पहलवान किक्कर सिंह और उनकी समाधि

पंजाब राज्य के मौजूदा ज़िले तरनतारन के सरहदी गांव खालड़ा से महज दो-तीन किलोमीटर दूर आबाद गांव घनिए-के में मशहूर पहलवान किक्कर सिंह की समाधि है। भारत-पाकिस्तान सरहद के पार बरकी रोड पर मौजूद इस स्मारक की मौजूदा हालत को देखकर दोनों ओर के लोग चिंतित हैं। लेकिन पाकिस्तान सरकार की तरफ़ से कोई सहयोग नहीं मिल रहा है। इसीलिये स्मारक के रख-रखाव के लिए कुछ भी नहीं हो पा रहा है। किक्कर पहलवान के चाहनेवालों में सभी धर्मों के लोग शामिल हैं।

“घनीएं-के” गांव मौजूदा समय में पाकिस्तान में लाहौर से क़रीब 22 किलोमीटर दूर, सरहदी गांव पडाना और हुढ़ियारा के बीच आबाद है। बताते हैं कि किक्कर सिंह(असली नाम प्रेम सिंह) के पिता का नाम ज्वाला सिंह और माता का नाम बीबी साहिब कौर था। उनका जन्म 13 अक्तूबर सन 1857 को हुआ था। ज्वाला सिंह के बुज़ुर्ग पहले तरनतारन के नज़दीकी गांव में रहते थे। उसके बाद ज्वाला सिंह अपने भाईयों आला सिंह, देवा सिंह और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ, गांव “घनीएं-के” में रहने लगे।

ज्वाला सिंह पहलवानी के शौकीन थे, और अच्छे ढ़ील-ढ़ोल वाले जवान थे। रोज़ी-रोटी के जुगाड़ के लिए वे अमृतसर में ऊँटों पर लोहा ढ़ोने का काम करते थे। उन दिनों पंजाब के अन्य शहरों सहित अमृतसर में आए दिन डाके पड़ते रहे थे। अंग्रेज़ पुलिस असली डाकुओं को कम ही पकड़ पाती थी। अलबत्ता झूठे गवाह खड़े करके बेक़सूर और भोले-भाले लोगों को निशाना बनाती रहती थी। इसी तरह एक रोज़ अमृतसर के एक सरकारी बैंक में डाका पड़ा और पुलिस ने शक के आधार पर ज्वाला सिंह को गिरफ़्तार करके अदालत में पेश कर दिया। अदालत ने बिना किसी सुबूत के उन्हें सात साल की सज़ा सुनाकर लाहौर कारागर में भेज दिया। इस मामले में बेक़सूर ज्वाला सिंह को न सिर्फ़ जेल की सज़ा हुई, बल्कि पुलिस ने उनके घर पर भी छापामारी शुरू कर दी। इससे घबराकर उनके दोनों भाई आला सिंह और देवा सिंह गांव छोड़कर किसी अज्ञात स्थान पर चले गए। उनकी पत्नी साहिब कौर अपने पुत्र प्रेम सिंह उर्फ़ किक्कर सिंह को लेकर अपने मायके नूरपुर गांव चली गईं। नूरपुर गांव भी मौजूदा समय बरकी रोड पर आबाद है। यह नूरपुर गांव बहु-चर्चित पंजाबी फ़िल्म ‘शहीद-ए-मोहब्बत’ के नायक बूटा सिंह का पैतृक गांव है। प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर बनी उस फ़िल्म की कहानी इसी गांव के इर्द-गिर्द घूमती है।

उन दिनों जेल में सज़ा काट रहे पुराने क़ैदियों को अंग्रेज़ अधिकारियों के बंगलों तथा सरकारी दफ़्तरों में साफ़-सफ़ाई और दीगर कामों के लिए भेजा जाता था। ऐसे ही एक मौक़े पर ज्वाला सिंह एक अंग्रेज़ अफ़सर के बगीचे में काम कर रहे थे। तभी अचानक बंगले में आग लग गई। देखते ही देखते आग पूरे बंगले में फैल गई और अंग्रेज़ अफ़सर का पूरा परिवार उस आग में फ़ंस गया। इससे पहले कि उन्हें कोई जानी नुक़सान पहुचता, ज्वाला सिंह ने अपनी जान जोखिम में डालकर उन लोगों को बचा लिया।

ज्वाला सिंह की इस बहादुरी के लिए उस अंग्रेज़ अफ़सर की सिफ़ारिश पर सरकार ने उन्हें इनाम में 400 रूपये दिए। इसके बाद उस अफ़सर ने खुद ज्वाला सिंह के केस की जाँच शुरू की, जिसमें यह साफ़ हो गया, कि ज्वाला सिंह को इस केस में बिला वजह फँसाया गया था। तीन वर्ष की क़ैद के बाद जेल से रिहा होकर ज्वाला सिंह सीधे अपने गांव गये। उसके बाद वह अपनी पत्नी के मायके गये और अपनी पत्नी और पुत्र प्रेम सिंह को साथ ले आये।

ज्वाला सिंह ने अपने पुत्र को एक बड़ा पहलवान बनाने के लिए उसकी कसरत और ख़ूराक़ पर विशेष ध्यान देना शुरू किया। प्रेम सिंह ने भी अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए जी तोड़ मेहनत की और जवान होने के बाद, अपने आप को इस क़ाबिल बना लिया कि उस समय के नामी-गिरामी पहलवानों को अखाड़े में धूल चटा सके।

पहलवान प्रेम सिंह का नाम किक्कर सिंह क्यों पड़ा? इसकी एक दिलचस्प कहानी है। एक बार प्रेम सिंह जम्मू रियासत में एक बड़ी कुश्ती जीत कर घर वापस पहुँचे, तो उन्हें बहुत भूख लगी हुई थी। माँ से खाना माँगा तो माँ ने बताया कि घर में जलाने के लिए लकड़ियाँ नहीं थीं, इसीलिए वह खाना नहीं पका पाईं। इसपर प्रेम सिंह घर से बाहर चले गये और कुछ देर बाद जब वे घर वापस आये, तो उन्होंने अपने कंधे पर किक्कर का एक घना वृक्ष उठा रखा था, जिसे वे जड़ों सहित उखाड़ लाये थे। इस घटना के बाद गांव के लोगों ने उन्हें प्रेम सिंह की बजाये पहलवान किक्कर सिंह कहना  शुरू कर दिया।

पहलवान किक्कर सिंह ने जम्मू से लेकर कलकत्ता तक, ज़्यादातर सभी रियासतों के महाराजाओं के सामने अपनी कुश्ती-कला का प्रदर्शन किया था, और हमेशा विजयी रहे थे। कोई भी पहलवान अखाड़े में उनके सामने ज़्यादा देर तक टिक नहीं पाता था। उन्होंने उस समय के, अमृतसर के मशहूर पहलवानों…. ग़ुलाम और उसके छोटे भाई कल्लू से भी कई कुश्तियां लड़ीं थीं।

लेखक सरदार प्यारा सिंह रछीन अपनी पुस्तक ‘भारत के रूस्तम पहलवान’ के बारे में लिखते हैं कि किक्कर सिंह का क़द सात फ़ुट के क़रीब, वज़न साढ़े सात मन( 300 कि.लो.), छाती का घेराव 80 इंच और डोले(बाज़ू) दो फ़ुट मोटे थे।

बताया जाता है, कि एक बार चनण सिंह नाम के एक पहलवान ने किक्कर सिंह से मिन्नत की, कि वह महज़ शोहरत हासिल करने के बहावलपुर रियासत के महाराजा के सामने किक्कर सिंह के साथ कुश्ती लड़नाना चाहता है। उसने किक्कर सिंह को इस बात के लिए राज़ी कर लिया, कि वे दोनों महाराजा के सामने कुश्ती का महज माटक करेंगे, कोई ज़ोर-अज़माइश नहीं होगी और वह दोनों एक दूसरे को हराने का प्रयास नहीं करेंगे।

तय किये गये दिन और समय  पर सब लोगों के सामने कुश्ती शुरू हुई ।दोनों पहलवानों की आपसी सांठ-गांठ के कारण काफ़ी देर तक कुश्ती किसी नतीजे तक नहीं पहुँच सकी। फिर एकाएक चनण पहलवान ने चलाकी से अपना पूरा ज़ोर लगाकर किक्कर पहलवान को चित करके कुश्ती जीत ली। किक्कर सिंह ने तुरंत महाराजा को चनण पहलवान की साज़िश के बारे में बता दिया। महाराजा को दोनों पहलवानों की उस साज़िश पर बहुत क्रोध आया और उन्होंने दोनों पहलवानों को जेल में डलवा दिया।

महाराजा के सलाहकारों ने  महाराजा को समझाया , कि किक्कर सिंह गांव का भोला-भाला युवक है। इसी वजह से वह चनण सिंह की साज़िश का शिकार बन गया है । सलाहकारों ने यह भी कहा कि, किक्कर सिंह को जेल में बंद रखने कि बजाए उसे दोबोरा अखाड़े में उतारा जाना चाहिये। और उन दोनों के बीच कुश्ती दोबारा करानी चाहिए। महाराजा के आदेश पर जब दोबारा उन दोनों पहलवानों की कुश्ती कराई गई, तो पलक झपकते ही किक्कर सिंह ने चनण पहलवान को ज़मीन पर पटक कर कुश्ती जीत ली । महाराजा ने ख़ुश होकर इनाम में उसे एक बड़ी जागीर दे दी।

पुस्तक ‘भारत के रूस्तम पहलवान’ के अनुसार किक्कर सिंह ने दो शादियां कीं थीं। इसमें से लाहौर के गांव घुरकविंड की रहने वाली उसकी पहली पत्नी रूप कौर थीं। जिनसे दो पुत्र अर्जुन सिंह तथा उधम सिंह का जन्म हुआ। किक्कर सिंह के बेटे उधम सिंह के तीन पुत्र थे… अच्छर सिंह, दर्शन सिंह तथा गुरचरण सिंह। जबकि लाहौर के गांव मरूड़ की रहने वाली किक्कर सिंह की दूसरी पत्नी अतर कौर ने सूरत सिंह नामक एक पुत्र को जन्म दिया था। किक्कर सिंह की बहन प्रेम कौर की शादी भिखीविंड के पास गांव सुरसिंह में हुई थी।

किक्कर सिंह ने गांव “घनिएं-के” में एक हवेली बनवाई थी जिसका नाम शहाना रखा गया था। 18 फ़रवरी सन 1914 को किक्कर सिंह का देहांत होने के बाद इसी हवेली में उनके पुत्रों ने उनकी समाधि का निर्माण कराया गया। यह समाधि क़रीब 100-125 स्क्वेयर फ़ुट ज़मीन पर बनी हुई है। एक ज़माने में समाधि की बाहरी दीवारों पर दिलकश तेल- चित्र बने हुए थे. लेकिन उन पर सफ़ेदी पोतकर  उनका अस्तित्व हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया गया है।

जबकि समाधि के अंदर की दीवारों पर बने तेल-चित्र, फूल-पत्तियों और देवी-देवताओं के चित्र साफ़ दिखाई देते हैं। समाधि का गुंबद आज भी क़ायम है। उक्त हवेली के खण्डहर और तीनों ओर से नानकशाही ईंटों से बनी दीवार आज भी मौजूद हैं। इस हवेली में आज भी,  बँटवारे के दौरान भारत से पाकिस्तान गये शरणार्थी मुस्लिम परिवार रह रहे हैं।

यह समाधि, जो कि नामी  पहलवान किक्कर सिंह की ज़िंदगी से जुड़ी होने के साथ-साथ पुराने साझे पंजाब का शानदार इतिहास भी समेटे हुए है। जिसको सहेज कर रखना सब की नैतिक ज़िम्मेदारी है।

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