प्राचीन भारत के इतिहास में मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र और इसके चक्रवर्ती सम्राट अशोक का विशिष्ट स्थान है। जहाँ पाटलिपुत्र की गिनती भारत के सबसे विशाल नगरों में होती है, वहीं इसके मौर्य वंशीय राजा अशोक न सिर्फ़ अपने देश बल्कि पूरे विश्व के महानतम राजाओं में एक माने जाते हैं।
मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते और बिन्दुसार के पुत्र, 304 ई.पू में जन्में अशोक 273 ई.पू. में मगध की राजगद्दी पर बैठे थे, जिन्हें विभिन्न बौद्ध ग्रंथों और पुराणों में धर्माशोक, पियदस्सी, अशोकवर्द्धन, देवनांप्रिय आदि नामों से भी संबोधित किया गया है।
लेकिन इतिहास की यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है, कि सम्राट अशोक के नाम से तो पूरी दुनिया परिचित है, लेकिन जिस नारी की वजह से वे महान बने, उनके बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है। यह नारी और कोई नहीं, खुद अशोक की माता धर्मा थीं, जिन्होंने अपनी कूटनीति से मगध साम्राज्य की अंदरूनी जटिलताओं के बीच अपने पुत्र को मगध के राज-सिंहासन तक पहुंचाया।
‘दीपवंश’, ‘महावंश’, ‘अशोकावदन’, ‘दिव्यावदन’, ‘महावंश टीका’ सरीखे पुरातन ग्रंथों से लेकर डॉ. आर.सी. मजुमदार, रोमिला थॉपर, डॉ. श्रीराम गोयल, डॉ. आर.के. मुखर्जी सरीखे समकालीन लेखकों ने भी अशोक और मौर्य वंश संबंधी अपनी किताबों में अशोक की माता धर्मा के बारे में बहुत कम लिखा है।
हाल ही में, यानी 21 मार्च को मशहूर लेखक प्रो. शरद पगारे के ऐतिहासिक उपन्यास ‘पाटलिपुत्र की साम्राज्ञी’ को के.के. बिरला फाऊण्डेशन ने ‘व्यास सम्मान’ से नवाज़ा है। यह उपन्यास अशोक की माँ धर्मा को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। इसी वजह से अशोक की मां और उनकी जन्मभूमि चम्पा नगरी की चर्चा प्रासंगिक हो उठी है। अशोक की मां सुभद्रांगी के नाम से भी जानी जाती थीं।
विभिन्न प्राचीन बौद्ध एवं संस्कृत ग्रंथों तथा कई ऐतिहासिक पुस्तकों के अध्ययन के बाद धर्मा की जीवनी पर ऐतिहासिक उपन्यास लिखने वाले प्रो.पगारे, धर्मा के साथ बरती गई उपेक्षा पर अपनी किताब की भूमिका में लिखते हैं, कि विस्तृत सामग्री के अभाव की वजह से इतिहास इस नारी (धर्मा) के साथ न्याय नहीं कर पाया, और मात्र कुछ पंक्तियों में उसे निपटा दिया गया।
जो भी साक्ष्य मिले, वे टुकड़ों में समकालीन बौद्ध ग्रंथों दीपवंश, महावंश, दिव्यावदन, अशोकावदन में बिखरे हुए हैं। धर्मा की रोमांचक जीवन-यात्रा पर इतिहास मौन है, जिसे जानना ज़रूरी है; क्योंकि इनमें मगध ही नहीं, बल्कि भरतीय इतिहास के कई प्रश्नों के उत्तर भी मिल सकते हैं।
बावजूद इसके एक बात की चर्चा सभी संबंधित ग्रंथों में की गयी है, कि धर्मा, चम्पा नगरी (भागलपुर, बिहार) के एक ग़रीब ब्राह्मण की पुत्री थीं, जो देखने में अत्यंत रूपवती थीं। धर्मा के भविष्य के बारे में विष्णुगुप्त चाणक्य के सहपाठी रहे चम्पा नगरी-निवासी ज्योतिषी आचार्य दिव्यवर्ष ने यह भविष्यवाणी की थी, कि उनका पति राजा होगा और उनके दो पुत्रों में से एक चक्रवर्ती सम्राट बनेगा। भविष्यवाणी की बात सुन धर्मा के पिता ने पाटलिपुत्र जाकर उन्हें युवराज बिन्दुसार को भेंट कर दिया (उस समय सम्राट चंद्रगुप्त राजगद्दी पर आसीन थे)। लेकिन उनकी अपूर्व सुंदरता को देख महल की रानियों ने उन्हें ईर्ष्यावश नाईन का काम सौंप दिया। लेकिन सच्चाई सामने आने पर बिन्दुसार ने उन्हें अपनी पटरानी बना लिया, जिनसे उनके दो पुत्र हुये। इनके नाम अशोक और विगताशोक रखे गये।
धर्मा की जन्म-स्थली चम्पा नगरी की पहचान एक अति प्राचीन शहर के रूप में है। माना जाता है, कि चम्पा नगरी, पाटलिपुत्र से भी पहले बस चुकी थी। अंग महाजनपद की राजधानी रही चम्पा नगरी की पहचान गौतम बुद्ध के पूर्व से ही एक समृद्ध आर्थिक-व्यापारिक केंद्र के तौर पर बन चुकी थी।
अंग महाजनपद और इसकी राजधानी चम्पा नगरी के राजनीतिक महत्व के कारण इसके संबंध हर्यंक वंश के राजा बिम्बिसार और अजातशत्रु से लेकर मौर्य वंशीय सम्राट चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार से रहे। बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु ने चम्पा नगरी से ही अपने शासन का कामकाज चलाया था। लेकिन उसका पुत्र उदयिन मगध की राजधानी को चम्पा नगरी से हटाकर पाटलिपुत्र ले गया। इतिहासकार बी.सी. लॉ के अनुसार अशोक के समय में अंग महाजनपद का शासन उनके पुत्र तथा पोतों के हाथों में था।
धर्मा का व्यक्तित्व अपूर्व नैसर्गिक सुंदरता, कुशाग्र बुद्धि, व्यहवार-कुशलता और कूटनीति का समन्वय था, जिसके तर्ज़ पर उन्होंने ताज़िन्दगी बिन्दुसार जैसे सम्राटों को अपनी उंगलियों पर नचाया। धर्मा के इन्हीं गुणों को देख कर ही तो महल की रानियों ने ईर्ष्यावश उन्हें मालिश करने वाली नाईन का काम सौंप दिया था। इस सबके बावजूद धर्मा, मगध की महारानी बन बैठीं और इस तरह बाक़ी सभी रानियों के पासे ही पलट डाले।
धर्मा के मगध की महारानी बनने के साथ पाटलिपुत्र के राजभवन और मौर्य राजनीति में एक ऐसी महिला का उदय हुआ, जिसने मगध के भावी इतिहास की दिशा ही बदल डाली। पाटलिपुत्र का शासन-प्रशासन धर्मा की मुट्ठी में सिमटने लगा और वे मानों राजदरबार के शक्ति के केंद्र-सी बन गयीं।
धर्मा अपने इरादों की पक्की थीं और वह अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये कुछ भी करने को तैयार रहती थीं। मगध की महारानी बनकर उन्होंने उनके बारे में की पहली भविष्यवाणी को सही साबित कर दिया था। अब वह अपने बारे में की गयी दूसरी भविष्यवाणी को पूरा करने की कोशिश में लग गईं थीं। दूसरी भविष्यवाणी थी, अपने पुत्र अशोक का मगध के सिंहासन पर बैठना ।
लेकिन समस्या यह थी, कि बिन्दुसार, धर्मा से राज्य-शासन के हर मसले पर तो परामर्श करते थे, पर अपने उत्तराधिकारी की बात उठने पर उसे टाल देते थे। अशोक की तुलना में महाराज को अपने बड़े पुत्र सुशिम (बड़ी रानी चारु का बेटा) से विशेष स्नेह था। इसीलिये उन्होंने सुशिम को मगध का युवराज भी घोषित कर दिया था।
क्योंकि सत्ता के सारे सूत्र धर्मा के हाथों में आ गये थे, इसीलिये युवराज सुशिम की माँ रानी चारू अपने बेटे के हितों की रक्षा के लिये ज़्यादा चौकन्ना हो गईं थीं। युवराज सुशिम, बाक़ी राजकुमारों में सबसे बड़े और महाराज के प्रिय थे, इसीलिये उन्हें मगध की राजगद्दी का उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा की गई थी। रानी चारू ने सुशिम के हितों की रक्षा के लिये दरबार में ख़ेमाबंदी कर अपना एक गुट बना लिया था, जिसमें मंत्रिमंडल के एक सदस्य अग्निवर्ष, नगर श्रेष्ठी लोलार्क सरीखे गणमान्य लोग शामिल थे।
लेकिन दरबार की अंदरूनी सरगर्मियों पर बारीकी से नज़र रखनेवाली धर्मा ने भी रानी चारू की गतिविधियों को शिकस्त देने के लिये, पर्दे के पीछे रहकर अपना खुद का भी एक सशक्त गुट बना लिया था। उन्होंने बड़ी सावधानी से, सम्राट बिन्दुसार के माध्यम से एक-एक कर साम्राज्य के महत्वपूर्ण और प्रभावशाली पदों पर अपने हिमायतियों की नियुक्ति करवा दी थी। उन्होंने अपनी जन्मभूमि चम्पा नगरी के लोगों और अपनी जाति के ब्राह्मणों को राज्य के विशिष्ट पदों पर बिठाया। जहाँ उन्होंने महामंत्री के पद पर नियुक्ति का प्रलोभन देकर तेज़-तर्रार अमात्य खल्लाटक को अपने पक्ष में किया, वहीं अपने हिमायती सामन्तभद्र को न्यायमूर्ति और चार अधिकारियों की अनदेखी कराकर सेनाध्यक्ष के महत्वपूर्ण पद पर चम्पा नगरी निवासी भद्रसेन की नियुक्ति करा दी। बिन्दुसार के निर्णयों को प्रभावित करनेवाले आचार्य पिंगलवत्स को अपने प्रभाव में कर लिया, साथ चम्पा नगरी में उनकी प्रिय सहेली रही अतिसुंदर सुज्ज्वला को राजनर्तकी का पद दिलाकर उसे अपना अंतरंग बना लिया।
मगध की राजनीति की शतरंज की बिसात पर अपनी गोटी बैठाने के साथ-साथ धर्मा ने अपनी महत्वाकांक्षाओं और सपनों के केंद्र बन चुके अशोक की शिक्षा-दीक्षा का भी ख़ास ध्यान रखा ताकि वे भविष्य में अपने दादा चन्द्रगुप्त मौर्य की तरह एक योग्य सम्राट बन सकें। पाटलिपुत्र में उन दिनों व्याप्त षड्यंत्रों के माहौल में और सुरक्षा की दृष्टिगत से अशोक का दाखिला पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में कराया गया, ताकि वह उनकी नज़रों के सामने रख सकें।
अशोक के उज्जवल भविष्य को ध्यान में रखते हुए, वह हमेशा अशोक को युवराज सुशिम की बराबरी में रखने के प्रयास करती रहीं। जब युवराज सुशिम को तक्षशिला का उप-राजा बनाने की बात आयी, तो धर्मा ने अपने गुट के माध्यम से महाराज बिन्दुसार को प्रभावित कर अशोक को अवन्ति का उप-राजा बनाना चाहा। लेकिन मंत्रिमंडल की बैठक में महामंत्री विष्णुगुप्त चाणक्य ने अशोक की अपरिपक्व आयु (18 वर्ष से कम) की बात उठा दी, जिसकी वजह से मामला जम नहीं पाया। लेकिन धर्मा खामोश नहीं बैठीं। धर्मा ने अपनी रणनीति बदली और अपने गुट के माध्यम से और अपने सौंदर्य का अचूक हथियार चलाकर, बिन्दुसार पर ऐसा दबाव बनाया, कि उन्हें अवन्ति के उप-राजा के पद पर अशोक की नियुक्ति करनी ही पड़ी।
युवराज सुशिम के बराबर अपने पुत्र अशोक को भी उप-राजा पद दिलाने में सफल होने के बाद धर्मा की अगली कोशिश थी, बिन्दुसार की नज़रों में सुशिम की अक्षमता को उजागर करना, और अशोक की कुशलता को साबित करना। इस काम के लिये धर्मा ने पर्दे के पीछे रहकर बड़ी शातिर चाल चली, जिससे इतिहास अनजान रहा।
अशोक की जीवनी से संबंधित ‘दिव्यावदन’ सहित लगभग सभी प्राचीन ग्रंथों में सुशिम के उप-राजा रहते उत्तरापथ, पर स्थित सामरिक-व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण तक्षशिला में दो बार जन-विद्रोह की घटना होने के उल्लेख मिलते हैं । उन घटनाओं ने सम्राट बिन्दुसार की चिंताएं बढ़ा दी थीं। उस जन-विरोध को दबाने के लिये बिन्दुसार ने धर्मा की सलाह पर अशोक को तक्षशिला भेजा था। उस मुहिम में अशोक सफल रहे थे।
तक्षशिला में हुए इन दोनों जन-विद्रोहों के संबंध में महारानी धर्मा को केन्द्र में रखकर लिखे गये अपने ऐतिहासिक उपन्यास ‘पाटलिपुत्र की साम्राज्ञी’ में लेखक शरद पगारे संकेत देते हैं, कि इन विद्रोहों को हवा देने के पीछे धर्मा का ही हाथ था । यह काम उन्होंने अपने हिमायती आचार्य पिंगलवत्स के माध्यम से करवाया था। पिंगलवत्स ने पाटलिपुत्र से हिरण्यक नाम के एक विश्वस्त आदमी को तक्षशिला भेजकर इस काम को अंजाम दिलवाया था। इस तरह धर्मा बिन्दुसार के सामने अशोक की क़ाबिलीयत साबित करने में सफल हो गईं। साथ ही उन्होंने बिन्दुसार के मन में युवराज सुशिम की क्षमता के बारे में शक के बीज बो दिये।
बाद के घटनाक्रम कुछ इस तरह रहे, कि उम्र बढ़ने के साथ सम्राट बिन्दुसार की तबीयत बिगड़कर बद से बदतर होने लगी। धर्मा को यह अंदाज़ा हो गया था, कि अब उनका अधिक दिन बचना संभव नहीं होगा। इसीलिए उन्होंने आगे की स्थिति से निपटने के लिये अंदर ही अंदर तैयारियां शुरू कर दीं थीं। उन्होंने महामंत्री खल्लाटक और उनके पुत्र अमात्य राधागुप्त के साथ सलाह करके, सेनापति भद्रसेन और अन्य सेनापतियों को विश्वास में लिया। उनके ज़रिये नगर में अपने गुप्तचरों के जाल बिछा दिया, और इस तरह पाटलिपुत्र के सभी महत्त्वपूर्ण स्थानों को अपने नियंत्रण में ले लिया, ताकि अशोक के रास्ते में किसी भी तरह की रुकावट उत्पन्न होने पर उसको दबाया जा सके। बीमार महाराज की देखभाल के नाम पर उनके कक्ष में अन्य लोगों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई।
इस तरह शासन-तंत्र और समस्त राज-काज को अपने नियंत्रण में लेने के बाद धर्मा ने अशोक को विशेष संदेशवाहक भेजकर पाटलिपुत्र बुला लिया। पूरी गतिविधियों को देख अशोक भी समझ गये कि अब निर्णायक घड़ी आ गई है।
आख़िरकार, मृत्यु-शय्या पर पड़े सम्राट बिन्दुसार की अंतिम घड़ी आ जाने पर जब महामंत्री खल्लाटक ने राजा से उत्तराधिकारी के बारे में उनकी अंतिम इच्छा जानने की कोशिश की, तब तक महाराजा बेहद कमज़ोर हो चुके थे। महाराज ने बुदबुदाकर सुशिम का नाम बोलना चाहा, जिससे महारानी धर्मा क्षण भर के लिये विचलित-सी हो उठीं। लेकिन उनके विश्वासपात्र शातिर महामंत्री खल्लाटक को यह समझते देर न लगी कि महाराज का संकेत युवराज सुशिम की ओर है। महाराज की बात पूरी होने के पहले ही महामंत्री खल्लाटक ऊंचे स्वर में बोल पड़े, “आप निश्चिंत रहें महाप्रभु! आपकी अंतिम इच्छा के अनुसार महाराज कुमार अशोक ही आपके उत्तराधिकारी होंगे!!” यह सुन बिन्दुसार ने तेज़ी से सिर हिलाकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करनी चाही। लेकिन तब तक उनकी गर्दन लुढ़क चुकी थी। उनके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। देखते ही देखते यह बात जंगल की आग की तरह फैला दी गई, कि महाराज बिन्दुसार ने अंतिम समय में अशोक को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। इस तरह महारानी धर्मा के पुत्र अशोक के लिये मगध का सम्राट बनने का मार्ग खुल गया था।
‘दिव्यावदन’ ग्रंथ में भी ऐसे उल्लेख हैं, कि बिन्दुसार की इच्छा के विरुद्ध खल्लाटक और राधागुप्त की सहायता से अशोक ने साम्राज्य का शासन अपने हाथों में ले लिया था । सच्चाई यही है, कि अशोक को मगध के सिंहासन पर बैठाने की डोरियां सीधे तौर पर महारानी धर्मा के हाथों ही थीं।
ऐतिहासिक ग्रंथों में बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अशोक और उनके भाईयों के बीच युद्ध होने के जिक्र मिलते हैं। इसी वजह से अशोक के सिंहासन पर बैठने और उनके राज्य-अभिषेक में चार वर्षों का विलंब हुआ। इस अवधि में भी अशोक के लिये अनुकूल परिस्थितियां बनाने में उनकी माता महारानी धर्मा की महत्त्वपूर्ण भूमिका बताई जाती है।
इस तरह चम्पा नगरी के एक निर्धन ब्राह्मण की झोपड़ी से निकलकर पाटलिपुत्र के राजमहल की महारानी बनने और अपने पुत्र अशोक को मगध की राजगद्दी पर बैठाने की, धर्मा की दास्तान काफ़ी महत्वपूर्ण है। लेकिन इसपर अभी और गहन अध्ययन और शोध की ज़रूरत है।
प्रयुक्त संदर्भ:
1. “पाटलिपुत्र की साम्रज्ञी”, प्रो. शरद पगारे, वाणी प्रकाशन, दिल्ली,
2. “मगध, सातवाहन-कुषाण साम्राज्यों का युग”, श्रीराम गोयल, कुसुमांजलि बुक वर्ल्ड, मेरठ,
3. “बौद्ध धर्म के 2500 वर्ष”, पी.वी. वापट (सम्पादक), प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली,
4. “प्राचीन चम्पा”, ज्योतिष चंद्र शर्मा, भारती प्रकाशन, वाराणसी,
5. “विक्रमशिला बौद्ध महाविहार के महान आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश”, शिव शंकर सिंह पारिजात, अनामिका प्रकाशन, दिल्ली,
6. “Journal & Proceedings of Asiatic Society of Bengal, New Series, Vol.X,1914”, (article of N.L. Dey entitled ‘Notes on Ancient Anga or the Distt. of Bhagalpur),
7. “The Gazetteer of India: History & Culture”, Vol. II, Dr. RN Chopra (Editor), (Article of DR Bhandarkar), Publication Div., Govt. of India
8. “Historical Geography of Ancient India”, Bimal Churn Law, Societe Asiatiqe de Paris, France, 1954
9.”History of Bihar”, Prof. Radhakrishna Chaudhary, Directorate of Bihar State Archives, Patna,
10. “The Sanskrit Buddhist Literature of Nepal, RL Mitra, The Asiatic Society of Bengal, Calcutta, 1882,
11. “Glories of Bhagalpur” (‘अंग गौरव’), SK Sharma, IAS, Chief Editor, Bhagalpur Museum & Town Cultural Association, Bhagalpur, 1984
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