नेपाल की राजधानी काठमांडु से क़रीब 15 कि.मी. दूर भक्तपुर में स्थित तलेजु भवानी मंदिर और महाराष्ट्र में सोलापुर के तुलेजा भवानी मंदिर के बीच फ़ासला यूं तो दो हज़ार कि.मी. से भी ज़्यादा का है लेकिन इन दो मंदिरों से जुड़ी कहानी बहुत दिलचस्प है। इस कहानी का संबंध एक राजा से है जो शायद दक्षिण भारत के चालुक्य राजवंश का राजा था और जिसने नेपाल में एक राजवंश की स्थापना की थी। इसी राजा ने नेपाल में भवानी देवी की पूजा शुरु की थी।
तलेजु भवानी देवी नेपाल के नेवारी समुदाय के लोगों की संरक्षक देवी है। काठमांडु घाटी में बहुत पहले आकर बसने वाले लोगों में नेवार समुदाय भी एक था। नेवार हिंदू धर्म को मानते हैं लेकिन इसमें बौद्ध धर्म की परंपराएं भी जुड़ी हुई हैं।
नेपाल में तलेजु भवानी देवी के तीन मंदिर हैं जो काठमांडु, पाटन (काठमांडु से क़रीब 7 कि.मी. दूर) और भक्तपुर में स्थित हैं। तलेजु भवानी देवी को समर्पित ये मंदिर मल्ल राजाओं ने 1500 के दशकों में बनवाए थे। मल्ल ख़ुद को नान्यदेव का वंशज मानते हैं जो मिथिला और नेपाल के कर्नाटकी राजवंश का संस्थापक थे।
आज भी नेपाल और उत्तर बिहार के इतिहासकार ये स्वीकार करते हैं कि उन्हें राजा नान्यदेव के आरंभिक इतिहास के बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं है। उन्हें ये भी नहीं पता कि ये राजा कहां से आया था। लेकिन ये इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि वर्ष 1096 में नान्यदेव नामक एक शासक ने उत्तर बिहार से बंगाल की सेना को खदेड़कर कर्नाटकी या कर्नाट राजवंश की स्थापना की थी और उन्होंने सिमरांवगढ़ (मौजूदा समय में दक्षिण नेपाल) को अपनी राजधानी बनाया था। इसके बाद नान्यदेव के वंशजों ने 229 साल तक (1326) तक शासन किया। सन 1326 में ग़यासउद्दीन तुग़लक ने इन्हें हराकर सिमरांवगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया और राजा हरिसिंह देव को नेपाल की पहाड़ियों में भागना पड़ा।
कहा जाता है कि राजा हरिसिंह देव अपने साथ भवानी देवी का यंत्र (तंत्रमंत्र की पूजा में इस्तेमाल करने वाला ज्यामितीय सांचा) अपने साथ ले गये थे। ये यंत्र उनके वंशज दक्षिण से अपने साथ लाए थे और इसे भक्तपुर (नेपाल) में स्थापित कर दिया था। नेवारी समुदाय का सांस्कृतिक रुप से उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र से सैकड़ों साल पुराना संबंध रहा था और इसलिये इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि नेवार समुदाय ने जल्द ही तलेजु भवानी को देवी स्वीकार कर इसकी पूजा-अर्चना शुरु कर दी।
आर.सी. मजुमदार जैसे कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उत्तर बिहार में कर्नाटकी राजवंश के उदय का संबंध 11वीं शताब्दी के मध्य में चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम और विक्रमादित्य षष्ठम के हमलों से हो सकता है। उस समय ये राजा दक्षिण से सैन्य अभियान पर निकले हुए थे। कर्नाटक के बदामी से शासन करने वाले चालुक्य राजाओं का तमिलनाडु से लेकर बंगाल की पश्चिमी सीमा से लगे बड़े क्षेत्रों पर नियंत्रण होता था। के.पी. जयसवाल जैसे अन्य इतिहासकारों का मानना है कि ये दक्षिण उपनिवेशी दरअसल राजेंद्र चोल की सेना के बचे रह गए थे सैनिक थे जिन्होंने उत्तर में साम्राज्य बनाया था। बहरहाल, इन तथ्यों की पुष्टि होना बाक़ी है लेकिन हम इतना तो जानते ही हैं कि नान्यदेव ने सन 1096 में अपने साम्राज्य की स्थापना की थी।
एक स्थानीय लोक कथा के अनुसार कहा जाता है कि एक रात भवानी देवी राजा नान्यदेव के सामने प्रकट हुईं और उन्होंने राजा को एक यंत्र तथा इसे चलाने का एक मंत्र दिया। देवी ने राजा से कहा कि इस यंत्र से उनके पास इतनी संपत्ति और सत्ता आ जाएगी जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकते। ये वही यंत्र था जो हरिसिंह देव अपने साथ नेपाल ले गए थे और वहां स्थापित कर दिया था। ये यंत्र ही तलेजु भवानी था जिसके चार सिर हैं।
नेपाल में नेपाली राजाओं की कई भाषा वंशावली हैं जिसे इतिहासकार पूरी तरह इतिहास सम्मत नहीं मानते। लेकिन इन वंशावलियों में कुछ दिलचस्प बाते भी हैं जैसे उदाहरण के लिये इन राजाओं का मूल निवास कोंकण देश था और उत्तर की तरफ़ प्रस्थान करने के पहले वे चंद्रभागा नदी के तटों पर बसे हुए थे। चंद्रभागा नदी महाराष्ट्र के सोलापुर ज़िले में है और ये तुलजापुर शहर से ज़्यादा दूर नहीं है जो तुलेजा भवानी मंदिर के लिये प्रसिद्ध है। इससे कुछ प्राचीन संबंधों के बारे में पता चलता है। लेकिन दुख की बात ये है कि हमलों की वजह से तुलजापुर का मंदिर कई बार नष्ट हुआ है और कई बार इसे दोबारा बनवाया गया है। इसकी वजह से इसका अतीत भी जाता रहा। मराठा शासक छत्रपति शिवाजी के शासनकाल में तुलजापुर मंदिर का बहुत महत्व था। तुलजा भवानी शिवाजी के परिवार की कुल देवी थीं।
नेपाल में स्थानीय शासक जयस्थिति मल्ल (1382-1395) ने अंतिम कर्नाटकी शासक हरिसिहं देव की पोती से शादी की थी और इस तरह उसके वंश का संबंध प्रतिष्ठित कर्नाटकी राजाओं से स्थापित हो गया। इसके बाद से मल्ल राजाओं ने नान्यदेव को अपना प्रधान पूर्व पुरुष घोषित कर दिया। दिलचस्प बात ये है कि मल्ल कोई राजसी नाम नहीं था। इसका मतलब होता था शक्तिशाली पुरुष या पहलवान। ये वो ख़िताब था जिसे नेपाल और भारत में कई राजवंशों ने अपनाया।
मल्ल राजा भी तलेजु भवानी की पूजा करने लगे थे। ये परम्परा 18वीं शताब्दी तक जारी रही। 18वीं शताब्दी में गोरखाओं ने मल्ल राजवंश को बेदख़ल कर दिया लेकिन नेपाल घाटी में देवी को इतना पूजा जाता था कि गोरखा राजा पृथ्वी विक्रम शाह ने इसे राजकीय संरक्षण देना जारी रखा।
नेपाल में तलेजु भवानी को समर्पित तीन मंदिरों में सबसे पुराना मंदिर भक्तपुर का है। इसमें देवी का असली यंत्र है जो राजा हरिसिंह देव नेपाल लाए थे।
भक्तपुर का मंदिर क़रीब 1550 के दशक का है और इसका निर्माण राजा महेंद्र मल्ल के शासनकाल में हुआ था। ये एक तांत्रिक मंदिर है जिसमें देवी की सोने की मूर्ति और यंत्र है। देवी की अब तक कोई तस्वीर नहीं ली गई है। दिलचस्प बात ये है कि ये एकमात्र मंदिर है जो साल भर श्रद्धालुओं के लिये खुला रहता है। काठमांडु का मंदिर लोगों के लिये साल में सिर्फ़ एक बार खुलता है जबकि पाटन के मंदिर में सिर्फ़ पुजारी ही प्रवेश कर सकते हैं। देवी की अराधना में सभी प्रकार की तांत्रिक पूजा की जाती है।
आज भी तलेजु भवानी देवी का रहस्य बना हुआ है, न सिर्फ़ उनकी पूजा बल्कि महाराष्ट्र से नेपाल की उनकी यात्रा भी एक रहस्य है।
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