उत्तरी श्रीलंका में जाफना प्रायद्वीप के मुहाने पर नैनातिवु द्वीप है, जो भारतीय समुद्र तट से सिर्फ़ 35 किलोमीटर दूर स्थित है। ये प्रायद्वीप 4 वर्ग किलोमीटर में फ़ैला हुआ है, जहां हिंदू और बौद्ध धर्म को समर्पित दो महत्वपूर्ण मंदिर हैं। ‘शक्ति‘ के रूप में देवी को समर्पित नागापोशानी अम्मान मंदिर भारत के बाहर कुछ ‘शक्ति पीठों‘ में से एक है। द्वीप में एक ‘नागादीप पुराण विहार‘ भी है, जो श्रीलंका के सबसे पवित्र बौद्ध मंदिरों में से एक है। माना जाता है कि एक बार भगवान बुद्ध यहां आए थे।
दिलचस्प बात यह है, कि ‘नागा‘ का संबंध है हिंदू शक्ति पीठ मंदिर और बौद्ध विहार से है। विद्वानों का मानना है कि द्वीप के मूल आदिवासी निवासी नाग की पूजा करते थे, जिन्हें नागा के नाम से जाना जाता था। महापाषाण काल से दक्षिण भारत के साथ-साथ श्रीलंका में भी नाग पूजा बहुत प्रचलित थी। प्राचीन काल में जाफ़ना प्रायद्वीप को नाका नाडु या नागदीप के नाम से जाना जाता था। समय के साथ, नाग की पूजा करने वाली जनजातियों ने हिंदू और बौद्ध परंपराओं को अपना लिया।
हिंदू और बौद्ध धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, नतीजे में उन्होंने जल्द ही अतिमानवों के एक वर्ग का रूप ले लिया, जो सर्प के रुप में भूमिगत रहने लगे। शायद नागा लोगों ने ही नागपोशनी अम्मान मंदिर बनवाया होगा, जो बाद में हिंदू देवालय में शामिल हो गया होगा। अफ़सोस की बात है, कि सन 1620 में पुर्तगालियों ने मूल मंदिर को तोड़ दिया था, जिसकी वजह से मंदिर के आरंभिक इतिहास के सभी सबूत मिट गए। हमें नहीं पता, कि असली मंदिर किसने और क्यों बनवाया था।
मंदिर का द्वीप के ऐतिहासिक और व्यावसायिक महत्व से गहरा नाता है। नैनातिवु का उल्लेख दूसरी शताब्दी के तमिल महाकाव्यों मणिमेखलै और कुंडलकेसी में मणिपल्लवम के रूप में मिलता है। विभिन्न स्थानों के व्यापारी क़ीमती रत्न और शंख लेने मणिपल्लवम आते थे।
एक समृद्ध व्यापारिक केंद्र होने के अलावा, इस क्षेत्र का उतना ही बड़ा धार्मिक महत्व भी था। कहा जाता है, कि यह बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र होता था। अशोक के पुत्र महेंद्र ने लगभग तीसरी शताब्दी (ई.पू.) श्रीलंका में बौद्ध धर्म की शुरुआत की थी, जो पूरे देश में फैल गया और ख़ूब फलाफूला। नैनातिवु के भगवान बुद्ध के साथ कई कथा-कहानियां जुड़ी हुई हैं। कहा जाता है, कि भगवान बुद्ध दो नागा राजाओं के बीच विवाद सुलझाने के लिए लगभग छठी शताब्दी(ई.पू.) में यहां आए थे। हालांकि ऐतिहासिक रूप से इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती । कहा जाता है, कि जहां ‘नागदीप पुराण विहार‘ स्तूप है, वहां बुद्ध ने दो नागा राजाओं के बीच मध्यस्थता की थी।
नैनातिवु हिंदुओं के लिए भी आस्था एक महत्वपूर्ण केंद्र था। भारत में भौगोलिक रुप से तमिलनाडु के पास होने के कारण दूसरी शताब्दी में भारत से तमिल श्रीलंका जाकर बसे और वहां उन्होंने अपने धर्म और संस्कृति का प्रसार किया। इन वर्षों में देश भर में कई हिंदू मंदिर बनवाये गये, जिनमें नैनातिवु नागपोशनी अम्मान मंदिर को सबसे पवित्र मंदिरों में से एक माना जाता है।
हालांकि इस मंदिर के निर्माण के बारे में कुछ पता नहीं है,इसके बावजूद मंदिर अत्यधिक पूजनीय है ,क्योंकि इसे शक्ति पीठों में से एक माना जाता है जो देवी सती को समर्पित है। कहा जाता है, कि शिव की पहली पत्नी सती ने भगवान ब्रह्मा के पुत्र और अपने पिता प्रजापति दक्ष से नाराज़ होकर यज्ञ कुंड में आत्मदाह कर लिया था, क्योंकि दक्ष ने शिव का अपमान किया था। अपनी पत्नी की मृत्यु के बारे में सुनकर दुखी और क्रोधित शिव पृथ्वी लोक चले गए और उन्होंने विनाश का नृत्य तांडव शुरू कर दिया। इससे चिंचित होकर चिंतित भगवान विष्णु ने सुदर्शन-चक्र से सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिये, जो भारतीय उपमहाद्वीप में गिरकर बिखर गये। जहां वे टुकड़े गिरे थे, वहां मंदिरों का निर्माण किया गया था। ये मंदिर देवी की पूजा के सबसे पवित्र स्थान बन गए। वर्षों से इन शक्तिपीठों का उल्लेख कई प्राचीन ग्रंथों में मिलता रहा है। ब्रह्माण्ड पुराण में मंदिर का उल्लेख 51 शक्ति पीठों में से एक के रूप में किया गया है, और यहीं पर सती की पायल गिरी थी।
इस स्थान पर एकमात्र ऐतिहासिक अभिलेख मंदिर के प्रवेश-द्वार के पास पाया गया है। वह 12वीं शताब्दी का शिलालेख था। अफ़सोस की बात य़ह है, कि शिलालेख के अधिकांश भाग गुम हो गये हैं। इसका जो कुछ हिस्सा बचा रह गया है, उससे मंदिर के बारे में कुछ नहीं पता चलता। हालांकि इससे जाफ़ना क्षेत्र के महत्व के बारे में जानकारी ज़रुर मिलती है।
यह क्षेत्र लगभग 11वीं-13वीं शताब्दी के आसपास पोलोन्नारुवा साम्राज्य के अधीन हो गया, जो श्रीलंका का दूसरा प्रमुख सिंहली साम्राज्य था। इसकी स्थापना राजा विजयबाहु ने चोल राजवंश को हराने के बाद की था।
मंदिर में मिला शिलालेख पोलोन्नारुवा साम्राज्य के राजा पराक्रमबाहु- प्रथम (शासनकाल 1153-1186) ने जाफ़ना में उनके स्थानीय अधिकारियों के लिए जारी किया गया था। इसमें जहाज़ के मलबे वाले विदेशी व्यापारियों से व्यापार के तौर-तरीक़ों के बारे में निर्देश और सलाह दी गई थी। इसमें वर्तमान केट्स के बंदरगाह पर टूटे-फूटे जहाज़ों के मलबे के निपटाने से संबंधित नियम शामिल थे। इससे पता चलता है, कि 12वीं-13वीं शताब्दी के दौरान केट्स एक महत्वपूर्ण नौसैनिक और वाणिज्यिक केंद्र था।
कहा जाता है, कि असली मंदिर को लगभग सन 1600 के दशक में पुर्तगालियों ने नष्ट कर दिया था और एक सदी बाद सन 1700 के दशक में देवता की पूजा के लिए एक नया मंदिर बनाया गया था। हालांकि, आज हम जो मंदिर देखते हैं, उसकी स्थापना 19वीं-20वीं शताब्दी में हुई थी। मंदिर के चारों ओर चार बड़े गोपुरम हैं जिनका निर्माण 20वीं शताब्दी में हुआ था। मंदिर के गर्भगृह के ऊपर दस फ़ुट ऊंचा एक विशाल विमान टॉवर (शिखर) है। मंदिर की दीवारें कई मूर्तियों और चित्रों से सुसज्जित हैं।
सन 1983 में, श्रीलंका में गृहयुद्ध के दौरान द्वीप पर लिट्टे का कब्ज़ा हो गया था। इस दौरान कई स्थानीय लोग द्वीप से पलायन कर गए थे। लेकिन शुक्र है, कि मंदिर को कोई नुक़सान नहीं पहुंचा। सन 2009 में गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद द्वीप में शांति लौट आई है।
आज, नैनातिवु नागापोशनी अम्मान मंदिर श्रीलंका के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ-स्थलों में से एक है जहां हज़ारों संख्या में तीर्थयात्री आते हैं।
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