सबसे पहले मैंने आँखें खोलीं तेरी गोद में मां
जन्म की पहली सुबह में,
सो कर तेरी गोद में आँखें बंद कर लूंगी
जीवन की अंतिम संध्या में।
मृत्यु के बाद भी लगता है मुझे फिर जगह मिलेगी
प्यारी गोद में
थकी हुई आत्मा अपना अंतिम विश्राम लेती है
तुम्हारी छाया में।
असमिया से हिंदी में अनुवादित ये पंक्तियाँ एक प्रसिद्ध असमिया कविता ‘जन्मभूमि ‘ से ली गयी हैं जिसे कवयित्री की मातृभूमि के प्रति गहरी और अतिप्रवाह प्रेम की एक अतुलनीय अभिव्यक्ति माना जाता है। कई लोगों ने महान भारतीय कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान या महादेवी वर्मा के बारे में ज़रूर सुना होगा, लेकिन स्थानीय भाषा के कवियों के बारे में ज़्यादा लोग नहीं जानते। नलिनी बाला देवी (1898- 1977) असमिया साहित्य का दुनिया की सबसे उल्लेखनीय शख़्सियतों में से एक हैं। साहित्य में तो उन्होंने नाम कमाया ही, साथ ही महात्मा गांधी से बेहद प्रेरित होकर उन्होंने अपने तरीक़े से स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका निभाई। उन्होंने अन्य महिलाओं को भी एकजुट कर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए प्रेरित किया। उनकी कविताओं को आज भी राष्ट्र के प्रति उनके प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए जाना जाता है।
नलिनी बाला देवी ने अपने जीवनकाल में जो कुछ भी किया और जो कुछ हासिल किया उसकी जड़ें उनके बचपन और परिवार में थीं। उनका जन्म सन 1898-99 के आसपास गुवाहाटी में एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और लेखक नबीन चंद्र बोरदोलोई के घर में हुआ था। नबीन चंद्र ने असहयोग आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था। बचपन से ही नलिनी बाला का रुझान साहित्य की तरफ़ था और देश के लिए कुछ करने का जज़्बा उन्हें अपने पिता से मिला था। वह जब सिर्फ़ दस साल की थीं, तब उन्होंने एक कविता लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘पिता’। उनके पिता महिलाओं के अधिकारों के हिमायती थे। उन्होंने सुनिश्चित किया कि नलिनी बाला को सही शिक्षा मिले।
नलिनी बाला देवी पढ़ने लिखने के लिए पिता के साथ कलकत्ता चली गईं। यहीं पर नलिनी बाला की लेखन और राष्ट्रवादी आंदोलन दोनों में दिलचस्पी बढ़ी।
लेकिन अगले कुछ वर्षों में उनके जीवन में हुईं घटनाओं ने उनके जीव और साहित्य की धारा को बहुत बदल दिया। उस समय की सामाजिक परंपरा के अनुसार उनकी शादी 12 साल की उम्र में हो गई थी। उनके चार बच्चे थे लेकिन आठ साल बाद सन 1917 में उनके पति का निधन हो गया। उन्होंने बहुत जल्द अपने दो छोटे बेटों को भी खो दिया लेकिन दुखों का सिलसिला यहां ख़त्म नहीं हुआ। सन 1922 में उनके पिता को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आंदोलन में भाग लेने के आरोप में जेल में डाल दिया गया था। उनके बेटे को ज़िंदा जला दिया गया। इस सब से जूझ कर नलिनी बाला देवी ने काव्य संसार में शरण ली। उनकी कविताएँ त्रासदी, देश-प्रेम और भक्ति भावनाओं से भरी थीं। उन्होंने जेल में बंद अपने पिता को पत्र भी लिखे थे।
उनका पहला कविता संग्रह “संध्यार सुर” 1928 में प्रकाशित हुआ। बाद में इसे कलकत्ता विश्वविद्यालय और गुवाहाटी विश्वविद्यालय ने अपने पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया।
अपने ख़र्चे पूरे करने के लिये उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था।
अध्यात्म और देशभक्ति उनकी रचनाओं के दो प्रमुख विषय रहे हैं। उनके लिए देशभक्ति मानवता के निवास-स्थान की तरह थी। अपने पिता और राष्ट्र के प्रति उनके समर्पण से प्रेरित होकर उन्होंने अपने पिता की एक बेहतरीन जीवनी लिखी। उन्होंने अपने पिता की देशभक्ति की भावना को आत्मसात कर देशभक्ति की कुछ कविताएँ लिखीं जिनमें राष्ट्र के प्रति उनके प्रेम और इसके गौरवशाली अतीत को पूरी शिद्दत और पुरज़ोर तरीक़े से व्यक्त किया गया। उनके लेखन का एक दिलचस्प पहलू यह है कि कैसे उन्होंने असम की सुंदरता के साथ साथ भारत की सुंदरता का वर्णन किया है। भारत, रवींद्र तर्पण, महानदर आत्मा कहिनी (ब्रह्मपुत्र नदी की जीवनी) देशभक्ति पर उनकी कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
नलिनी बाला देवी को उनके साहित्य में रहस्यवाद के लिए भी जाना जाता था। कहा जाता है कि वह उपनिषद और रवींद्रनाथ टैगोर के साहित्य से बहुत प्रेरित थीं। रहस्यवाद एक आध्यात्मिक और पारलौकिक दुनिया की अवधारणा पर आधारित है। चंद्रकुमार अग्रवाल जैसे असमिया कवियों को जहां पारलौकिकता पर उनके लेखन के लिए जाना जाता है, वहीं नलिनी बाला देवी को असम साहित्य में अध्यात्मवाद को चित्रित करने के लिए जाना जाता है। वह कर्म की अवधारणा में विश्वास करती थीं और उनकी राय में मनुष्य का पुनर्जन्म होता है। उनकी रचना ‘परम-तृष्णा ‘ एक लंबी कविता है, जिसमें उनकी कुछ दार्शनिक मान्यताओं का विवरण है। वह लिखती हैं:
कई बार मैंने तुम्हारी गोद में जन्म लिया
और कई बार वापस चली गई
कर्मों के अधूरेपन के कारण,
कई बार तुम्हारे पास वापस आई।
(असमियां से अंग्रेज़ी अनुवाद- एन सी बोरदोलोई, बरुआ प्रीति)
साहित्य के अलावा, नलिनी बाला ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी योगदान किया। वह उन कुछ महिलाओं में से थीं जिन्होंने असम में गांधी जी के असहयोग और स्वदेशी आंदोलन का खुलकर समर्थन किया। नलिनी बाला ने असम की कुछ अन्य महिलाओं जैसे हेमंता कुमारी देवी और गुणेश्वरी देवी के साथ मिलकर खादी के उत्पादन को बढ़ाने के लिए गुवाहाटी में एक बुनाई प्रशिक्षण केंद्र खोला। कताई और बुनाई को बढ़ावा देना असहयोग आंदोलन के प्रमुख रचनात्मक कार्यक्रमों में से एक था। कहा जाता है कि उन्होंने सन 1950 में बच्चों, उनकी शिक्षा और कल्याण के लिए एक संगठन बनाया था। इसे सदौ असम पारिजात कानन कहा जाता था और बाद में इसका नाम मोइना पारिजात हो गया। दिसंबर 1977 में उन्होंने अंतिम सांस ली।
उनकी साहित्यिक विरासत आज भी असमिया साहित्य में जीवित है। सन 1957 में साहित्य में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया था। उन्हें उनके कविता संग्रह “अलकनंदा” (1964) के लिए 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। वह पद्मश्री से सम्मानित होने वाली पहली महिला असमिया कवि और असम साहित्य सभा की अध्यक्षता करने वाली पहली महिला थीं। असम साहित्य सभा की स्थापना दिसंबर सन 1917 में असम और असमिया साहित्य की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए की गई थी। वे अपने युग की सर्वश्रेष्ठ कवयित्रियों में से एक थीं। दर्शन में डूबी उनकी कविताएँ आज भी प्रेरणा देती हैं.. अपनी एक कविता में वे लिखती हैं:
आंखें जो पृथ्वी की असीम सुंदरता के लिए भटकती हैं,
ह्दय जो इंद्रियों के मीठे सुख के लिए तरसता है,
ये हमारे क्षणिक जीवन में तुच्छ, अर्थहीन नहीं हैं;
वे आगे की ओर बढ़ते क़दम हैं,
स्वयं और स्वछंद के एहसास के लिए
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