भारतीय साहित्य के झरोखे से वैश्विक महामारी

इस समय पूरा विश्व कोरोना महामारी की चपेट में है और अब तक पांच लाख से ज़्यादा लोगों की इससे मौत हो चुकी है। एक तरफ़ जहां हम इस महामारी से जूझ रहे हैं वहीं लगता है कि हम पुराने अनुभवों से सीख नहीं लेते हैं। हर महामारी के दौरान एक ऐसी गंभीर स्थिति आती है जब हम मौत, बेरोज़गारी और बदहाल अर्थव्यवस्था को आंकड़ों में गिनना शुरु कर देते हैं। सन 2020 में एक वाक्य और आम हो गया है जिससे हम सिहर उठते हैं और वो है,“पॉज़िटिव केसों की संख्या”।

महामारी में जैसे मौत वास्तविकता है वैसे ही इसका भावनात्मक प्रभाव भी वास्तविक है जो विदेशी और भारतीय लेखकों दोनों के महामारी साहित्य विधा में सामने आया है। ये सिलसिला 200 या इससे अधिक समय से जारी है। भारत में हिंदुस्तानी साहित्य में फणीश्वर नाथ रेणु, मास्टर भगवान दास, राजेंद्र सिंह बेदी, पांडे बेचैन शर्मा और हरिशंकर परसाई जैसे बड़े लेखकों की रचनाओं में महामारी और संक्रामक रोग का उल्लेख देखा जा सकता है। इन लेखकों ने वैश्विक महामारी के दौरान सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में आम लोगों के जीवन की झलक दिखाई है।

मियादी बुख़ार (टायफ़ायड), चेचक, हैज़ा, मलेरिया और प्लेग जैसी जानलेवा बीमारियां कोई नयी चीज़ नहीं हैं। ये बीमारियां उतनी ही पुरानी हैं जितनी पुरानी हमारी सभ्यता है। एक समय था जब लोग नयी नयी जगह खोजते थे, राजा-महाराजा और बादशाह नये क्षेत्रों को जीतने के लिये अपनी सेना भेजते थे। ये लोग या तो अपने साथ ये बीमारियां वहां ले जाते थे या फिर वहां से लेकर आते थे और नतीजतन हज़ारो-लाखों लोग इसकी चपेट में आ जाते थे।

हिंदुस्तानी साहित्य में हैज़ा, प्लेग और फ़्लू जैसे संक्रामक रोग का यदाकदा उल्लेख मिलता है। हिंदी के प्रसिद्ध फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी “पहलवान का ढ़ोलक” (1944) में हैज़ा महामारी के दौरान एक गांव की एक सर्द रात का वर्णन है। ये कहानी 19वीं सदी में भारत में बदलते सामाजिक और राजनीतिक परिवेश के दौरान हैज़े जैसी महामारी और इससे उत्पन्न मानवीय स्थितियों को दर्शाती है। कहानी का मुख्य पात्र लुट्टन सिंह पहलवान है। 19वीं शताब्दी में दरबार संस्कृति ख़त्म होने लगी थी और तभी हैज़ा भी फैल गया था जिसकी वजह से लुट्टन सिंह के न सिर्फ़ बेटे मर जाते हैं बल्कि ख़ुद उसकी भी जान चली जाती है।

विडंबना ये थी कि जब पहलवान जीवित था तब वह हैज़े के दहशत भरे वातावरण में सुबह से शाम तक ढ़ोलक बजाता था और इस तरह वह गांववालों की आशा की किरण था। रेणु कहते हैं, “लुट्टन सिंह के ढ़ोलक बजाने से ग्रामवासियों में संजीवनी शक्ति का संचार हो जाता था।“

महान हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में भी महामारी का उल्लेख मिलता है। उनकी कहानी “ईदगाह” (1933) और “दूध का दाम” (1934) में हैज़े और प्लेग का ज़िक्र मिलता है।

मास्टर भगवान दास ने अपनी कहानी प्लेग की “चुड़ैल” (1902) में 19वीं सदी के अंतिम और 20वीं सदी के शुरुआती वर्षों में प्लेग महामारी के दौरान इलाहबाद में डर की मनोविकृति को दर्शाया है। सन 1896 में बॉम्बे में गिल्टीदार प्लेग (bubonic plague) फैल गया था। ये महामारी व्यापार मार्ग के ज़रिये हांगकांग और कोलंबो से भारत आई थी और इसने पूरे देश में दहशत फैला दी थी। अंग्रेज़ प्रशासन ने इस महामारी की रोकथाम के लिये सख़्त क़दम उठाए थे लेकिन इसके बावजूद भारत में क़रीब दस लाख लोग मारे गए थे और हज़ारों लोगों को अपने घरों को छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर जाना पड़ा था।

“प्लेग की चुड़ैल” कहानी प्लेग महामारी के दौरान चुनौतियों, सामाजिक विचारों और रीति-रिवाजों का ज़िक्र करती है। कहानी में संक्रमण के डर की वजह से एक महिला को मरा हुआ मानकर जल्दबाज़ी में उसका अंतिम संस्कार करने की कोशिश की जाती है लेकिन जब उस महिला को होश आ जाता है तो लोगों को लगता है कि वह कोई चुड़ैल है।

इसी तरह पंजाब के उर्दू लेखक राजेंद्र सिंह बेदी ने अपनी कहानी क्वारेनटीन (1940) में सन 1890 के दशक में फैले गिल्टीदार प्लेग के दौरान भारत में क्वारेनटीन शरण स्थलों (Shelters) के भीतर के जीवन को दिखाया है। ये शरण स्थल नर्क के समान थे। बेदी के अनुसार लोगों को प्लेग से ज़्यादा, इस बात का ख़ौफ़ था कि कहीं उन्हें वहां न भेज दिया जाय। उत्तर भारत की पृष्ठभूमि पर लिखी इस कहानी में ये भी दिखाया गया है कि कैसे अपनी जान का जोख़िम उठाकर दूसरों का जीवन बचाने वाले स्वास्थ कर्मचारियों के साथ अलग अलग बर्ताव किया जाता था। क्वारेनटीन शरणास्थल के डॉ. बक्षी की जहां वहवाही होती है वही निर्विकार भाव से सेवा करने वाले सफ़ाई कर्मचारी भागव को कोई नही पूछता।

भारत में महामारी के दौरान क्रूर सच्चाई को दर्शाने वाली एक अन्य कहानी है “विभत्स” है जिसके लेखक पांडे बेचैन शर्मा “ उग्र “ (1900-1967) थे। वह उग्र उपनाम से लिखा करते थे और व्यंग लेखन के लिये मशहूर थे। उग्र हिंदी लेखक थे। ये कहानी स्पेनिश फ़्लू महामारी पर लिखी गई है जो सन 1918 में फैली थी। ये महामारी स्पेन में नहीं फैली थी लेकिन स्पेन और दूसरे देशों में इसकी ख़ूब ख़बरें छपी थीं जहां प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मीडिया पर पाबंदी थी। भारत में ये बीमारी भारतीय सैनिक लेकर आए थे जो प्रथम विश्व युद्ध से स्वदेश लौटे थे।

ये बीमारी पहले बॉम्बे में आई और फिर जल्द ही पूरे देश में फैल गई। लाखों भारतीयों को जान से हाथ धोना पड़ा था। इनमें महात्मा गांधी और ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ां जैसे नेता और हिंदी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के परिवार के सदस्य भी शामिल थे। स्पेनिश फ़्लू से अंग्रेज़ शासित भारत में 12-14 मिलियन लोगों की मौत हुई जो किसी भी देश में इस महामारी से मरने वालों की संख्या से कहीं ज़्यादा बड़ी थी।

उग्र की कहानी में महामारी का डर इस क़दर था कि लोगों के लिये इस बीमारी से मरने वाले परिजनों का अंतिम संस्कार करना भी मुश्किल हो जाता था। लोग अंतिम संस्कार के लिये शव को नदी किनारे ले जाने का ख़तरा उठाने को तैयार नहीं थे । आपदा में अवसर देखकर कहानी की मुख्य पात्र सुमेरा शवों को श्मशान घाट ले जाने का काम शुरु कर देता है। इस काम से वह पैसा तो कमाता है लेकिन वो भी इस बीमारी की ज़द में आ जाता है और आख़िरकार उसकी भी मौत हो जाती है।

भारत के महामारी साहित्य की सबसे मार्मिक रचना शायद हिंदी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का संस्मरण “कुल्ली भाट” है जिसका अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में “ए लाइफ़ मिसस्पैंट” के शीर्शक से भी हुआ है। इसमें भारत में फैले स्पेनिश फ़्लू के दौरान की क्रूर सच्चाई को दर्शाया गया है। सन 1938 में लिखे इस संस्मरण में निराला याद करते हैं कि कैसे इस महामारी के शिकार लोगों के शवों से गंगा नदी पट गई थी। निराला की पत्नी, बड़े भाई और चाचा भी इस महामारी के शिकार हो गए थे। निराला लिखते हैं-“ये मेरे जीवन का सबसे विचित्र समय था…पलक झपकते ही मेरा परिवार अदृश्य हो गया। साझेदारी में खेती करने वाले मेरे सभी लोग और मज़दूर मर गए, मेरे चचेरे भाई के लिये काम करने वाले चार और मेरे लिए काम करने वाले दो लोग भी मर गए। मेरे चचेरे भाई का सबसे बड़ा बेटा 15 साल का था और मेरी बेटी एक साल की थी। मैने जहां भी दृष्टि घुमाई, मुझे अंधकार दिखा।”

प्रसिद्ध व्यंगकार हरिशंकर परसाई ने” गर्दिश के दिन” (1971) नामक निबंध में उनके बचपन के दिनों में फैली महामारी के भयावह समय का वर्णन किया है। वह लिखते हैं कि प्लेग के समय की उनकी सभी यादें ख़ौफ़नाक थीं। सन 1930 के दशक में फैली प्लेग महामारी में उन्होंने अपनी मां को खो दिया था और वो घटनाएं उनके ज़हन में हमेशा के लिए नक्श हो गईं।

परसाई के अनुसार,“हमारे छोटे से ग्राम नगर में प्लेग फैल गया था और अधिकतर लोग अपने घर छोड़कर जंगल में झोपड़ियों में रहने लगे थे। लेकिन हमारा परिवार नहीं गया था। मां बुरी तरह बीमार थीं। हम उन्हें जंगल नहीं ले जा सकते थे। हमारे निर्जन पड़ौस में सन्नाटा छाया हुआ था, बस हमारे घर से ही जीवन का एहसास होता था। रातें स्याह काली थीं और हमारे घर में एक छोटा सा दीया ही हमारी रौशनी थी। और मुझे दीये से डर लगता था। नगर के अवारा कुत्ते भी ग़ायब हो गए थे। उन रातों की दमघोटू नि:शब्दता में हमें हमारी खुद की आवाज़ से डर लगता था।”

“लेकिन हर शाम हम लोग, हमारी मां के पास बैठकर.. “ ओम जय जगदीश हरे,भक्त जनों के संकट पल में दूर करे… भक्त जनों के संकट पल में दूर करे…” आरती गाते रहते थे। कीर्तन के बीच में पिताजी सुबकने लगते थे, मां के आंसू निकल पड़ते थे, वह हमें सीने में भींच लेती थीं और हम भी रोने लगते थे। ये प्रतिदिन होता था। बाद में रात को पिताजी, चाचाजी या फिर कोई और रिश्तेदार बरछी अथवा डंडा लेकर निगरानी के लिए घर का चक्कर लगाते थे। इसी तरह की एक भयावह रात को मां का निधन हो गया। हमारे भीतर से दुख और विषाद की चीख निकल पड़ी। अचानक कुछ आवारा कुत्ते घर के बाहर आ गए मानों वे हमारे दुख में शरीक हों।”

हिंदी और उर्दू के अलावा अन्य भाषाओं के साहित्य में भी महामारी-काल पर मार्मिक कहानियां लिखी गईं हैं। उड़िया साहित्य के जनक माने जाने वाले फ़कीर मोहन सेनापति ने ख़तरनाक हैज़ा-महामारी के दौरान उत्पन्न हुए सामाजिक पूर्वाग्रहों के बारे में लिखा है। उड़िया में पहली बार छपी कहानी “रेवती” (1898) में सेनापति हैज़े की चपेट में आए एक ऐसे पिछड़े गांव की लड़की रेवती के बारे में लिखते हैं जो हर हाल में पढ़ाई जारी रखना चाहती थी।

रेवती की रुढ़ीवादी दादी हैज़े के लिये उसकी (रेवती) की शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा और इसे पूरा करने के लिये उसके पिता द्वारा किये गये प्रयासों को ज़िम्मेवार ठहराती हैं। 19वीं शताब्दी में दकिनूसी उड़िया समाज में महिलाओं का पढ़ना वर्जित था और सेनापति ने अपनी कहानी में बताया है कि कैसे महामारी के दौरान सामाजिक पूर्वाग्रह पैदा हो जाते हैं।

इसी तरह मलयालम उपन्यासकार जॉर्ज वर्गीस कक्कानंदन ने अपने उपन्यास “वासूरी” (1968) में केरल के एक छोटे से गांव में फैली चेचक महामारी का वर्णन किया है। इस महामारी को लेकर कैसे लोगों का अलग अलग नज़रिया था, वो इस दिलचस्प उपन्यास का मुख्य कथानक है।

महामारी केंद्रित साहित्य पर अगर एक सरसरी नज़र भी डालें तो पता चल जाएगा कि कैसे लोगों, समाज और सरकारों ने महामारी को देखा और इससे मुक़ाबला किया है। महामारी के साथ लंबे समय तक रहते हुए आपको एहसास हो जाएगा कि अगर कोई महामारी जैविक घटना के रुप में शुरु हुई है तो उसका राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संदर्भ होता है जिससे उसका व्यवहार कैसा है, कैसे इससे निबटा जाए और यह भी पता चलता है कि इससे कैसे जीवित बचा जा सकता है।

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