शहीदी साका ननकाना साहिब

शहीदी साका ननकाना साहिब

देश के कई गुरूद्वारों और धार्मिक यादगारों की तरह पाकिस्तान स्थित गुरूद्वारा जन्म स्थान श्री ननकाना साहिब में भी 20 फ़रवरी सन 1921 को हुए शहीदी साके की शताब्दी मनाई जा रही है। उस साके में 150 के क़रीब सिख शहीद हुए थे और कुछ को मिट्टी का तेल डालकर जिंदा जला दिया गया था। गुरूद्वारा जन्म स्थान श्री ननकाना साहिब परिसर में स्थित जंड का इतिहासिक वृक्ष तथा शहीदी कुंआ आज भी सिखों पर हुए उन ज़ुल्मों की गवाही देते प्रतीत होते हैं।

दरअसल, छठी पातशाही गुरू हरिगोबिंद साहिब ने गुरूद्वारा साहिबान की सेवा, उदासी सम्प्रदाय के मुख्या बाबा श्रीचंद जी के शागिर्द बाबा अलमस्त जी को सौंप दिए जाने के बाद धीरे धीरे ज़्यादातर ऐतिहासिक गुरूद्वारों की सेवा उदासी-महंतों तथा निर्मले-संतों के पास आ गई। महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल तक तो गुरूद्वारों के प्रबंध अच्छे ढ़ंग से चलते रहे, लेकिन सिख राज्य की समाप्ति के बाद अंग्रेज़ सरकार की सरपरस्ती में आते ही गुरूद्वारे अंग्रेज़ सरकार के गुणगान के अड्डे बन गए। इस नीति के चलते जलियांवाला बाग़ नरसंहार के मुख्य दोषी जनरल आर.ई.एच. डायर को सरबराह सरदार अरूड़ सिंह ने, श्री दरबार साहिब में आमंत्रित करके तलवार तथा सिरोपा भेंट किया।

इस तरह से गुरूद्वारा साहिबान के हालात दिन-ब-दिन बदतर होते जा रहे थे और मर्यादा भंग हो रही थी। जिस पर क़ाबू पाना और गुरूद्वारों का महंती तथा सरबराही-प्रबंध ख़त्म करके उन्हें सिखों के जमहूरी-प्रबंधों के अधीन लाना ज़रूरी हो गया था। उन्हीं दिनों सियालकोट के गुरूद्वारे बाबे दी बेर का सरबराह गंडा सिंह नामक एक ईसाई को नियुक्त किया हुआ था। उसका लड़का हैडो गुरूद्वारे में पिस्तौल से संगत को भयभीत करता था। सिखों ने इस के विरोध में रोशमई दीवान लगाने शुरू किए, लेकिन सिखों की नाराज़गी तथा उनके विरोध की तरफ़ लम्बे समय तक कोई ध्यान नहीं दिया गया। आखिर, सिखों के लगातार बढ़ रहे जोश और क्रोध को देखते हुए, सरकार को 5 अक्तूबर सन 1920 को, उक्त गुरूद्वारे का सरबराही- प्रबंध ख़त्म करके गुरूद्वारे का प्रबंध पंथ के अधीन करना पड़ा।

15 नवम्बर सन 1920 को गुरूद्वारों के प्रबंध के लिए शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी के अस्तित्व में आने के बाद भी गुरूद्वारों को महंतों और सरबराहों के क़ब्ज़े से मुक्त करवा कर सिखों के जमहूरी-प्रबंध में लाने का सिलसिला जारी रहा। सिखों की इस केंद्रीय कमेटी बनने का खौफ़ सिर्फ़ हुकूमत के दिल में ही नहीं, बल्कि गुरूद्वारों पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी क़ब्ज़ा जमाए बैठे महंतों और सरबराहों के दिलों में भी था। क्योंकि वे गुरूद्वारा साहिबान को अपनी व्यक्तिगत जागीर मान बैठे थे और गुरूद्वारों में हर प्रकार के कुकर्म हो रहे थे।

सिख विद्वानों के अनुसार गुरूद्वारा श्री ननकाना साहिब के कुकर्मी तथा दुराचारी महंत नारायण दास उर्फ़ नरेणू ने उक्त पवित्र स्थान को क़िले का रूप देकर हथियार इकट्ठे किए हुए थे और पठानों तथा बदमाशों को अपनी सुरक्षा के लिए नौकर रखा हुआ था। सन 1918 में तो उस ने गुरूद्वारा साहिब परिसर में ही वैश्यायों का नाच तक करवा दिया, उसके अगले वर्ष, गुरूद्वारा साहिब में परिवार सहित दरश्नों के लिए सिंध से आए एक सिंधी हिंदू परिवार की नाबालिग़ लड़की के साथ महंत के चेले ने दुष्कर्म किया। इस घटना के छह महीने बाद ही जड़ांवाला से माथा टेकने के लिए आईं छह-सात महिलाओं से महंत के शराबी चेलों ने दोबारा वही कुकर्म किया।

ऐसी कई शिकायतें मिलने पर 6 फ़रवरी सन 1921 को शिरोमणि कमेटी ने एक प्रस्ताव पास किया कि सभी महंतों को, श्री ननकाना साहिब में बुलाया जाए और उनसे गुरूद्वारों के प्रबंधों में सुधार करने के लिए कहा जाए। इस सभा के लिए 4-5 और 6 मार्च यानी तीन दिन निश्चित किए गए। उधर जब महंत नारायण दास के पास यह खबर पहुँची तो साज़िशें रचने में माहिर उक्त महंत ने गुरूद्वारा सुधार लहर का ख़ात्मा करने के लिए, उससे पहले ही गुरूद्वारों पर क़ाबिज़ सभी महंतों, पुजारियों और सरबराहों की बाबा करतार सिंह बेदी की अध्यक्षता में, 19 फ़रवरी से 21 फ़रवरी तक लाहौर में सनातन सिख कान्फ्रेंस बुलवा ली।

इसी बीच 17 फ़रवरी सन 1921 को गुरूद्वारा सच्चा सौदा, चूहड़ख़ाना (अब पाकिस्तान के फारूखाबाद शहर का क्षेत्र) में भाई लक्ष्मण सिंह धारोवाली तथा भाई करतार सिंह झब्बर आदि सिंहों ने मीटिंग करके मार्च महीने से पहले ही गुरूद्वारा श्री ननकाना साहिब को महंत नारायण दास के क़ब्ज़े से मुक्त कराने का निश्चय कर लिया।

योजना के अनुसार 19 फ़रवरी को भाई लक्ष्मण सिंह धारोवाली तथा भाई करतार सिंह झब्बर ने अपने-अपने जत्थे तैयार कर लिए। उन्होंने अपने जत्थों के साथ 19 फ़रवरी की शाम चंद्रकोट ( अब पाकिस्तान के शेखूपुरा का गांव) में इकट्ठा होकर, 20 फ़रवरी की सुबह महंत नारायण दास की ग़ैर-मौजूदगी में गुरूद्वार को गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी के अधीन करने की योजना बनाई।

भाई लक्ष्मण सिंह धारोवाली तथा भाई करतार सिंह झब्बर आदि सिंहों ने अपनी यह योजना सबसे गुप्त रखी थी, लेकिन इस के बावजूद महंत नारायण दास और शिरोमणि कमेटी को यह ख़बर मिल गई।

कमेटी ने तुरंत दोनों जत्थों को रोकने के लिए लोगों को भेजा। उचित समय पर पहुँच कर भाई दलीप सिंह साहोवाल ने भाई करतार सिंह झब्बर के जत्थे को तो पंथक नेताओं के फ़ैसले से आगाह कर उन्हें रोक दिया, लेकिन भाई लक्ष्मण सिंह के जत्थे से सम्पर्क नहीं हो सका। दलीप सिंह साहोवाल अन्य सिखों को श्री ननकाना साहिब की ओर आते रास्तों पर नज़र रखने के लिए छोड़ और ख़ुद श्री ननकाना साहिब में सरदार उत्तम सिंह के कारख़ाने आ गए। उन्हें पूरा विश्वास था कि रास्तों में खड़े किए गए सिख, भाई लक्ष्मण सिंह के जत्थे को रोककर वापस भेजने में कामयाब हो जाएंगे।

गुरूद्वारा जन्म स्थान परिसर में मौजूद शहीदगंज भाई दलीप सिंह भाई वरियाम सिंह। | आशीष कोछड़

लेकिन यह संभव नहीं हो पाया और भाई लक्ष्मण सिंह को पंथक नेताओं के फ़ैसले की जानकारी नहीं मिल सकी। वे जत्थे सहित 20 फ़रवरी की सुबह जैसे ही गुरूद्वारा साहिब में दाख़िल हुए तो महंत नारायण दास और उसके बदमाशों ने संगत पर गोलियों की बौछार शुरू कर दी और तलवारों-बरछों के साथ हमला कर दिया। उन्होंने भाई लक्ष्मण सिंह को गुरूद्वारा जन्म स्थान में शहीद कर दिया (कुछ लेखकों का मानना है कि भाई जी को गुरूद्वारा परिसर में मौजूद जंड के वृक्ष के साथ उल्टा लटकाने के बाद ज़िंदा जलाकर शहीद किया गया था)। उधर भाई दलीप सिंह ने जैसे ही गोलियों की आवाज़ें सुनी तो वे गुरूद्वारा साहिब की ओर दौड़ पड़े। गुरूद्वारे में पहुँचकर जब उन्होंने महंत तथा उसके बदमाशों को रोकने की कोशिश की तो उन्होंने भाई दलीप सिंह जी को जलती हुई भट्ठी में फेंक कर शहीद कर दिया।

इस नरंसहार में 150 के क़रीब सिख शहीद हुए। सरकारी रिपोर्ट में शहीद होने वालों की संख्या 126 बताई गई है। यह सारा कांड करने के बाद महंत ने शहीद हो चुके और ज़ख़्मी सिंहों पर मिट्टी का तेल डालकर उन्हें जला डाला। जल्दी ही यह ख़बर चारों ओर फैल गई। तब मौक़े पर पहुँचकर अंग्रेज़ अधिकारियों तथा पुलिस ने महंत नारायण दास और उसके क़रीब दो दर्जन साथियों; जिन में गांव के खेतों में काम करने वाले मजदूर तथा महंत के चेले, इन्द्र दास, बागी शाह, हराणा, महंत जमियत सिंह, शेर सिंह दादू, बेअंत सिंह निहंग, वसाखा सिंह, काहण सिंह कब्बा, गुरमुख दास, जीवन दास, गुरदित्त सिंह, रांझा, पहिलवान दर्जी, लद्दू चेला, वीरम दास, रतन सिंह तथा नत्थू राम को हथियारों सहित गिरफ़्तार कर लिया। उन पर मुक़द्दमा चला फिर अदालत ने पहले तो दोषियों को मौत की सज़ा सुनाई और फिर महंत सहित कुछ एक की सज़ा काले पानी की सज़ा में तब्दील कर दी गई और कुछ को बरी कर दिया गया।

दिलों को कंपा देने वाले इस नरसंहार से संसार भर के सिख भड़क उठे। उनके दिलों में अंग्रेज़ी राज्य के विरूद्ध जैसे नफ़रत की बाढ़-सी आ गई। जगह-जगह अकाली जत्थे बनने शुरू हो गए। हर ज़िले में गुरूद्वारों के सुधार की मुहिम तेज़ हो गई और जल्दी बाद अंग्रेज़ी सरकार के विरूद्व भड़का यह शोला, ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ा। और उसी की वजह से एक लम्बी सामुहिक लड़ाई के बाद अंग्रेज़ों को अपना बिस्तर-बोरिया गोल कर, भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।

गुरूद्वारा जन्म स्थान परिसर में मौजूद जंड का इतिहासिक वृक्ष; जहां सिखों को शहीद किया गया | आशीष कोछड़

गुरूद्वारा जन्म स्थान श्री ननकाना साहिब में स्थित जंड का इतिहासिक वृक्ष और शहीदी कुंआ आज भी महंत नारायण दास के ढ़ाए ज़ुल्मों की गवाही दे रहा प्रतीत होता है। गुरूद्वारा जन्म स्थान के भीतर ही एक बारादरी को “गुरूद्वारा शहीदगंज” कहा जाता है। यह वही स्थान है जहां भाई दलीप सिंह तथा भाई वरियाम सिंह को ज़िंदा जलाकर तथा कई अन्य सिंहों को गोलियों व तलवारों से शहीद किया गया था।

शहीद होने वाले सिखों के नामों वाला बोर्ड | आशीष कोछड़

शहीद होने वाले सिखों के नाम यहां एक बोर्ड पर लिखे हुए हैं। जिन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए 21 फ़रवरी को शहीदी शताब्दी मनाई जा रही है।

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