पटपड़गंज: पूर्वी दिल्ली की ख़ूनी जंग का इतिहास

आज आप ख़रीदारी करने या व्यापार के लिए पटपड़गंज जाते हैं, लेकिन इसके बाहरी इलाक़े में एक ख़ूनी इतिहास भी दबा पड़ा है। 19वीं सदी के आरंभ में यहां मराठों और मुग़लों की संयुक्त सेना और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज के बीच युद्ध लड़ा गया था। ये युद्ध अंग्रेज़ों ने जीता और उनका दिल्ली पर कब्ज़ा हुआ और फिर भारत की तस्वीर हमेशा के लिए बदल गई।

पटपड़गंज युद्ध (11 सितंबर,सन 1803) – यह युद्ध ,इसमें शामिल सभी पक्षों के लिए एक मोड़ साबित हुआ। युद्ध से मुग़ल साम्राज्य की प्रासंगिकता समाप्त हो गई और मराठा साम्राज्य का 15 साल के भीतर पतन हो गया। प्लासी और बक्सर के युद्ध के बाद ये पटपड़गंज का युद्ध था, जिसके बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूरे उत्तर भारत में अपने पांव पसार लिए थे।

जैसा कि हम सब जानते हैं कि दिल्ली की कहानी 17वीं सदी में शुरु होती है। लाल क़िले की चारदीवारी के बीच जब शाहजानाबाद बन रहा था तभी व्यापार और व्यवसायिक गतिविधियों के लिए इस प्रमुख शहरी परिसर के बाहर इलाक़े भी विकसित हो रहे थे। इनमें एक इलाक़ा पटपड़गंज था, जहां दोआब यानी नदियों के बीच के क्षेत्रों में पैदा होने वाला अनाज का भंडारण होता था। यहां से अनाज व्यापारियों को बेचा जाता था, जो नज़दीक के पहाड़गंज के बाज़ारों में कारोबार करते थे और वहीं रहते भी थे। पटपड़गंज उर्दू के दो शब्दों से मिलकर बना है- “पटपड़” यानी “बंजर ज़मीन” और “गंज” यानी “बाज़ार”।

दिल्ली पर सदियों से हमलावरों और दुश्मनों के हमले होते रहे थे, लेकिन दिल्ली की तुलना में पटपड़गंज शांत रहा था जो यमुना नदी के पूर्वी तट पर स्थित था। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है, कि पटपड़गंज ने हिंसा नहीं देखी। सन 1753 में रोहिल्ला सरदार नजीबउद्दौला ने मुग़ल बादशाह अहमद शाह बहादुर (सन 1748-1754) की मदद के एवज़ में अपना मुआवज़ा लेने के लिए यहां हमला किया था। नजीबउद्दौला ने पटपड़गंज में बहुत लूटपाट की थी और यहां के निवासियों के साथ हुए समझोते के तहत 35 हज़ार रुपए मिलने के बाद ही यहां से गया था।

जुलाई सन 1757 में मराठा सैनिकों ने दिल्ली पर हमला करने के लिए यहां डेरा जमाया था। मराठा कमज़ोर मुगल बादशाह आलमगीर-द्वितीय से दिल्ली की सत्ता छीनना चाहते थे। आलमगीर-द्वितीय को, उसी साल अफ़ग़ान शासक अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली पर अपने चौथे हमले के दौरान गद्दी पर बैठाया था। लेकिन दिल्ली का नियंत्रण नजीबउद्दौला को दिया गया था और इमाद-उल-मुल्क को नजीबउद्दौला की निगरानी में रखा गया था। इमाद-उल-मुल्क को डर था कि कहीं अफ़ग़ान शासक दिल्ली की सत्ता न हथिया ले, इसलिए उसने नजीबउद्दौला को बेदख़ल करने और दिल्ली पर कब्ज़े के लिए मराठों को बुलाया था। इस बीच रघुनाथ राव नमुदार हुआ और दिल्ली मराठों के हाथों में चली गई। इसी के साथ मराठों की उत्तर-पश्चिम इलाकों को कब्ज़ाने की मुहिम शुरु हुई।

मुग़ल साम्राज्य के मध्य में पटपड़गंज छोटा-सा इलाक़ा था। मुग़ल साम्राज्य बादशाह औरंगज़ेब (सन1658-1707) के निधन के बाद बिखरने लगा था और इस शांत इलाक़े में भी हालात बदलने लगे थे।

मुग़ल साम्राज्य इससे पहले कभी इतना कमज़ोर नहीं था और एक के बाद एक कमज़ोर मुग़ल शासक को देखने के बाद मराठों को लगा कि दिल्ली को फ़तह किया जा सकता है । इस तरह उन्होंने उत्तर भारत की ओर कूच करना शुरू कर दिया। पहले उन्होंने सन 1723 में मालवा को (अब मध्यप्रदेश में), फिर सन 1735 में राजपुताना को (अब राजस्थान में) को जीता। सन 1737 और सन 1757 में दिल्ली में युद्ध के बाद, पेशवा बाजीराव- प्रथम और रघुनाथ राव के नेतृत्व में मराठों ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया।

मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह (सन 1719-1748) की मृत्यु के बाद क्षेत्रीय शक्तियों ने ख़ूब लूटपाट और आगज़नी की। उस समय जाट और सिख क्षेत्रीय शक्ति के रुप में उभर रहे थे और यहां तक कि दक्कन में भी मराठा शक्तिशाली हो रहे थे। इस बीच सन 1739 में नादिर शाह ने भी क़त्लेआम किया क्योंकि बादशाह ने नादिर शाह के अफ़ग़ानिस्तान पर हमले के समय काबुल में अफ़ग़ानों के लिये मुग़ल सल्तनत की सरहदों को बंद करने से इनकार कर दिया था। अगर मुग़ल बादशाह सरहद बंद करता, तो नादिर शाह के लिए अफ़ग़ानों की ताक़त को बेअसर करना आसान हो जाता। वैसे भी उसकी नज़र भारत की धन-दौलत पर तो थी ही।

सन 1761 में पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों को अफ़ग़ान शासक अहमद शाह अब्दाली के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। मराठों का उत्तर-पश्चिम भारत में प्रभाव बढ़ने लगा था, जिससे अब्दाली चौकन्ना हो गया था। इसीलिए युद्ध हुआ। इसी दौरान अपदस्थ नजीब ने अव­­­­ध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ मिलकर मराठों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला। लेकिन अब्दाली मराठों की बहादुरी से इतना प्रभावित हुआ, कि उसने दिल्ली का प्रशासन मराठों के दे दिया और अफ़ग़ानों के लिए पंजाब से लेकर सुतलज तक का क्षेत्र रख लिया। उसने शाह आलम-द्वितीय (सन 1759-1806) को मुग़ल शासक के रुप में भी स्वीकार कर लिया। इसके पहले शाह आलम, इमाद-उल-मुल्क और रोहिल्ला सरदार नजीबउद्दौला से डरकर पूर्वी भारत में भटक रहा था। इमाद-उल-मुल्क के हाथ में अधिकतर सत्ता थी जिसने शाह आलम-द्वितीय के पिता आलमगीर-द्वितीय को मुग़ल बादशाह बनाया था और अब उसने अपनी शर्तों पर शाहजहां-तृतीय को शासक बना दिया था, जो उसकी हाथ की कठपुतली था।

इस बीच प्रायद्वीपीय भारत में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी एक कारोबारी कंपनी का चोला उतारकर बम्बई और मद्रास को प्रमुख तटीय इलाकों में विकसित करने लगी थी। इसके बाद सन 1757 में पलासी और सन 1764 में ब­­­­­­­­­­­­क्सर का युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेज़ों की निर्णायक जीत हुई। इन जीतों की वजह से अंग्रेज़ एक राजनीतिक ताक़त के रुप में स्थापित हो गए। अंग्रेज़ों ने इन युद्धों में मुग़ल, अवध और बंगाल के नवाबों की संयुक्त सेना को हराया था।

पराजय के बाद सन 1765 में इलाहबाद संधि हुई जिसके तहत बादशाह शाह आलम-द्वितीय ने बिहार, बंगाल और उड़ीसा की दीवानी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दी।

शाह आलम-द्वितीय अब सिर्फ नाम का बादशाह रह गया था और वह अफ़ीम और अय्याशी में डूब गया। उसे डर था कि नजीबउद्दौला का पोता रोहिल्ला ग़ुलाम क़ादिर उसके हरम की महिलाओं को बहला फ़ुसलाकर उसकी हत्या करने की साजिश रच रहा है। इसी वजह से उसने ग़ुलाम क़ादिर का नपुन्स्कीकरण करके, रिहा कर दिया। ग़ुलाम क़ादिर, अंतिम रोहिल्ला हमले के बाद से जेल में बंद था।

इस दौरान शाह आलम-द्वितीय अपना साम्राज्य खोता रहा और ख़ासकर सन 1783 में उसके साम्राज्य का कुछ हिस्सा सिखों के हाथों में चला गया। अगले साल क्षेत्रीय शक्तियों से मुक़ाबला करने में विफल रहने के बाद उसने उज्जैन के शासक और मराठा राजनीतिज्ञ महादजी शिंदे को दिल्ली बुलाकर अपने साम्राज्य का राज्याधिकारी बना दिया। इस तरह से महादजी शिंदे के हाथ में सरकार और प्रशासन दोनों आ गए। इसके पहले वह पाटन और मर्टा में राजपूतों से लड़ने में व्यस्त था जहां उसने जीत हासिल की थी।

इस गठबंधन की वजह से सन 1787 में ग़ुलाम क़ादिर और सिखों का संयुक्त हमला विफल हो गया। लेकिन दूसरे हमले में ग़ुलाम क़ादिर ने बदला ले लिया। उसने शाह आलम-द्वितीय की आंखें फोड़ दीं और कई शाही महिलाओं और अन्य महिलाओं को परेशान किया और उन्हें भुखमरी की कगार पर लाकर अपमानित किया। मार्च सन 1788 तक महदजी शिंदे अपने सेना के साथ पहुंच गया और दिल्ली में क़ानून व्यवस्था बहाल हो गई। शाह आलम- द्वितीय के आदेश पर ग़ुलाम क़ादिर की यातना देकर हत्या कर दी गई। लेकिन जल्द ही मराठों और मुग़लों के हाथों से दिल्ली निकल गई।

सन 1803 में मराठाओं में मतभेद हो गए और पेशवा बाजीराव-द्वितीय ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि कर ली। इस संधि के तहत अंग्रेज़ों को बाजी राव-द्वितीय की रक्षा करनी थी और बदले में उसे मराठा साम्राज्य से संबंधित तमाम वार्ता में उनकी मध्यस्थता स्वीकार करनी थी।

मराठा सरदार ऐसे किसी भी गठबंधन के हमेशा ख़िलाफ़ थे और वो इस गठबंधन तथा अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट हो गए। दूसरा आंगल-मराठा युद्ध अगस्त सन 1803 में शुरु हो गया। कहा जाता है, कि इसी समय मुग़ल बादशाह शाह आलम-द्वितीय ने अंग्रेज़ो को संदेश भिजवाया कि वह मराठों को हराने में उनकी मदद करेगा क्योंकि वह मराठों के बढ़ते प्रभाव से आज़ाद होना चाहता था। अंग्रेज़ों को पता था ये उनके लिए एक अच्छा मौक़ा है। उन्होंने उत्तर-दक्षिण पट्टी, जो मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश से होते हुए मध्य प्रदेश से दिल्ली तक फैली हुई है, के शहर अलीगढ़, दिल्ली, आगरा और ग्वालियर पर कब्ज़ा करने की योजना बनाई।

मराठो के कब्ज़े से अलीगढ़ क़िला लेने में चार दिन लगे। इसके बाद अंग्रेज़ों ने दिल्ली का रुख़ किया। 11 सितंबर सन 1803 को जनरल लेक के नेतृत्व में अंग्रेज़ सैनिकों ने पटपडगंज इलाक़े में डेरा डाल दिया।

लेकिन मराठा हारने वाले नहीं थे। उन्हें फ्रांसीसी यायावरों से भरपूर मदद मिली थी. दिल्ली में मराठी सेना का नेतृत्व एम. लुइस बोरक्विन कर रहा था। मराठा सैनिक इनकी मदद से यमुना के तटों पर जमा हो गए । मराठा सैनिकों ने अंग्रेज़ सेना पर बमबारी की, जिसमें लेक के कई सैनिक मारे गए और उसका घोड़ा भी मर गया। लेक ने अपने सैनिकों को बंदूक़ की संगीनों से हमला करने का आदेश दिया, जिससे मराठा चौंक गए। वे टिक नहीं पाए। कुछ मराठा सैनिकों ने तैरकर वापस जाने की कोशिश की लेकिन वे अंग्रेज़ों की गोलीबारी का आसानी से निशाना बन गये।

14 सितंबर तक अंग्रेज़ों ने लाल क़िले के दरवाज़े पार कर लिये और 16 सितंबर तक शाह आलम द्वितीय को अंग्रेज़ों की सुरक्षा मिल गई।

युद्ध में अंग्रेज़ों के 464 और मराठों के 3 हज़ार सैनिक मारे गए। इस सफलता के बाद अंग्रेज़ों ने आगरा (10 अक्टूबर) औऱ फिर लासवाड़ी (एक नवंबर) को जीत लिया। लासवाड़ी के युद्ध में जाटों ने अंग्रेज़ों की मदद की और इस तरह शिंदे का मनोबल पूरी तरह टूट गया।

इसके बाद अंग्रेज़ों ने असाये (29 अक्टूबर) और अरगांव (29 दिसंबर) को भी जीत लिया। असाये में हार के बाद दौलत राव सिंधिया और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच सुरजी-अनजननगांव संधि हुई। तीस दिसंबर सन 1803 को यमुना के उत्तर में क़िले, इलाक़े और तमाम अधिकार अंग्रेज़ों को मिल गए।

अब तक अंग्रेज़ों का, मौजूदा समय के पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और दिल्ली तथा मौजूदा समय के हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ पर क़ब्ज़ा हो गया था। सन 1817 में मराठों ने एक बार फिर लड़ने की कोशिश की लेकिन सन 1818 के तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा।अंग्रेज़ों ने शाह आलम- द्वितीय के लिए प्रति माह 90 हज़ार रुपए की पेंशन तय कर दी और वे मुग़ल बादशाह के नाम पर उसके क्षेत्रों पर शासन करने लगे।

बहरहाल, पटपड़गंज में जीवन अपने ढर्रे पर चलता रहा और लोग यमुना के पूर्वी तट पर खेतीबाड़ी होती रही। सन 1950 के दशक में तब एक बड़ा बदलाव आया, जब ग़ाज़ियाबाद शहर फलने फूलने लगा और वहां रिहायशी मकान बनने लगे। विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए शरणर्थियों ने यहां कारोबार लगा लिए । सन 1960 के अंतिम वर्षों में यहां एक मदर डेयरी प्लांट लगा। इसके बाद यहां के मकान, उद्योग, इमारतों और फिर ऊंचे अपार्टमेंट्स में बदल गए।

सन 1916 में अंग्रेज़ों ने पटपड़गंज के युद्ध की याद में एक विजय स्तंभ लगाया था और आज ये नॉएडा गोल्फ़ कोर्स के टीइंग-ऑफ़ पाइंट पर मौजूद है।

मुख्य चित्र: नोएडा में मौजूद विजय स्तम्भ, प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया

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