अहमदाबाद से क़रीब 400 कि.मी. दूर एक छोटा सा शहर है पोरबंदर जिसका नाम सारा देश जानता है । ये वो जगह है जहां महात्मा गांधी पैदा हुए थे और जहां उनका बचपन बीता था । लेकिन ज़्यादातर लोगों को जो बात नहीं मालूम है वो ये है कि मोहनदास करमचंद यानी महात्मा गांधी के पहले उनके पिता और दादा सहित गांधी वंश की पांच पीढ़ियां पोरबंदर साम्राज में दीवान या प्रधानमंत्री के पद पर रह चुकी थीं । शायद मोहनदास गांधी भी इस परंपरा का अनुसरण करना चाहते हों और इसीलिए उन्होंने क़ानून की पढ़ाई करने का फ़ैसला किया लेकिन अंत में वह पारिवारिक परंपरा से अलग हो गए ।
किवदंतियों और पौराणिक कथाओं से भरपूर पोरबंदर छोटा मगर हमेशा से एक महत्वपूर्ण शहर रहा है । एक पौराणिक कथा के अनुसार यहां भगवान कृष्ण के बाल सखा सुदामा का जन्म भी यहीं हुआ था । इसीलिये ऐतिहासिक रुप से पोरबंदर का बहुत महत्व है । यह बस्ती बहुत पहले बस गयी थी ।
पोरबंदर साम्राज की स्थापना क़रीब 1193 ई. में जेठवा राजपूत शासकों ने की थी । सदियों तक इस छोटे से साम्राज पर गुजरात के सुल्तानों, मग़लों, बड़ोदा के गायकवाड़ों और अंत में अंग्रेज़ों का क़बज़ा रहा । गुजरात के तट पर बंदरगाह होने की वजह से यहां मध्य पूर्व और अफ़्रीक़ी देशों के व्यापारी कारोबार के लिए आया करते थे इसीलिए पोरबंदर में ख़ुशहाली और समृद्दि थी ।
17वीं शताब्दी में मुग़ल सल्तनत के पतन के बाद गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में सैकड़ों रियासतें बन गईं जिनमें लगातार युद्ध होते रहते थे । गुजरात के मुग़ल सूबेदार के एक पुत्र, जो बाबी वंश के थे, ने ख़ुद को जूनागढ़ का नवाब घोषित कर दिया था । एक तरफ़ जहां पोरबंदर पर जेठवा राजपूतों का शासन था जो ख़ुद को हनुमान का वंशज बताते थे वहीं दूसरी तरफ़ नवानगर (जामनगर), राजकोट, गोंडल और कच्छ पर जडेजा वंश का शासन था जो भगवान कृष्ण के वंशज होने का दावा करते थे । इनके अलावा बड़ोदा के मराठा गायकवाड़, अमरेली और द्वारका सहित सौराष्ट्र के कई क्षेत्रों पर राज कर रहे थे । अहमदाबाद से पोरबंदर जाने के लिए आपको कम से कम 50 अलग अलग रियासती इलाक़ों से हो कर गुज़रना पड़ता था । इसीलिए सौराष्ट्र को “सामंती चक्रव्यूह” माना जाता था ।
महात्मा गांघी के पूर्वज लालजी गांधी के बारे में हमें पहला संदर्भ 1674ई. में मिलता है । गांधी परिवार का असली सम्बंध घोघा (अब भावनगर) से रहा है ,जहां उनका किराने के सामान का कारोबार हुआ करता था ।5वीं सदी में घोघा एक महत्वपूर्ण बंदरगाह हुआ करता था। कहा जाता है कि घोघा शहर ज्वार-लहर में नष्ट हो गया था इसीलिए लालजी गांधी और उनके परिवार को जूनागढ़ रियासत के कुटियाना गांव में जाकर बसना पड़ा था । वहां लालजी गांधी एक स्थानीय ज़मींदार के मैनेजर बनकर, उनकी संपत्ति की देखरेख करने लगे । कुछ समय बाद उनका परिवार वहां से 24 मील दूर पोरबंदर चला गया जहां लालजी गांधी नायब दीवान (उप प्रधानमंत्री) बन गए । उन्होंने ये नयी ज़िम्मेदारी इतनी अच्छी तरह से निभाई कि गांधी परिवार के लोग पोरबंदर साम्राज के चहेते प्रशासक बन गए । वे एक तरह से साम्राज के मज़बूत स्तंभ बन गए थे ।
लालजी गांधी के बाद उनके पुत्र रामजी गांघी और फिर उनके पुत्र राहीदास गांधी उप प्रधानमंत्री बने । ये राहीदास गांधी के पुत्र हरिजीवनदास गांधी (गांधी जी के परदादा) ही थे जिन्होंने 1771 ई. में पोरबंदर में हवेली ख़रीदी थी । इसी हवेली में सन 1869 में महात्मा गांधी का जन्म हुआ था । उस समय की रवायत के मुताबिक़ हवेली की रखवाली ख़ास बलूची गार्ड किया करते थे ।
महात्मा गांधी के पहले गांधी परिवार में सबसे शौहरत, हरिजीवनदास के पुत्र और महात्मा गांधी के दादा उत्तमचंद गांधी को मिली थी । उन्होंने पोरबंदर बंदरगाह में बतौर कस्टम कॉंट्रेक्टर अपना करिअर शुरु किया था। अपनी प्रशासनिक सूझबूझ से वह पोरबंदर के उप प्रधानमंत्री और फिर प्रधानमंत्री बन गए । उत्तमचंद ने पोरबंदर राज्य की करों से होनेवाली आमदनी कई गुना बढ़ा दी और राज्य को कर्ज़ से उबार ने में मदद की । उन्होंने मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने के लिए जूनागढ़ और अन्य पड़ौसी रियासतों से बातचीत भी की । उनके रहते गांधी परिवार सत्ता और समृद्धि के शिखर पर पहुंच गया था लेकिन सन 1831 में दृश्य एकदम बदल गया ।
सन 1831 में पोरबंदर के शासक राणा खिमोजी की अचानक मृत्यु हो गई और उनका 12 साल का पुत्र विकमातजी उनका उत्तराधिकारी बन गया जबकि उनकी बेवाह रानी रुपला बा राज्य-संरक्षक के रुप में शासन करने लगीं । रानी रुपाली बा एक निरंकुश शासक थीं जिनका पोरबंदर में ज़बरदस्त दबदबा था । धीरे-धीरे उत्तमचंद और रानी में मतभेद होने लगे । ये मतभेद तब और बढ़ गए जब रानी ने एक मामूली से राजकोष अधिकारी को मौत की सज़ा सुना दी । इस अधिकारी ने जान बचाने के लिए उत्तमचंद की हवेली में शरण ले ली । रानी ने उत्तमचंद से उस अधिकारी को उनके हवाले करने को कहा लेकिन उत्तमचंद ने उनकी बात मानने से इनकार कर दिया । बस फिर क्या था, रानी ने हवेली को उड़ाने के लिए तोपें भिजवा दीं लेकिन गांधी परिवार के अरब रक्षकों ने अंतिम सांस तक हवेली की रक्षा की । सुरक्षा गार्डों का कमांडर ग़ुलाम मोहम्मद मकरानी था जिसने पनी जान देकर गांधी परिवार को बचाया था । पोरबंदर में गांधी हवेली से लगे वैश्णव मंदिर में उनका स्मारक आज भी मौजूद है।
बहरहाल, स्थानीय अंग्रेज़ अधिकारियों के हस्तक्षेप की वजह से गांधी की जान बच गई वर्ना रानी के गुर्गों के हाथों उनका मारा जाना तय था । इसके बाद गांधी परिवार जूनागढ़ के अपने पैतृक गांव कुटियाना वापस आ गया ।
सन 1841 में रानी रुपाली बा की मृत्यु के बाद गांधी परिवार दोबारा पोरबंदर आ गया । वापस आने पर उन्हें न सिर्फ़ उनकी संपत्ति वापस मिल गई बल्कि उनका ख़िताब भी बहाल हो गया । उत्तमचंद के दो पुत्र करमचंद गांधी (महात्मा के पिता) और तुलसीदास गांधी (महात्मा के चाचा) भी पोरबंदर के प्रधानमंत्री पद पर रहे ।
करमचंद गांधी सन 1847 में पोरबंदर के दीवान बन गए । तब वह सिर्फ़ 25 साल के थे ।
वह इस पद पर 28 साल तक रहे । करमचंद बेहद सफल और लोकप्रिय दीवान थे । लेकिन सन 1876 में जब महात्मा गांधी क़रीब पांच साल के थे, करमचंद गांधी ने राजकोट का दीवान बनने का फ़ैसला किया जो पोरबंदर से कहीं ज़्यादा बड़ी और इज़्ज़तदार रियासत थी । उनकी जगह उनके छोटे भाई तुलसीदास पोरबंदर के दीवान बन गये । राजकोट के दीवान बनने से, पूरे सौराष्ट्र में करमचंद गांधी का रुतबा बहुत बढ़ गया था । वह कई छोटी छोटी रियासतों के बीच विवादों को सुलझाने में अहम भूमिका अदा करते थे । लेकिन अदालत की किसी साज़िश की वजह से रोजकोट में उनका कार्यकाल परेशानियों में फंस गया था । सन 1885 में उनका निधन हो गया ।
पिता की तरह मोहनदास भी दीवान बनना चाहते थे और पढ़ाई के लिए लंदन जाना चाहते थे ।
लेकिन पोरबंदर रियासत ने आर्थिक मदद की उनकी दरख़्वास्त यह कहकर ख़ारिज कर दी कि पोरबंदर जैसी ग़रीब रियासत लंदन में उनकी पढ़ाई के लिए पांच हज़ार रुपये का ख़र्च नहीं उठा सकती ।
देखा जाए तो एक तरह से ये अच्छा ही हुआ क्योंकि अगर गांधीजी को आर्थिक मदद मिल गई होती तो उन्हें भी वही काम करते जो पांच पीढ़ियों से उनके बुज़ुर्ग करते चले आ रहे थे । अगर मोहनदास गांधी दीवान बन गये होते तो भारत ने एक महात्मा को खो दिया होता ।
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