प्रवीर सिंह भंजदेव- आदिवासियों के ‘देवता’ राजा

आदिवासियों और पिछड़ों के अधिकारों के लिए संघर्ष, भारत की आज़ादी के पिचहत्तर साल बाद आज भी जारी है। ये कई अहिंसक और हिंसक आंदोलनों को जन्म दे चुका है। जब इन आंदोलनों ने क़दम जमाने शुरू किए थे, तब एक ऐसा व्यक्ति भी आया था जिसने आंदोलन तो किए, लेकिन हिंसा से दूर रहा था। ये आंदोलनकारी एक राजा था, जिसने अपने क्षेत्र के आदिवासियों के हक़ की लड़ाई लड़ी थी। आज भी उस इलाक़े के आदिवासी उसे देवता के तौर पर पूजते हैं। उस राजा का नाम था प्रवीर सिंह भंजदेव।

बस्तर रियासत ( अब छतीसगढ़ राज्य का ज़िला) के तेरहवें शासक प्रवीर सिंह भंजदेव ने आदिवासियों के हितों की लड़ाई लड़ी थी, लेकिन उनके संघर्ष को राष्ट्रीय स्तर पर महत्व नहीं दिया गया । उस संघर्ष की क़ीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी । लेकिन उनके उस बलिदान से देशभर के आदिवासियों को एकजुट होने की प्रेरणा मिल गई थी।

 

भंजदेव बस्तर के शाही परिवार से ताल्लुक रखते थे, जिसकी स्थापना चौदहवीं शताब्दी बताई जाती है। उस शाही परिवार की जड़ें वारंगल (अब तेलंगना राज्य में) के काकातिया साम्राज्य से जुड़ी थीं। ये साम्राज्य उस काल में स्थापित हुआ था, जब उसके तत्कालीन शासक प्रताप देव को ख़िलजी सल्तनत के प्रभावशाली सेनापति उलुग ख़ान ने वारंगल में, हमले के दौरान गिरफ्तार कर लिया था। इसी वजह से उनके भाई अन्नमदेव को अपने ख़ज़ाने और ख़ानदान के साथ बस्तर के जंगलों का रुख़ करना पड़ा था। गोंड जनजाति उन जंगलों में पहले से रह रही थी। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार उन्होंने अपनी ईष्ट देवी दंतेश्वरी के आदेश पर वहीं अपना गढ़ बनाया, जिसे आज दंतेवाड़ा कहा जाता है । देवी दंतेश्वरी का मंदिर यहाँ आज भी मौजूद है।बस्तर के पहले शासक अन्नमदेव के वंशज इस मंदिर के पुजारी माने गए और ये परम्परा आज भी क़ायम है ।

प्रतापदेव के वंशजों ने कई सदियों तक बस्तर में शांतिपूर्वक शासन किया, जहां पर अर्थव्यवस्था वस्तु विनिमय प्रणाली या बार्टर सिस्टम के आधार पर चलती थी । लेकिन अंग्रेज़ों के आने से सब कुछ बदल गय़ा। बिचौलियों के माध्यम से अर्थव्यवस्था नोटों और सिक्कों के आधार पर चलने लगी थी और नई नीतियों से आदिवासियों पर अत्याचार भी होने लगे थे। इससे तंग आकर आदिवासियों ने वहाँ विद्रोह किया, जिसे भूमकाल विद्रोह (सन 1910) के नाम से जाना जाता है। हालांकि ये विद्रोह कम समय में ही कुचल दिया गया था। लेकिन इस विद्रोह ने आदिवासियों के भीतर प्रतिशोध की चिंगारी ज़रूर पैदा कर दी थी ।

इसी दौरान, भंजदेव का जन्म, मेघालय राज्य की राजधानी शिलॉग में, 25 जून,1929 को हुआ था। कहीं-कहीं उनकी जन्म तिथि 12 मार्च या 12 जून भी बताई गई है। इनकी माता बस्तर की महारानी प्रफुल कुमारी देवी बस्तर की शासिका थीं।इसमें ख़ास बात ये थी कि महाराजा रूद्र प्रताप की कोई औलाद नहीं थी। इसीलिए उनकी वसीयत के मुताबिक़ महारानी प्रफुल कुमारी को बस्तर की गद्दी पर बैठना था।यह वह दौर था, जब भारतीय रियासतों की सत्ता पुरुष के हाथ में ही होती थी। महारानी प्रफुल कुमारी के राज्याभिषेक के मौक़े पर, राजमहल में विवाद पैदा हो गया, इसलिए कि वह महिला थीं। स्थितियों को बिगड़ता देख, महारानी का विवाह मयूरभंज (मौजूदा ओडिशा में) के राजकुमार प्रफुल चन्द्र भंजदेव से करवाया गया। उसी विवाह के बाद प्रवीर भंजदेव का जन्म हुआ था।

प्रवीर की ज़िन्दगी ने अभी चलना ही शुरू किया था कि महारानी का रहस्यमई परिस्थितियों में, 28 फ़रवरी 1936 को निधन हो गया। शासकों की परम्परा को कायम रखते हुए छः बरस की उम्र में ही प्रवीर भंजदेव को औपचारिक तौर पर बस्तर का शासक घोषित कर दिया गया था। लेकिन इनके नाम पर एक अंग्रेज़ अधिकारी रियासत का कामकाज संभाल रहा था। प्रवीर अपनी प्राथमिक शिक्षा राजकुमार कालेज रायपुर से पूरी करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए लन्दन चले गए । ये इत्तिफ़ाक़ की बात थी, कि जिस वर्ष (1947) में वो अट्ठारह बरस की उम्र में स्वदेश लौटे थे, उसी समय भारत को अंग्रेज़ों से आज़ादी मिल गई थी । देश में माहौल बदलते रहा था। नए कारख़ाने लग रहे थे। लेकिन संसाधनों का इस्तेमाल सही तरीक़े से नहीं हो रहा था। निम्नवर्ग के हितों का ध्यान नहीं रखा जा रहा था। ऐसे हालात को देखते हुए, प्रवीर समझ गए थे कि प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रखने और आदिवासियों के हितों के लिए उन्हें एक लम्बी लड़ाई लड़नी होगी।

प्रवीर भंजदेव की ये लड़ाई आज़ादी मिलने के बाद ही शुरू हो गई थी, जब उनके पड़ौसी, हैदराबाद के निज़ाम ने अपनी रियासत का भारत में विलय करने से इनकार कर दिया था और प्रवीर को हैदराबाद रियासत के साथ मिलने के लिए कहा था। लेकिन प्रवीर ने अनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। उसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि वह, अव्वल दर्जे की लौह अयस्क की खानों से मालामाल बैलाडीला को खोना नहीं चाहते थे। बैलाडीला उनकी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत लाभदायक इलाक़ा था । आदिवासियों के लिए विकास की उम्मीद में, उन्होंने भारतीय संघ में विलय होना मंज़ूरी कर लिया। इस तरह से बस्तर, पहले मध्य भारत फिर मध्य प्रदेश का हिस्सा बन गया।

डॉ.जयपाल सिंह मुंडा और डॉ. भीमराव अम्बेडकर, संसद और भारतीय संविधान में आदिवासियों के हितों के लिए प्रावधान तय कर चुके थे। लेकिन अमल में, केन्द्रीय सरकार का रवैया ढ़ीला रहा। यह हालात देखकर प्रवीर भंजदेव अपने इलाक़े और फिर देश के अन्य क्षेत्रों में आदिवासियों में, उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता फ़ैलाने में व्यस्त हो गए । ये बात मध्य प्रदेश राज्य सरकार को रास नहीं आई । उन्होंने भंजदेव को अपने लिए एक ख़तरे के तौर पर देखा। दोनों पक्षों के बीच अलगाव तब और बढ़ा, जब सन 1952 में हुए मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस जगदलपुर की सीट बुरी तरह हार गई। भंजदेव चुनाव जीत गए। इससे नाराज़ राज्य सरकार ने,एक साल बाद, उनपर फ़िज़ूल-खर्चे के ग़लत आरोप लगाकर, उनकी सम्पत्ति हड़प ली।

लेकिन प्रवीर भंजदेव कहाँ चुप बैठने वाले थे! उन्होंने सन 1955 में “बस्तर ज़िला आदिवासी किसान मज़दूर सेवा संघ” की स्थापना की थी, जिसकी वजह से वो आदिवासियों के चहेते बन गए। उनकी लोकप्रियता ने राज्य सरकार को हिला दिया था। कांग्रेस प्रवीर को अपनी पार्टी में शामिल करने के लिए मजबूर हो गई। सन 1957 विधानसभा चुनाव में प्रवीर कांग्रेस के टिकट पर, जगदलपुर से खड़े हुए और कामयाब रहे। अब वह एक सत्ताधारी दल के नेता बन चुके थे। चुनाव जीतने के बाद भंजदेव ने आदिवासियों के हितों के लिए गतिविधियाँ और तेज़ कर दीं थीं। अपनी गतिविधियों के कारण वो पूरे मध्य प्रदेश में लोकप्रिय हो चुके थे। लेकिन उनकी बढ़ती लोकप्रियता कांग्रेस हाईकमान को रास नहीं आ रही थी। आदिवासियों के प्रति सरकार के रवैए से निराश होकर सन 1959 में भंजदेव ने विधानसभा से इस्तीफ़ा दे दिया।

अब राज्य सरकार ने भंजदेव पर शिकंजा कसने के लिए साम, दाम, दंड, और भेद की नीति का इस्तेमाल किया। बस्तर इलाक़े में ग़ैर-क़ानूनी तौर से भूमि-अधिग्रहण जैसे नियम लागू किए जा रहे थे। जिसकी वजह से साल और सांगवान के जंगल ख़त्म होने लगे थे। यानी सरकार आदिवासी किसानों को उनके प्राकृतिक वातावरण से वंचित कर रही थी। प्रवीर ने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और प्रदेश मुख्यमंत्री को कई बार चिट्ठियां लिखीं, लेकिन उनकी ये कोशिश विफल रही। प्रवीर ने हार नहीं मानी और वह गाँव-गाँव जाकर आदिवासियों को उनके अधिकारों की लड़ाई के लिए एकजुट करने में जुट गए । प्रवीर को मिल रहे जन-समर्थन से भयभीत राज्य सरकार ने राज्य विरोधी गतिविधियों के बेबुनियाद आरोप लगाकर उन्हें 11 फ़रवरी सन 1961 को गिरफ़्तार कर लिया । उसके अगले ही दिन, उनके छोटे भाई विजयचन्द्र को बस्तर का राजा घोषित कर दिया गया । इस घटना ने आग में घी का काम किया।

इससे क्रोधित बस्तर के आदिवासियों ने विरोध प्रदर्शन किए। सरकार ने उनपर दमन करने के लिए हिंसक तरीकों का इस्तेमाल किया। इसकी शुरुआत 31 मार्च, 1961 को लौहंडीगुड़ा गोली काण्ड़ से हुई। जहां आदिवासियों के शांतिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन पर पुलिस ने गोली चलाई और जिसमें कई निहत्थे आदिवासी मारे गए I रिहाई के बाद प्रवीर ने राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासियों के लिए “महाराजा पार्टी” का गठन किया। सन 1962 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने इसी पार्टी के बैनर पर चुनाव लड़ा और बस्तर की 10 विधानसभा सीटों में से 9 पर बड़ी जीत हासिल की।

प्रवीर की ये जीत और उनका संघर्ष राष्ट्रीय स्तर पर सामने आ चुका था I लेकिन लगान वसूली. महिलाओं पर पुलिस अत्याचार, भुखमरी और प्रगति के नाम पर चलाई गई परियोजनाओं में स्थानीय लोगों को वंचित रखा जा रहा था। इस तरह सरकार लोगों को तंग कर रही थी। ये प्रवीर की कोशिशों का ही नतीजा था, कि खनिज निकालने वाले उद्योगपतियों को बस्तर से दूर रखा जाने लगा I सरकार और प्रवीर के बीच की आँख-मिचोली का खेल अब दिल्ली के गलियारों तक पहुँच गया था। प्रवीर ने अपनी मांगों के लिए अनशन किया और गृहमंत्री गुलज़ारी लाल नंदा को आश्वासन देने पर मजबूर होना पड़ा I अब मध्यप्रदेश सरकार का ग़ुस्सा आसमान पर पहुँच चुका थाI

18 मार्च, 1966 में चैत पूजन के दौरान, प्रवीर के महल में आदिवासियों का जमावड़ा हुआ, जहां बढ़ती भीड़ की स्थिति बेक़ाबू हो गई। इसी बीच वहां तैनात पुलिस और आदिवासियों के बीच झड़प शुरू हो गई। पुलिस ने प्रवीर के महल को घेर लिया था I ये संघर्ष लगभग हफ़्तेभर तक चला। 25 मार्च,1966 को प्रवीर ने आत्मसमर्पण का फ़ैसला किया और महिलाओं और बच्चों को सबसे पहले बाहर भेजा। जब पुलिस ने उन महिलाओं और बच्चों पर लाठियां बरसाईं तो आदिवासियों ने पुलिस पर बाण-धनुष से हमला कर दिया। मौक़े का फ़ायदा उठाकर राज्य सरकार के इशारों पर पुलिस ने प्रवीर पर गोलियों की बारिश कर दी। प्रवीर के शरीर में कुल पच्चीस गोलियां लगीं। उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया। आज तक मध्यप्रदेश सरकार की फ़ाइलों में यही दर्ज है, कि गोलियां आत्मारक्षा के लिए चलाई गई थींI

वर्ष 2000 में बस्तर नए छत्तीसगढ़ राज्य का हिस्सा बन गया और तबसे आदिवासियों के विकास के लिए कई क़दम उठाए जा चुके हैं I हालांकि इन योजनाओं का लाभ पूर्ण रूप से नहीं मिल पाया हैI ज़ाहिर है, आदिवासियों के विकास की राह में दो बड़ी रुकावटों पूंजीवाद और भ्रष्टाचार ही हैं। इन्हीं हालात ने आदिवासियों की समस्याओं को और भी गम्भीर बना दिया हैI

आज भी बस्तर के आदिवासी प्रवीर भंजदेव की सम्पूर्ण श्रद्धा से पूजा करते हैं I दिलचस्प बात ये है, कि हर वर्ष दशहरे के उपलक्ष्य में अपने ईष्ट देवी दंतेश्वरी के साथ-साथ भंजदेव को भी पूजा जाता हैI उनके पोते कमल चन्द्र भंजदेव राजनीति में सक्रीय हैं I प्रवीर ने एक किताब भी लिखी थी, “आई प्रवीर – द गॉड ऑफ़ आदिवासी” ये किताब हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में उपलब्ध है I

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