रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम
सीताराम सीताराम, भज प्यारे तू सीताराम
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सब को सन्मति दे भगवान
राम रहीम करीम समान, हम सब है उनकी संतान
सब मिला मांगे यह वरदान, हमारा रहे मानव का ज्ञान
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और उनके अनुयायी जब भारत में अंग्रेज़ शासन का विरोध करते हुए नमक सत्याग्रह के तहत डांडी तक 385 कि.मी. लंबा मार्च निकाल रहे थे तब वे यही भजन गा रहे थे। ये गांधी जी के सबसे पसंदीदा भजनों में से एक था लेकिन क्या आपको मालूम है कि इस भजन को पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने लिखा, संगीत दिया और पहली बार ख़ुद ही गाया भी था ? वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने गंधर्व महाविद्यालय की स्थापना की थी और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को जन जन तक पहुंचाया था।
पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर का जन्म 18 अगस्त सन 1872 में महाराष्ट्र के कुरुंदवाड़ में हुआ था। उनके पिता दिगंबर गोपाल पलुस्कर कीर्तन करते थे।
युवा अवस्था में पलुस्कर एक स्थानीय स्कूल में पढ़ते थे लेकिन एक हादसे की वजह से उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी। किसी त्यौहार के मौक़े पर एक पटाख़ा उनके चेहरे के पास फूट गया जिसकी वजह से उनकी आंख की रौशनी आंशिक रुप से जाती रही। उनके लिये पढ़ना-लिखना मुश्किल हो गया था। संकट की ऐसी घड़ी में उम्मीद खोने के बजाय उनके पिता ने उन्हें संगीत की तरफ़ मोड़ दिया। संगीत की उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को देखते हुए उन्हें पास के शहर मिराज भेज दिया जहां प्रसिद्ध संगीतकार पंडित बालकृष्ण बुआ इचलकरंजीकर संगीत की शिक्षा देते थे। ग्वालियर घराने के इचलकरंजीकर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ख़याल गायकी के गायक थे। पलुस्कर ने क़रीब एक दशक तक उनसे संगीत सीखा। ये वो समय था जब उन्हें संगीत सीखने के लिये गहन साधना और परिश्रम दौर से गुज़रना पड़ा था।
मिराज में ही पलुस्कर ने तय कर लिया था कि उन्हें जीवन में आगे क्या करना है। हालंकि उनके गुरु शाही दरबार में थे लेकिन पलुस्कर को कभी सार्वजनिक समारोह में नहीं बुलाया जाता था। उन्हें इसकी वजह समझ में आ गई थी कि संगीतकारों को महज़ मनोरंजन करने वाला माना जाता था। यही सब सोचकर पलुस्कर ने समाज में संगीतकारों को एक दर्जा और सम्मान दिलवाने की ठानी जिसके वे हक़दार थे।
पलुस्कर ने सोचा कि ये काम तभी संभव है जब शास्त्रीय संगीत को आम लोगों तक पहुंचाया जाए। वह चाहते थे कि शास्त्रीय संगीत का आनंद, समाज का एक ख़ास वर्ग ही नहीं बल्कि आम लोग भी उठा सकें। वह संगीत को लेकर अपने समय के लोगों के नज़रिये और पसंद में क्रांतिकारी बदलाव लाना चाहते थे।
बहरहाल, सन 1896 में 24 साल की उम्र में पलुस्कर मिराज छोड़कर देश की यात्रा पर निकल पड़े जो दो साल तक जारी रही। इस दौरान उन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को देश के कई कोनों तक पहुंचाया। उन्होंने बड़ौदा, ग्वालियर, अलीगढ़, मथुरा, दिल्ली, जालंधर, कश्मीर और बीकानेर जाकर वहां के संगीतकारों से भेंट की कई उस्तादों से संगीत सीखा भी। कई शाही घरानों से पलुस्कर को दरबारी संगीतकार बनाने का न्योता भी मिला लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया। वह अपने उद्देश्य के प्रति संकल्पबद्ध थे और संगीत को जन जन तक पहुंचाना चाहते थे।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये उन्होंने सौराष्ट्र में एक सार्वजनिक संगीत समारोह आयोजित किया जिसके लिए टिकट रखी गयी ये अपने आपमें एक असाधारण फ़ैसला था। इससे पहले आम लोगों के लिये हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का इस तरह का कोई समारोह नहीं हुआ था। पहले शास्त्रीय संगीत का आयोजन या तो रजवाड़ों में होता था या फिर मंदिरों में। इस तरह के संगीत समारोह के आयोजन से उनकी रोज़ी रोटी का भी इंतज़ाम हो गया। उन दिनों शाही संरक्षण के बिना कलाकारों के लिये जीवन यापन करना बहुत मुश्किल होता था।
सन 1898 में वह लाहौर पहुंच गए जहां उन्होंने “संगीत बालबोध” नाम की किताब लिखी और इसका पहला संस्करण भी छपवाया। इस किताब में कई रागों में ध्रुपद, धामर और ख़याल के कई कंपोज़ीशन शामिल थे। प्रस्तावना में उन्होंने लिखा, “भारत की पहुंच से संगीत बाहर होने जा रहा है जिसका असर इतना गंभीर होगा कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।” इसीलिये उनका लक्ष्य था, “हमारे प्राचीन संगीत को लुप्त होने से बचाना था।” उन्होंने मेहसूस किया कि संगीतकारों की मौजूदा नस्ल सही तरीक़े से संगीत नहीं सिखा पाती है और ये कि बड़े पैमाने पर संगीत के प्रसार के लिये समान रुपी पाठ्यक्रम की ज़रुरत है। उन्होंने संगीत का स्कूल खोलने के लिये धन जमा करना करना शुरु किया और सन 1901 में पहला गंधर्व महाविद्यालय खुला। कुछ महीनों के भीतर ही उनके सौ से ज़्यादा छात्र हो गए जो समाज के विभिन्न वर्गों से आते थे।
सात साल बाद सन 1908 में पलुस्कर, महाविद्यालय की एक और शाख़ा खोलने के लिए लाहौर से बॉम्बे आ गए। तब तक वह मशहूर हो चुके थे और यहां भी उनके स्कूल में छात्रों की संख्या अच्छी ख़ासी हो गई थी। उन्होंने महिला छात्राओं को भी प्रोत्साहन दिया जिन्हें उनकी पत्नी और उनकी दो रिश्तेदार बहनें पढ़ाती थीं। अगले कुछ सालों में महाविद्यालय की कई शाख़ाएं खुल गईं।
पलुस्कर ने अखिल भारतीय संगीत सम्मेलनों का भी आयोजन करना शुरु किया जिसमें अलग अलग संगीत घरानों के प्रसिद्ध संगीतकार हिस्सा लेते थे। इसके पहले इस तरह के सम्मेलन नहीं हुआ करते थे। संगीत सम्मेलन बहुत सफल रहे और उन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्राण फूंक दिये।
इस दौरान पलुस्कर स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय हो गए और वह महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय और पंडित मदनमेहन मालवीय जैसे नेताओं के निकट संपर्क में आए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन के पहले पलुस्कर के स्वर में वंदे मातरम का गायन होता था। माना जाता है कि महाविद्यालय अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ रहे क्रांतिकारियों को पनाह भी देते थे तथा स्कूल के छात्र विभिन्न क्रांतिकारी संगठनों के बीच संदेशवाहकों का काम करते थे।
21 अगस्त सन 1931 को अपने 59वें जन्मदिन के तीन दिन बाद पलुस्कर का निधन हो गया लेकिन वह एक समृद्ध विरासत क़ायम कर के गए। आज असम से लेकर केरल तक क़रीब 1200 संगीत संस्थान महाविद्यालय से संबद्ध हैं जहां हज़ारों छात्र संगीत की शिक्षा लेते हैं।
पलुस्कर को शास्त्रीय संगीत को पारंपरिक घरानों से बाहर ला कर आम लोगों तक पहुंचाने का श्रेय जाता है। इसकी वजह से संगीत की इस कला को जीवित रखने में मदद मिली है। उनके प्रयासों की वजह से समाज में संगीत के प्रति रुझान बढ़ा और जागरुकता भी आई। आज शास्त्रीय संगीत को विश्वभर में जो सम्मान मिलता है और लोग इसके प्रति आकर्षित हैं, उसका भी श्रेय पलुस्कर को जाता है। वह सही मायने में दूरदृष्टा थे जिनकी आवाज़ लाखों लोगों के दिलों में घर कर गई।
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