत सन 1855 में हुई थी। सन 1817 में इसकी स्थापना हिंदू कॉलेज के रूप में हो चुकी थी।
18वीं शताब्दी में अपनी स्थापना के बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी ने शुरुआती कुछ दशकों में भारतीयों को अंग्रेज़ी शिक्षा देने के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए थे। सन 1774 में कलकत्ता सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना के बाद कई बंगाली युवा अंग्रेज़ी सीखने के लिए उत्सुक थे। बहरहाल, स्कूल खोले गये, जहां अंग्रेज़ी पढ़ाई जाती थी, लेकिन अंग्रेज़ी के नाम रोज़मर्रा के काम में आने वाले अंग्रेज़ी के महत्वपूर्ण शब्द और उनकी वर्तनी या हिज्जे (स्पेलिंग) ही सिखाई जाती थी। ऐसे में पुख़्ता अंग्रेज़ी शिक्षा की ज़रुरत महसूस की गई। इसके अलावा, उस समय बंगाल में अंध भक्ति और अंधविश्वास का बोलबाला था, जिसकी वजह से कई सुधार आंदोलन और सामाजिक जागृति की मुहिम चल रही थीं।
राजा राम मोहन राय जैसे मार्ग-दर्शकों ने यूरोप की तरह भारत में भी भारतीयों को आधुनिक शिक्षा देने की ज़रुरत महसूस की। उस समय के कुछ ग़ैर-सरकारी अधिकारियों ने भी देश में बिना किसी पक्षपात के अंग्रेज़ी शिक्षा को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर तवज्जो दी। इनमें से स्कॉटलैंड के घड़ीसाज़ डेविड हरे भी थे, जो पहले ही कुछ स्थानीय स्कूलों के साथ एक अंग्रेज़ी स्कूल खोल चुके थे। नतीजे में सन 1816 में राजा राम मोहन राय ने डेविड हरे के साथ मिलकर एक ऐसी संस्था खोलने के बारे में सोचा, जहां छात्रों को यूरोप की तरह आधुनिक विज्ञान और दर्शन की शिक्षा मिल सके। इस योजना का प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर हाइड ईस्ट को भेजा गया, जिन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। राधाकांत देब, बैद्यनाथ मुखोपाध्याय और रसमय दत्त जैसे उस समय के विद्वान और शिक्षाविद इस संस्थान के संस्थापक थे।
परियोजना शुरू करने में मदद के लिए जल्द ही हिंदू समुदाय के प्रभावशाली लोगों की एक बैठक बुलाई गई। लेकिन योजना के रूढ़िवादी संरक्षको को नाराज़ करने से बचने और इसके सुचारू कामकाज को सुनिश्चित करने के लिए राजा राम मोहन राय जल्द ही समिति से अलग हो गये। परियोजना के लिये धन जमा किया गया, जो मुख्य रूप से महाराजा तेजचंद बहादुर और गोपी मोहन टैगोर से लिया गया था। इसके बाद 20 जनवरी, सन 1817 को गरनहट्टा (चितपुर रोड) में किराय के एक मकान में हिंदू कॉलेज की स्थापना हुई। कॉलेज एक ग़ैर-सरकारी संस्थान था, जहां शुरू में हिंदू समुदाय के लोगो को ही शिक्षा दी जाती थी।
संस्थान की शुरुआत दो शाखाओं से हुई- एक पाठशाला या स्कूल, जिसमें अंकगणित, अंग्रेज़ी, बंगाली भाषा और व्याकरण जैसे विषय पढ़ाए जाते थे। दूसरी ओर, कॉलेज, जिसे हिंदू विद्यालय और महाविद्यालय के रूप में भी जाना जाता था, में गणित, रसायन विज्ञान, भूगोल, इतिहास, खगोल विज्ञान और अन्य विज्ञान जैसे विविध विषय पढ़ाये जाते थे।
जैसे-जैसे साल बीतते गए, हिंदू कॉलेज धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। शुरुआत में कॉलेज में 20 छात्र होते थे, लेकिन दो दशकों के भीतर छात्रों की संख्या 500 से अधिक हो गई। छात्रवृत्तियों की संख्या में वृद्धि के साथ कॉलेज की शैक्षणिक गतिविधियां भी बढ़ने लगीं।
हिंदू कॉलेज से राजा राम मोहन राय के बेटे राम प्रसाद राय, माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई की गणना के लिए प्रसिद्ध गणितज्ञ राधा नाथ सिकदर, सिविल सेवा में शामिल होने वाले पहले भारतीय सत्येंद्र नाथ टैगोर और प्रसिद्ध लेखक और कवि माइकल मधुसूदन दत्त जैसे कई अन्य मेघावी छात्र निकले।
सन 1840 के दशक में कॉलेज में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ने लगा। सरकार ने हिंदू कॉलेज को एक आम संस्थान में बदलने का प्रस्ताव रखा, जहां सभी समुदायों के लोग शिक्षा ले सकेंगे। कॉलेज का प्रबंधन भी सरकार अपने अधीन रखना चाहती थी। आख़िरकार, सन 1855 में हिंदू कॉलेज पूरी तरह से एक सरकारी संस्थान बन गया, और इसका नाम बदलकर प्रेसीडेंसी कॉलेज कर दिया गया, जिसकी शुरुआत 130 से अधिक छात्रों के पहले बैच के साथ हुई।
इसी समय, सन 1857 में, कलकत्ता विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी। प्रेसीडेंसी कॉलेज के लगभग 23 छात्रों ने सन 1857 में कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित पहली प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की थी, जिनमें प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय भी शामिल थे, जो विश्वविद्यालय से कला विषय में स्नातक करने वाले दो छात्रों में से एक थे।
विडंबना यह थी, कि उस समय के प्रतिष्ठित कॉलेजों में से एक होने के बावजूद प्रेसीडेंसी कॉलेज का अपना कोई भवन या परिसर नहीं था। कक्षाओं के लिये अस्थायी व्यवस्था की जाती थीं और अधिकतर कक्षाएं संस्कृत कॉलेज के दो खंडों में लगती थी। इसकी स्थापना के लगभग दो दशक बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज को अपना एक भवन मिला। सरकार से मिले नये कॉलेज भवन का उद्घाटन सन 1874-75 में हुआ। इसकी प्रयोगशाला में अच्छी गुणवत्ता वाले उपकरणों और सुविधाएं थीं। इसकी वजह से कई छात्र विज्ञान शाखा के प्रति आकर्षित होने लगे थे।
भौतिक विज्ञानी जगदीश चंद्र बोस और रसायनज्ञ आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रे जैसे प्रख्यात वैज्ञानिकों इस संस्थान में पढ़ाते थे। दिलचस्प बात यह है, कि इन दोनों वैज्ञानिकों ने अपने शुरुआती प्रयोग प्रेसीडेंसी कॉलेज की प्रयोगशालाओं में ही किये थे।
हैरानी की बात यह है, कि इस संस्थान में एक सदी बाद महिलाओं को दाख़िला मिलना शुरू हो सका। सन 1897 के अपवाद को अगर मान लें, तो कॉलेज में महिलाओं को दाख़िला मिलना बहुत मुश्किल था। स न1897 में कॉलेज के पहले भारतीय प्राचार्य पी.के. रॉय की बेटी चारुलता रॉय और कॉलेज के मेघावी छात्र रहे रजनी नाथ रे की बेटी अमिया रे को दाख़िला मिला था। उसके बाद सन 1944 में ही महिलाओं को
संस्थान में दाख़िले की अनुमति मिली थी। इन वर्षों में संस्थान से विज्ञान, राजनीति और कला के क्षेत्र में कुछ सबसे विशिष्ट छात्र निकले। संस्थान के कुछ उल्लेखनीय पूर्व छात्रों में बोस-आइंस्टीन सांख्यिकी के गणितज्ञ सत्येंद्र नाथ बोस, खगोल भौतिकीविद् मेघनाद साहा, वैज्ञानिक पी.सी. महालनोबिस, वकील चित्तरंजन दास,भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और स्वामी विवेकानंद रहे हैं।
7 जुलाई सन 2010 को, प्रेसीडेंसी कॉलेज को इसके समृद्ध इतिहास और उच्च स्तरीय शिक्षा की वजह से विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया।
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