नमकहराम की ड्योढ़ी: देश के सबसे बड़े विश्वासघाती की कहानी

जब हम किसी स्मारक या ऐतिहासिक स्थल की बात करते हैं, तो हमारे ज़हन में महापुरुष, संत-महात्मा, वीर-बलिदानी अथवा सम्राटों-महाराजाओं से जुड़े किसी स्थान की यादें बरबस आ जाती हैं। लेकिन आज हम आपको एक ऐसी जगह से रुब़रू कराने जा रहे हैं, जहां आकर आप गौरव से नहीं, बल्कि शर्म से भर जायेंगे और उस शख़्स को हज़ार लानतें भेजेंगे, जिसके नाम के साथ यह जुड़ा है। हम बात कर रहे हैं मुग़ल-काल में लम्बे समय तक और ब्रिटिश काल के शुरुआती दौर तक सूब़ा-ए-बंगाल की राजधानी रहे मुर्शिदाबाद के ‘नमकहराम की ड्योढ़ी’ की। यहां बंगाल के नवाब़ सिराजउद्दौला के सेनापति मीर ज़ाफ़र का महल था। आमतौर पर इस तरह के भवन को ड्योढ़ी या महल भी कहते हैं।

भारतीय इतिहास में मीर ज़ाफ़र को आजतक का सबसे बड़ा विश्वासघाती, षड्यंत्रकारी, ख़ूनी, खलनायक, एहसान फ़रामोश और कुटिल शख़्स माना गया है। मीर ज़ाफर वो शख़्स है, जिसने बंगाल की गद्दी पर काब़िज़ होने की अपनी अंधी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये सिराजउद्दौला का सेनापति होने के ब़ावजूद, अंग्रेज़ों से हाथ मिला लिया था। जाफ़र की इस साज़िश की वजह से प्लासी की लड़ाई में न सिर्फ सिराज की हार हुई, बल्कि उसकी नृशंस हत्या भी हुई। नतीजे में बंगाल पर कब्जे के साथ-साथ, पूरा भारत भी अंग्रेजों के गुलामी की जंज़ीरों में जकड़ गया।

सिराजउद्दौला को अपदस्थ कर उसे मौत के घाट उतारने का षड्यंत्र रचकर मीर ज़ाफर ने बंगाल की गद्दी तो हासिल कर ली, पर एक नवाब़ होने का सम्मान नहीं पा सका। उसके जीवनकाल में ही आवाम उससे दिली नफ़रत करने लगी थी। नफ़रत ऐसी कि उसकी मृत्यु के बाद नवाब़ ख़ानदान का कोई भी शख़्स उसके महल में रहने को तैयार न हुआ और कभी मीनारों, बुर्जों और तोपों से युक्त चाक-चौबंद सुरक्षा वाला यह महल समय के साथ खंडहर में तब्दील हो गया। आज सबूत के तौर पर इसका सिर्फ़ विशाल प्रवेश-द्वार ही बचा है और ”नमकहराम की ड्योढ़ी” के नाम से पुकारा जाता है।

नवाब़ों का शहर रहे मुर्शिदाबाद में हज़ार दरवाजों वाले आलीशान महल हज़ारदुआरी, कई बेहद ख़ुबसूरत ईमारतें, मस्जिदें-इमामबाड़े सहित शानदार बाग-बगीचें व फ़व्वारे हैं, जिन्हें यहाँ आनेवाले सैलानी बड़े शोक़ से देखते हैं। पर उनमें से ज़्यादातर पर्यटक नमकहराम की ड्योढ़ी का रूख़ करना नहीं भूलते, जहां तक़रीबन 250 साल बीत जाने के बाद भी एक विश्वासघाती की यादें ज्यों के त्यों बस्ती हैं।

उन दिनों मीर ज़ाफर के इस महल में वैसे तो रात-दिन सज़िशों के जाल बुने जाना कोई बड़ी बात नहीं रही होगी, पर यहां पर दो ऐसी साज़िशें रची गईं, जो वफ़ादारी और मानवता के सारे पैमानों को तार-तार कर गईं, जिनके जख़्मों को बंगाल ही नहीं, बल्कि भारत का इतिहास भी कभी भूल नहीं सकता। यहां रची गईं खतरनाक साज़िशों में एक थी बंगाल का सेनापति होने के ब़ावजूद गद्दी पर बैठने की महत्वाकांक्षा पालने वाले मीर जाफर का अंग्रेजों से साठगांठ कर प्लासी की लड़ाई में नवाब़ सिराज़उद्दौला की हार की योजना बनाना। दूसरी थी प्लासी की हार के बाद बंदी बनाकर यहां लाये गये सिराज़ की नृशंस तरीक़े से हत्या किया जाना। नमकहराम की ड्योढ़ी अर्थात् मीर ज़ाफर के महल के अंदर अंग्रेजों के साथ मिलकर मीर ज़ाफर द्वारा रची गई साज़िश की गहराई को सिर्फ इस एक बात से समझा जा सकता है, कि प्लासी में बंगाल की 50 हज़ार से ऊपर की संख्या में डटी सेना चंद घंटों के अंदर अंग्रेज़ों के मात्र 3 हज़ार सैनिकों से मात खा गयी थी और सिराज़उद्दौला को मैदान छोड़कर भागने के लिये मज़बूर होना पड़ा था।

प्लासी की लड़ाई में सिराज़ की हार सिर्फ एक नवाब़ या बंगाल की ही हार नहीं थी, बल्कि एक तरह से यह पूरे देश की हार थी जिसके भारतीय इतिहास पर दूरगामी प्रभाव पड़े। तभी तो सुदीप चक्रवर्ती जैसे जाने-माने इतिहासकार ने प्लासी पर लिखी अपनी चर्चित किताब का नाम ही रख दिया – ‘पलासी: द बैटल दैट चेंज़्ड द कोर्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री’। अर्थात् – पलासी: एक ऐसी लड़ाई जिसने भारतीय इतिहास की धारा मोड़ दी।

कर्नल जी.बी. मल्लेरसन अपनी पुस्तक ‘द डिसीसिव बैट्ल्स ऑफ इंडिया: फ्रॉम 1746 टू 1849 इनक्सुसिव’ में कहते हैं, कि प्लासी की लड़ाई को निश्चित तौर से एक ‘निर्णायक’ युद्ध की संज्ञा दी जा सकती है; क्योंकि इसकी जीत ने बंगाल सहित बिहार और ओडिशा में अंग्रेज़ों की स्थिति एक ‘अधिपति’ के रूप में स्थापित कर दी और देशी शासक उनके अधीन हो गये। जानकारों का मानना है कि सत्ता प्राप्ति की मुहिम में इस लड़ाई ने अंग्रेजों को ऐसी लाभदायक स्थिति में ला दिया, कि भारत में ‘ब्रिटिश राज’ कायम करने का उनका मार्ग प्रशस्त हो गया।

उन दिनों बंगाल देश का सबसे समृद्ध और अत्यधिक राजस्व देनेवाला सूब़ा था तथा इसकी राजधानी मुर्शिदाबाद की पहचान पूरे देश में एक मुख्य व्यापारिक केंद्र के रूप में थी। मुर्शिदाबाद में जगत सेठ सरीख़े भारत के सबसे अमीर व मशहूर साहूकार तथा बैंकर्स माने जाते थे जो देशी राजे-रजवाड़े ही नहीं अंग्रेजों को भी कर्ज़ देते थे। यहां अंग्रेज़ों सहित फ्रेंच, डच और डेनिश अपनी कंपनियां बनाये हुए थे तथा यहां अपनी फैक्ट्रियां और व्यापार चलते थे ।

बंगाल की धन-सम्पदा देख अंग्रेज़ों की इसपर लालची नज़रें लगी हुई थीं। पर उन्हें इस बात का साफ़ अंदाज़ था, कि यहां की विशाल सैन्य शक्ति के सामने उनका टिकना मुश्किल होगा। इसलिये उन्होंने साज़िश और छल-कपट के बल पर सत्ता हासिल करने की योजना बनाई, जिसमें मोहरा नवाब़ सिराजउद्दौला का सेनापति मीर ज़ाफर को बनाने की बात मुकरर की कर्नल रोबर्ट क्लाईव ने। इस पूरी साज़िश का माध्यम बना मुर्शिदाबाद के निकट स्थित क़ासिमबाज़ार फ़ैक्ट्री का अंग्रेज़ चीफ़ विलियम वाट्स।

प्लासी युद्ध के ठीक पहले इसी नमकहराम की ड्योढ़ी में सिराजउद्दौला के विरुद्ध बुने जा रहे षड्यंत्र का सरग़ना मीर ज़ाफर, उसके बेटे मीरन और क़ासिमबाज़ार फ़ैक्ट्री के चीफ़ विलियम वाट्स की बैठक हुई थी। इस बैठक में पाक क़ुरान की क़सम दिलाकर मीर ज़ाफ़र को प्लासी की लड़ाई में सिराज को शिक़स्त दिलाने की सौगंध खिलाई गयी थी। यह अति गुप्त बैठक हवैली के ज़नानाख़ाने में हुई थी, जहां नवाब़ों की बेगमों के निवास हुआ करते थे और उस तरफ़ आम तौर पर पुरूषों के जाने की मनाही थी। मीर ज़ाफर के बेटे मीरन, गोपनीय तरीक़े से वाट्स को लेकर यहाँ आया था।

उस बैठक के दौरान, अंग्रेज़ों की चालों को पुख़्ता करने की मंशा से विलियम वाट्स ने धार्मिक भावना की आड़ लेते हुए पहले तो पाक़ कुरान को मीर ज़ाफर के सिर पर रखा। फिर मीर जाफ़र से अपना एक हाथ अपने बेटे मीरन के सर पर रखने को कहा। इसके बाद पाक़ कुरान का वास्ता देकर दोनों को यह शपथ दिलाई गई कि उन्हें उसी तरह ‘काम’ को अंज़ाम देना है, जैसा उन्हें बताया गया है। याने अगले दिन प्लासी में होने वाली लड़ाई में हर हाल में सिराजउद्दौला की हार और अंग्रेज़ों की जीत पक्की करनी है, ताकि सिराजउद्दौला को अपदस्थ करने के बाद मीर ज़ाफ़र को बंगाल के तख़्त पर बिठाया जा सके। और वक्त गवाह है कि हुआ भी वही।

इस नमकहराम की ड्योढ़ी में सिराजउद्दौला के बरबादी की पटकथा लिखने के अलावा एक और रोंगटे खड़े करनेवाली वारदात को अंजाम दिया गया था। वो थी प्लासी की हार के बाद मैदान से भागे सिराजउद्दौला की गिरफ़्तारी और उसके बाद यहीं पर उसक क़त्ल । इसी महल में गिरफ़्तार सिराज को मीर ज़ाफर के सामने पेश किया गया था। उस ख़ौफ़नाक़ हादसे को बयां करते हुए ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ द मिलिट्री ट्रांजेक्शन ऑफ़ द ब्रिटिश नेशन इन इंदोस्तान (हिन्दुस्तान)’ में रॉबर्ट ओर्मे लिखते हैं कि तख़्त से उतरे गये नवाब़ सिराजउद्दौला को आधी रात को मीर ज़ाफ़र के सामने पेश किया गया। भयभीत सिराज़ ने कांपती आवाज़ में मीर ज़ाफर से अपने जान की ख़ैर मांगी। इसके बाद सिपाही सिराजउद्दौला को महल के एक दूसरे कोने में ले गये। इस बीच मीर ज़ाफर अपने दरबारियों और अधिकारियों से इस बात पर सलाह-मशविरा करता रहा कि सिराज को मार दिया जाए, कि कै़द में रखा जाए । कुछ लोगों ने सिराज को जेल में रखने की सलाह दी, पर मीरन इसके सख़्त ख़िलाफ़ था। अंत में मीर ज़ाफर ने इस मसले पर अपनी कोई राय देने की बजाय चुप्पी साध ली।

इसके बाद सिराज को मौत के घाट उतारने की मंशा बना चुके मीरन ने अपने पिता मीर ज़ाफ़र की चुप्पी को सहमति माना। देर रात तक चलनेवाले दरबार को बर्ख़ास्त कर मीर ज़ाफ़र ख़ुद सोने के लिये अपने शयन-कक्ष में चला गया। आगे की ख़ौफ़नाक़ दास्तां बयां करते हुए इतिहासकार गुलाम हुसैन खां ‘सियर-उल-मुताख़रीन’ में बताते हैं, ‘इसके बाद मीरन ने अपने साथी मोहम्मदी बेग उर्फ़ लाल मोहम्मद को सिराज को मौत के घाट उतारने के आदेश दिये। जब मीरन अपने साथियों के साथ सिराजउद्दौला के पास पहुंचा, तो सिराज यह समझ गया कि अब उसके साथ क्या होने वाला है। सिराज़ ने गुहार लगाई, कि उसे मारने के पहले वज़ू कर नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दी जाये। अपने काम को जल्द अंज़ाम देने की फ़िराक़ में हत्यारों ने सिराज के सिर पर पानी से भरे एक बरतन को उढ़ेल दिया। जब सिराज़ को यह आभास हो गया कि अब उसे ढ़ंग से वज़ू नहीं करने दिया जायेगा, तो उसने कहा कि उसे अपनी प्यास बुझाने के लिये पानी पिलाया जाए।’

यह सब चल ही रहा था, तभी मोहम्मदी ब़ेग ने सिराजउद्दौला पर खंज़र से वार कर दिया। उसके वहां मौज़ूद दूसरे लोग अपनी तलवारें लेकर सिराज पर टूट पड़े। सिराज़ मुंह के बल गिर गया और चंद घड़ियों में उसकी जीवनलीला समाप्त हो गयी।’ मीरन के करिन्दे मोहम्मद बेग का वो क़तिल खंज़र, जिससे नमकहराम की ड्योढ़ी में सिराज की हत्या की गई थी, आज मुर्शिदाबाद के हज़ारदुआरी संग्रहालय में रखा हुआ है।

सिराजउद्दौला सिर्फ़ 23 वर्ष की उम्र में सूब़ा बंगाल के नवाब़ की गद्दी पर बैठा था। लेकिन गद्दी पर बैठने के मात्र एक साल 2 महीने के बाद ही उसे अपदस्थ होकर दर्दनाक मौत की नींद सोना पड़ा था। सिराजउद्दौला की कहानी बड़ी ही दर्दनाक और रोमांचक है, जिसके इर्द-गिर्द गद्दीनशीं होने के पहले दिन से ही साज़िशों के ज़ाल बुनने शुरू हो गये थे। अपने नाना बंगाल के नवाब़ मुर्शिद क़ुली खां, जिसने मुर्शिदाबाद शहर की बुनियाद रखी थी, के लिये सिराज एक ‘सौभाग्यशाली बालक’ था; क्योंकि उसके पैदा लेने के बाद ही मुर्शिद क़ुली ख़ां को बंगाल की नायब़ सूबेदारी मिली थी। मुर्शिद क़ुली ख़ां ने अपने इस चहेते नवासे को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। पर मुर्शिद क़ुली ख़ां का यह निर्णय इस ‘सौभाग्यशाली’ बालक सिराज के दुर्भाग्यपूर्ण अंत का सबब बना।

बंगाल के नवाब़ की गद्दी पर बैठने के साथ ही दरबार के अंदरख़ाने की गतिविधियों से पूर्व से वाक़िफ़ सिराजउद्दौला ने कुछ कठोर क़दम उठाने के साथ अपनी पसंद से प्रशासनिक पदों में फ़ेरबदल किये। इस कड़ी में पहली कार्रवाई थी अपनी ख़ाला घसीटी बेगम, जो ख़ुद अलीवर्दी ख़ां की बेटी थी, को नेस्तनाबूत करना। क्योंकि उसने सिराज की ताजपोशी का विरोध किया था। घसीटी बेगम नवाब़ अलीवर्दी ख़ां के दीवान नवाज़िश मुहम्मद ख़ां (जो शहादत जंग या महताब़ जंग के नाम से भी जाने जाते हैं) की विधवा होने के कारण उसके पास अक़ूत दौलत और आंतरिक सैन्य शक्ति थी। सिराज के हुक्म से उसके सैनिकों ने घसीटी बेगम के मोतीझील स्थित आलीशान महल को तहस-नहस करने के अलावा उसके धन-सम्पत्ति को लूट लिया। हमेशा नवाबी शानो-शौकत में रहने की आदी घसीटी बेगम ने ऐसे हालात से तिलमिलाकर सिराज की बरबादी का जाल बुनना शुरू कर दिया, जिसे अंजाम तक पहुंचाया ख़ुद उसके दामाद और सिराज के सेनापति मीर ज़ाफर ने, जो रिश्ते में सिराज का चाचा भी था। इसके अलावा सिराज ने अलीवर्दी ख़ां के समय में, ढ़ाका में नियुक्त, ईमानदार और भरोसेमंद कर्मचारी मीर मदान को अपना ख़ज़ांची बनाने के अलावा सेना की आयुधशाला का मुखिया भी नियुक्त कर दिया।

सिराज द्वारा उठाया गया दूसरा महत्वपूर्ण क़दम, जो उसके दरबारियों, ओहदेदारों और सामंतों को नागवार गुज़रा, वह था मोहनलाल| इस नाम के एक अनजाने हिंदू को ‘महाराजा’ की उपाधि से नवाज़ते हुए, उसे अपने मंत्रिमंडल के सर्वोच्च ओहदे यानी प्रधानमंत्री के पद पर बैठाना। इतना ही नहीं, सिराज ने अपने सभी सेनापतियों और सामंतों को नवनियुक्त प्रधानमंत्री मोहनलाल के प्रति अदब से पेश आने के आदेश भी जारी किये, जिसे दरबार के पुराने ओहदेदारों ने अपनी तौहीन के रूप में लिया। दरबार में अपनी ख़ास ठसक रखनेवाले सेनापति मीर ज़ाफर इस फ़ेरबदल से तिलमिला उठा और यह आदेश मानने से ही इनकार कर दिया। घात लगाये बैठा मीर जाफ़र ने अपनी साज़िशी योजनाओं को अंजाम तक पहुंचाने की कोशिशें तेज़ करते हुए असंतुष्ट दरबारियों और सामंतों के साथ सहर के रईसों तथा बैंकरों को गोलबंद करने की मुहिम में लग गया। उधर पूर्णिया के फ़ौजदार शौकत जंग, जो रिश्ते में सिराज का चचेरा भाई भी था, वह भी, जाफ़र के उकसाने पर सिराज के ख़िलाफ़ आग उगलने लगा । उसे औक़ात में लाने के लिये सिराज ने सेना की टुकड़ी भेजी जिसके साथ हुई झड़प में शोकत जंग मारा गया।

सिराज के निज़ाम में हो रहे इन उथल-पुथलों को देखकर, अपने व्यापारिक हितों को नुक़सान होने की आशंका से, मुर्शिदाबाद के जगत सेठ जैसे दौलतमंद लोग भी सिराज के भीतर-ही-भीतर ख़िलाफ़ होने लगे थे।

सिराजउद्दौला की इन कार्रवाईयों से जहां एक तरफ़ दरबार के भीतर घातियों में खलबली मची हुई थी ही, वहीं उसके एक दूसरे क़दम ने उसे अंग्रेजों से सीधे टकराव की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। दरअसल, घसीटी बेगम के शौहर शहामत जंग की दीवानी के समय म़ें पेशकार रहे राजा राजवल्लभ और उसके बेटे किशनदास ने, मुर्शिदाबाद से कलकत्ता भागकर अंग्रेज़ों के संरक्षण में पनाह ले रखी थी। सिराज ने उनके विरुद्ध दमनात्मक कार्रवाई की थी। जिससे अंग्रेज़ हो गए थे।

सिराजउद्दौला अपने नाना जान नवाब़ मुर्शिद क़ुली ख़ां के समय से ही ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा व्यापार की आड़ में बंगाल में अंग्रेज़ों की राजनीतिक-सामरिक उपस्थिति से वाकिफ़ था। फिर उसके शासनकाल में अंग्रेज़, मुगलों के मिली छूटों का खुला दुरूपयोग कर बंगाल को राजस्व की क्षति तो पहुंचा ही रहे थे, इसके अलावा बिना उसकी अनुमति लिये अंग्रेज़ कलकत्ता में क़िलाबंदी कर अपनी सामरिक शक्तियां बढ़ा रहे थे। इन सभी बातों से सिराजउद्दौला की अंग्रेज़ों से नाराज़गी बढ़ती जा रही थी।

सिराज ने राजकोष की हेराफ़ेरी करने के आरोप में राजा राजवल्लभ को नज़रबंद करवा दिया और उसके परिवार और बेटे किशनदास की गिरफ़्तारी के आदेश दे दिये। किशनदास कलकत्ता भागकर अंग्रेज़ों के संरक्षण में चला गया था। राजवल्लभ के परिवार और उसके बेटे को गिरफ़्तार करने के लिये सिराज ने अपने ख़ुफ़िया अधिकारी राजाराम को कलकत्ता भेजा। पर वहाँ के अंग्रेज़ चीफ़ ड्रेक एवं अन्य अंग्रेज़ अधिकारियों ने इस गिरफ़्तारी का विरोध किया।

अंग्रेज़ों के द्वारा किशनदास की गिरफ़्तारी का विरोध किये जाने की सूचना मिलते ही सिराजउद्दौला आगबबूला हो उठा और अपने सैन्य-बल के साथ कलकत्ता की ओर कूच कर दिया। कलकत्ता में भीषण हमला किया और शहर पर क़ब़्जा कर लिया और राजा मानिकचंद को वहां अपना गवर्नर नियुक्त दिया। इसी समय कलकत्ता में ‘ब्लैक होल’ की घटना होने का ज़िक्र किया जाता है।

कलकत्ता पर सिराज के हमले से भयभीत होकर अंग्रेज़ सेना और अधिकारी तितर-बितर हो गये। कलकत्ता फ़ैक्ट्री का चीफ़ ड्रेक नदी-मार्ग से भागकर मद्रास कर्नल क्लाईव के पास चला गया। ड्रेक ने लेफ्टिनेंट कर्नल क्लाईव एवं अन्य अंग्रेज़ अधिकारियों के सामने पूरी स्थिति बयां की, जिसपर यह मंत्रणा की गई कि कलकत्ता स्थित ब्रिटिश फैक्ट्री को फिर से स्थापित किया जाए।

उसके बाद क्लाईव 30 हज़ार सैनिकों के साथ युद्धपोतों पर सवार होकर कलकत्ता के लिए रवाना हो गया। कलकत्ता पहुंचते ही क्लाईव ने सिराज की सुरक्षा चौकियों पर तैनात सैनिकों को खदेड़ते हुए कलकत्ता में नवाब़ द्वारा बहाल गवर्नर राजा मानिकचंद पर हमला बोल दिया, जिससे घबराकर वह भाग खड़ा हुआ ।

कलकत्ता में क्लाईव ने पूरी हालात का जायज़ा लिया। फ़िर उसने बंगाल की विशाल सैन्य-शक्ति का आंकलन करते हुए एक चाल चलने की योजना बनाई। उसने कलकत्ता फैक्ट्री के चीफ़ ड्रेक की ग़लतियों के लिए सिराजउद्दौला से माफ़ी मांगी और एक बड़ी राशि की पेशकश की। उसने कलकत्ता में ब्रिटिश फ़ैक्ट्री के फिर से निर्माण की अनुमति मांगी। पर सिराज के दरबारियों की हीला-हवाली से क्लाईव की पेशक़श संबंधी यह चिट्ठी उसके पास तक पहुंचने में अत्यंत देर हो गई। सिराजउद्दौला की तरफ़ से अपनी चिट्ठी का जवाब समय से नहीं मिलने को क्लाईव ने अपनी तौहीन समझा। उसने बिना अनुमति का इंतज़ार किये, न सिर्फ़ फ़ोर्ट विलियम का निर्माण करवाया, अपितु साथ ही टकसाल की भी तामीर करा डाली। इस बीच के घटनाक्रम में सिराज की तरफ़ से भी अंग्रेज़ों के साथ सुलह-सफ़ाई की कोशिश की गई, पर इसका कोई नतीजा नहीं निकला और आख़िरकर सिराज की अंग्रेज़ों के साथ सीधी ठन गई।

तख़्तापलट की साज़िश में लगा मीर जाफ़र सिराज और अंग्रेज़ों के साथ चल रहे पूरे प्रकरण पर बारीकी से नज़र गड़ाए हुआ था। उसने यह भांप लिया, कि अब उसकी साजिशों को मुक़ाम तक पहुंचाने का सही वक्त आ गया है। उसने अंग्रेज़ों के साथ साठगांठ करने की मंशा से अपने एजेंट अमीर बेग को क्लाईव से मिलने के लिए कलकत्ता भेजा। अमीर बेग वो शख़्स था, जिसने सिराजउद्दौला के कलकत्ता आक्रमण के समय अंग्रेज़ महिलाओं को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाने का काम किया था, जिसके कारण वह अंग्रेज़ अधिकारियों का चहेता बना हुआ था।

अपनी साज़िश में कर्नल क्लाईव का साथ हासिल करने की जुगत में मीर ज़ाफर ने अपने एजेंट अमीर बेग़ के माध्यम से एक मनगढ़ंत कहानी सुनाते हुए क्लाईव को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की, कि सिराजउद्दौला की ज़्यादतियों के कारण बंगाल के अधिकारी और सामंत उसके विरूद्ध हैं और इन असंतुष्ट लोगों का पूरा समर्थन उसे (मीर जाफ़र को) प्राप्त है। इस सहयोग के लिए क्लाईव को तीन करोड़ रुपये की पेशकश करते हुए उसने क्लाईव को यह विश्वास दिलाया, कि वो सिर्फ़ अंग्रेज़ी सेना लेकर कूच करने के लिए तैयार हो जाए, बाक़ी अपने षड्यंत्रकारी सहयोगियों के साथ मामले को अंजाम तक पहुंचा देगा। बताते हैं कि मीर जाफ़र की इस पेशकश पर क्लाईव ने उसका साथ देने का मन बना लिया।

अंग्रेजों को मीर जाफ़र के पक्ष में लाने की इस मुहिम के मुतल्लिक मुर्शिदाबाद के प्रमुख बैंकर्स और व्यापारी भी सक्रिय हो गये थे। ‘रियाज़ुस सलातीन’ के साथ ‘तारीख़-ए-मनसवी’ इस बात की स्पष्ट पुष्टि करता है कि क्लाईव, मीर जाफ़र के नेतृत्व में रचे गये षड्यंत्र में पूरी तरह से शामिल हो गया था जिसमें जगत सेठ, दुलाब राम, ओमीचंद और दरबार का एक प्रमुख ओहदेदार ख़्वाज़ा वज़ीर साथ दे रहे थे।

इस बीच तयशुदा कार्यक्रम के तहत प्लासी की लड़ाई शुरू होने के ठीक पहले क्लाईव के नुमाइंदे विलियम वाट्स की मीर जाफ़र और उसके बेटे मीरन के साथ नमकहराम की ड्योढ़ी (मीर जाफ़र के महल) के जनानाख़ाने में एक गुप्त बैठक हुई थी। जिसका ज़िक्र पहले किया जा चुका है। नमकहराम की इस ड्योढ़ी में लिखी गई षडयंत्र की इस पटकथा को फ़रेबियों ने कितनी कुटिलता से अंजाम तक पहुंचाया, इस बात को सिर्फ इतने से समझा जा सकता है कि 50 हज़ार से भी ऊपर की संख्या में पूरे अस्त्र-शस्त्रों और गोला-बारूदों से लैस पलासी के मैदान में उतरी नवाब़ सिराजउद्दौला की सेना अंग्रेज़ों के मात्र 3 हज़ार सैनिकों से मात खा गई।

प्लासी की लड़ाई के निर्णायक पलों में साज़िशकर्ताओं द्वारा खेले गये दांव के बारे में ‘सियर-उल-मुताख़रीन’ बताता है कि मीर ज़ाफ़र की चालों से नावाक़िफ़ नवाब़ सिराजउद्दौला ने युद्ध की तैयारियों का जायज़ा लेने के लिये दुलाब राम को अपने आगे भेजा, जो खुद भीतर से मीर ज़ाफ़र से मिला हुआ था और बाहर से वफ़ादार होने का ढोंग कर रहा था। दुलाब राम को आगे भेज ख़ुद सिराजउद्दौला अपने वफ़ादार अधिकारी मीर मदान और मोहनलाल के साथ मीर ज़ाफ़र को लेकर पलासी के मैदान की ओर चल पड़ा।

प्लासी में क्लाईव ने हल्की गोलीबारी के साथ युद्ध का आगाज़ किया। दिन के 3 बजते-बजते मुक़ाबला परवान चढ़ गया। पूरी बहादुरी के साथ डटा सिराज का वफ़ादार मीर मदान अपनी धमक क़ायम करते हुए अपने साथी मोहनलाल के साथ क्लाईव की ‘पोजीशन’ तक आ पहुंचा। मीर मदान की जांबाज़ी देख क्लाईव घबरा-सा गया। उसने मीर ज़ाफर के साथ षड्यंत्र में शामिल ओमीचंद से बौखलाहट भरे अंदाज़ में पूछा, ‘तुमलोग तो कह रहे थे कि सभी लोग सिराज के ख़िलाफ़ हैं और वे तुमलोगों की तरफ़ से लड़ेंगे, पर ये क्या?!’तभी दुर्भाग्यवश मीर मदान के सिर से एक बारूद का गोला आकर टकरा गया और वह घायल होकर गिर पड़ा। सिराज के तम्बू तक लाते-लाते उसकी जीवनलीला समाप्त हो गई।

‘सियर-उल-मुताख़रीन’ में वर्णित है, कि मीर मदान की इस अकस्मात मौत से जीती हुई बाज़ी के पलटते पासे की आशंका से चिंतित सिराजउद्दौला ने मीर जाफ़र के पास जाकर उसकी जान और इज़्ज़त बचाने का अनुरोध किया। इस बाबत सिराज ने अपने रिश्ते की दुहाई देते हुए उसके साथ किये अपने बर्तावों पर अफ़सोस भी जाहिर किया। साथ ही उसे अपने दादा महताब जंग के एहसानों की याद भी दिलाई। पर भीतरघाती मीर जाफ़र का कलेजा नहीं पसीजा। उसने अपनी साज़िश की बिसात पर तुरुप की चाल चलते हुए सिराज से कहा कि अब शाम ढ़लने को है, इस कारण अभी युद्ध में उतरना मुनासिब नहीं होगा। अगले दिन पूरे सैन्यबल के साथ मैदान में उतरने की बात कहकर मीर जाफ़र ने सिराज को युद्ध रोकने का सुझाव दिया।

उधर मैदान में मीर मदान की अकस्मात मौत के बाद मोहनलाल पूरी मुस्तैदी से मोर्चा सम्भाले हुए था। जब उसे मैदान से वापस लौटने संबंधी सिराज का संदेशा मिला, तो उसने कहा, ‘अभी मुक़ाबला परवान पर है, जो जल्द ही भाग्य का फ़ैसला करेगा। अतः अभी युद्ध से वापस जाने का समय नहीं।’ इसपर जब सिराज ने पुनः मीर जाफ़र से सम्पर्क किया, तो उसने फिर अपना वही कुटिल सुझाव दुहराया कि अभी लड़ाई रोक दी जाए। सिराज ने उसके झांसे में आकर मोहनलाल को मैदान से वापस बुला लिया। ऐन मौक़े पर मोहनलाल के युद्ध से वापस लौटने का सैनिकों पर विनाशकारी प्रभाव आया। सिराज के सैनिक इस भ्रम में पड़ गये, कि लड़ाई की कमान हाथ से फिसल गयी है और वे डर के मारे तितर-बितर होने लगे।

मैदान में डटे सिराजउद्दौला के सैनिकों ने भी जब एक-एक कर उसका साथ छोड़कर भागना शुरु कर दिया, तो उसको यह समझते देर न लगी कि अब पासा पलट चुका है। मैदान छोड़ना मुनासिब समझ वह भी वहां से निकलकर वापस मुर्शिदाबाद आ गया। अब उसे पूरी तरह से यह आभास हो गया कि वह चारों तरफ़ से साज़िश करनेवालों और दोमुंहे दरबारियों से घिरता जा रहा है तो वह अपनी बेगमों के साथ, नाव पर सवार होकर नदी-मार्ग से अज़ीमाबाद (पटना) की ओर निकल पड़ा।

23 जून, सन 1757 को प्लासी की लड़ाई में जीत के छह दिनों बाद क्लाईव मुर्शिदाबाद में दाख़िल हुआ जहां शहर के मुख्य-द्वार पर मीर जाफ़र ने उसका स्वागत किया। क्लाईव ने मीर जाफ़र को बंगाल की सिंहासननुमा मसनद पर बैठाकर उसे सैल्यूट किया।

इतिहासकार विपिन चंद्र पाल अपनी पुस्तक ‘मॉडर्न इंडिया’ में बताते हैं, कि अपनी इस ताजपोशी के एवज़ में मीर ज़ाफर ने कम्पनी तथा अंग्रेज़ अधिकारियों को घूस के रूप में मोटी रक़म दी थी। जहां उसने रॉबर्ट क्लाईव को 14 करोड़ 60 लाख और विलियम वाट्स को 7 करोड़ 30 लाख के क़रीब की राशि दी, वहीं कम्पनी को सिराज द्वारा कोलकाता पर किये गये हमले के हरजाने के रूप में एक करोड़ 77 लाख रुपए का भूगतान किया।

जिस समय क्लाईव मुर्शिदाबाद में था, उसी दौरान नाव से पटना भाग रहे सिराजउद्दौला को राजमहल के गंगा-तट से एक फ़कीर दाना शाह की मुख़बिरी पर मीर ज़ाफर के भाई मीर दाऊद और दामाद मीर क़ासिम ने गिरफ्तार किया और मुर्शिदाबाद लाया गया था, जहां मीरन की शह पर उसकी नृशंस हत्या कर दी गई। मीरन की दरिंदगी यहीं पर नहीं थमी। उसने सिराज के क्षत-विक्षत शव को हाथी की पीठ पर लदवाकर पूरे शहर और बाज़ार में घुमवाया और सिराज के परिवार के 300 से भी अधिक लोगों की हत्या करवा दी।

इस तरह इतिहास गवाह है, कि सिराजउद्दौला के बाद न सिर्फ बंगाल के स्वतंत्र शासन का अंत हो गया और उसके बाद के अन्य नवाब़ अंग्रेजों की कठपुतली बनकर रह गये। मुर्शिदाबाद की यह नमकहराम की ड्योढ़ी मानों आज भी अपनी बदनसीबी पर आंसू बहाती-सी नज़र आती है।

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