भारत के चर्च के इतिहास में ईसाई धर्म के प्रमुख ग्रंथ ‘बाईबल’ का हिन्दी में अनुवाद एक महत्वपूर्ण घटना है, क्योंकि इसके माध्यम से देश की एक बड़ी आबादी के बीच प्रभु यीशु के पवित्र संदेशों का प्रचार-प्रसार हुआ। ग़ौररतलब है कि बाईबल का यह पहला मुकम्मिल अनुवाद मुंगेर (बिहार) के एक बैपटिस्ट मिशनरी (धर्म-गुरू) जान पारसन्स के ने किया है।
यहां बाईबल के ‘न्यू टेस्टामेंट’ अर्थात् ‘नया धर्म नियम’ का अनुवाद हुआ था। जिस बैपटिस्ट मिशन में अनुवाद के इस महत्वपूर्ण कार्य को अंजाम दिया गया, वो मुंगेर के क़िला-क्षेत्र में सूफ़ी पीर नफ़ा शाह के मज़ार के निकट, गंगा के पश्चिमी तट पर, सुजी घाट पर हरे-भरे घने पेड़ों के बीच स्थित है।
यह भी एक संयोग की बात है कि मुंगेर, जिसकी पहचान इसके पुराने क़िले और इसके इर्द-गिर्द हुए सत्ता-संघर्ष की लड़ाइयों और बंदूक़-बारुद के धमाकों के लिये है, लेकिन वहीं से पूरे देश में प्रभु यीशु के शांति संदेश भी फैले।
मुंगेर की अहमियत जहां ईसाईयों के पवित्र धर्म-ग्रंथ की अनुवाद-स्थली होने के कारण है, वहीं भारत में बैपटिस्ट मिशन की स्थापना करनेवाले विलियम कैरी के नाम के साथ जुड़े होने के कारण भी है। मुंगेर ईसाइयों और उनके धर्म-प्रचारकों का पसंदीदा शहर रहा है जिसकी गवाही आज भी यहां की सिमेट्री में बने उनकी अनगिनत कब्रें दे रही हैं।
बाईबल के ओल्ड और न्यू टेस्टामेंट में प्रभु यीशु की भविष्यवाणियां और उनके पूर्ण होने के दृष्टांत संग्रहित हैं। न्यू टेस्टामेंट में मत्ती रचित सुसमाचार में बताया गया है कि यीशु एक महान गुरु हैं जिनको परमेश्वर की व्यवस्था की व्याख्या करने का अधिकार है तथा जो परमेश्वर के राज्य की शिक्षा देते हैं। अतः बाईबल के दोनों टेस्टामेंट ईसाई धर्म के मेरू-दंड हैं।
भारत में बाईबल के हिन्दी अनुवाद का इतिहास बड़ा ही रोचक है जिसका सिलसिला जर्मन मिशनरी (धर्म-गुरू) बेंजामिन शूल्ज़ के साथ सन 1726 के आस-पास शुरू होता है जिसे मुंगेर के बैपटिस्ट मिशनरी जान पारसन्स ने अंजाम तक पहुंचाया। शूल्ज़ द्वारा किया गया बाईबल का हिन्दी अनुवाद आंशिक था जिसका प्रकाशन सन 1745 में हिन्दी भाषा के व्याकरण के साथ हुआ। शूल्ज़ ने तमिल और तेलुगू भाषाओं में भी बाईबल का अनुवाद किया था।
बाईबल के हिन्दी अनुवाद के प्रारंभिक चरण में ब्रिटिश मिशनरी विलियम कैरी (1761-1834) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। कैरी ने बाईबल के बांग्ला, संस्कृत, ओड़िया, मराठी सहित अन्य 29 भाषाओं में भी अनुवाद का काम किया था। लेकिन कैरी के अनुवाद की भाषा बहुत कठिन होने के कारण इसके सुधार की सख़्त ज़रूरत महसूस की गयी, जिसे मुंगेर के जान पारसन्स ने मुकम्मल किया।
बिहार ज़िला गज़ेटियर (भाग 7,1957) बताता है कि “श्रीरामपुर (पश्चिम बंगाल) के कैरी ने सन1819 के अंत में पूरे बाईबल का हिन्दी अनुवाद किया था। किंतु कैरी द्वारा किया गया अनुवाद बहुत कठिन था और इसपर दो बारा कार्य करने की ज़रूरत थी जिसे संभवतः जान पारसन्स ने पूरा किया।”
जान पारसन्स इंग्लैंड के लोपरटन, सोमरसेट के रहने वाले थे। सन 1881 में लखनऊ से प्रकाशित और बी. एच. बेडले द्वारा सम्पादित ‘इंडियन मिशनरी डाइरेक्टरी एण्ड मेमोरियल वोल्यूम’ बताता है कि ‘पारसन्स, जो न्यू टेस्टामेंट के हिन्दी अनुवाद के काम से जुडे थे, सन 1840 में भारत आये और मुंगेर में रहे तथा उनकी मृत्यु सन 1869 में हुई।’
पारसन्स ने एक सफल मिशनरी (धर्म-उपदेशक) एवं व्यवहारिक तथा प्रबुद्ध उपदेशक की तरह 29 वर्षों तक मुंगेर में रहकर धर्म और मानवता के लिये काम किया । मुंगेर के सीताकुंड रोड पर मुफ़स्सिल थाने के बगल में स्थित क़ब्रिस्तान में उन्हें दफ़नाया गया था। पारसन्स के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर रौशनी डालते हुए तथा बाईबल के हिन्दी अनुवाद में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान का उल्लेख करते हुए उनकी क़ब्र के शिला-लेख पर अंकित है कि ‘वे हिन्दी के एक परिपक्व विद्वान और सक्षम अनुवादक थे। उनके द्वारा अनुवादित न्यू टेस्टामेंट का हिन्दी संस्करण अतुलनीय है।’
इसी तरह यह बात भी निर्विवाद है कि मुंगेर के बैपटिस्ट मिशनरी जान पारसन्स ने ही न्यू टेस्टामेंट का पहला हिंदी आनुवाद सफल रूप से किया। ऐसे मुंगेर के एक अन्य बैपटिस्ट मिशनरी ए. लेसली द्वारा भी न्यू टेस्टामेंट के हिन्दी अनुवाद किये जाने की बात की जाती है। पर वो भी वास्तव में इसके प्रारंभिक अनुवाद से ही संबंधित थे।
ओमेली के मुंगेर ज़िला गज़ेटियर (1909) के अनुसार ‘वर्तमान में जिस न्यू टेस्टामेंट का उपयोग किया जाता है, वो मुंगेर के एक बैपटिस्ट मिशनरी द्वारा अनुवाद किया गया है।’ इस संदर्भ में सन 1960 में प्रकाशित मुंगेर ज़िला गज़ेटियर में ज़िक्र किया गया है कि ‘मुंगेर के एक मिशनरी के द्वारा न्यू टेस्टामेंट का हिन्दी अनुवाद इसका पहला हिन्दी अनुवाद है या नहीं, इस बात को स्थापित करने हेतु छान-बीन की गयी।’ स के बाद विलियम कैरी एवं लेसली के हिन्दी अनुवाद कार्यों की प्रशंसा करते हुए उक्त गज़ेटियर आगे लिखता है कि पारसन्स की क़ब्र पर खुदे शिला-लेख से ‘बेशक यह पता चलता है कि न्यू टेस्टामेंट का पहला हिन्दी अनुवाद संभवतः पारसन्स ने ही किया गया था, लेसली ने नहीं किया था।’
इतिहास के महत्त्वपूर्ण पन्नों को संजोये है मुंगेर की मिशन कोठी:
मुंगेर के गंगा तट पर स्थित बैपटिस्ट मिशन, जहां बाईबल का प्रथम हिन्दी अनुवाद हुआ था और जो कि मिशन कोठी के नाम से जाना जाता है, भारत में चर्च के इतिहास और मिशनरी गतिविधियों का गवाह रहा है। एक समय यहां भारत में बैपटिस्ट मिशन की
स्थापना करने वाले विलियम कैरी रहा करते थे। यह वो दौर था जब सन 1762 में बंगाल के नवाब मीर क़ासिम ने अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से बदल कर मुंगेर को राजधानी बनाया था।
ओमेली का मुंगेर ज़िला गज़ेटियर बताता है कि बैपटिस्ट मिशन की स्थापना सन 1816 में हुई थी जिसके अहाते में मिशन कोठी खड़ी है। इसका मुख्य भाग कभी मीर क़ासिम का सैन्य केंद्र हुआ करता था जहां से गंगा की तरफ़ से आनेवाले दुश्मनों पर निगरानी रखी जाती थी।इस सैन्य केंद्र में भूमिगत कमरे थे जहां से सुरंगें निकलती थीं जिनके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। मीर क़ासिम की पराजय के बाद अंग्रेजों ने इसे अपने अधीन लेकर इसका विस्तार कर मिशन कोठी का स्वरूप दिया था।
मिशन कोठी पाश्चात्य और भारतीय वास्तुकला का अनूठा मिश्रण है। इसकी ख़ासियत यह है कि इसका आकार स्टीमर के जैसा है जिसके ऊपर एक सपाट गुम्बद बना हुआ है जो तड़ित संचालक (लाइटनिंग कंडक्टर) का काम करता है।
इस भवन की घुमावदार रेलिंग और बीच में बने रैम्प, छोटे-छोटे खड़े पायों वाले बरामदे पर बनी रेलिंग तथा इसके चौकोर खंभे सादगीपूर्ण ढंग से निर्मित होने के बावजूद आकर्षक लगते हैं। जानकार बताते हैं कि मुंगेर के भूकंप प्रभावित क्षेत्र होने के कारण इसमें हावड़ा ब्रिज निर्माण की तकनीक अपनाई गई है और इसके भवन की छत और प्लिंथ को लोहे के फ्रेमों से बांधा गया है।
मिशन कोठी से जुड़ी हैं बैपटिस्ट मिशन के संस्थापक कैरी की यादें
भारत में बैपटिस्ट मिशन की स्थापना करनेवाले विलियम कैरी (1761-1834) को ‘फ़ादर आफ़ मिशन’ कहा जाता है। भारत में मिशनरी कार्यों के अलावे डिग्री कोर्स की शिक्षा और तकनीकी शिक्षा सहित भारतीय भाषा का पहला अख़बार ‘समाचार दर्पण’ तथा अंग्रेज़ी दैनिक ‘स्टेट्समेन’ का प्रकाशन प्रारंभ करने के लिये भी उन्हें संजीदगी से याद किया जाता है। उन्होंने बनस्पति शास्त्र, समाजिक विज्ञान और साहित्य समेत 132 विषयों पर पुस्तकों की रचना की तथा 40 भारतीय भाषाओं में बाईबल का अनुवाद भी किया। देश में पहले बचत बैंक की शुरुआत करने के साथ यहां स्टीम इंजन लाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है।
भारत में कोलकाता और श्रीरामपुर (तत्कालीन फ्रेडरिक नगर) सहित मुंगेर में भी कैरी ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण समय बिताये थे। मुंगेर की मिशन कोठी में कैरी के प्रवास-काल की ऐसी अनेक वस्तुएं हैं जो उनकी यादों को बरबस ताज़ा कर देती हैं।
मुंगेर में कैरी से जुड़ी यादों में सबसे महत्वपूर्ण ‘होली ग्रेल’ (पवित्र कटोरा) है जिसे कैरी इंग्लैंड से लाये थे। क़रीब 5 किलो वजन वाला अष्टधातु से निर्मित बारीक कलाकारी वाला यह पात्र उस बर्तन की प्रतिकृति है जिसमें प्रभु यीशु ने अपना अंतिम भोजन ग्रहण किया था।
जिस कमरे में बैठ कर कैरी अपना काम करते थे उसकी दीवार पर उनकी तिजोरी चुनी हुई है जो बर्मिंघम की जार्ज टीटरसेन कम्पनी की बनाई हुई थी। यहां बेंत की बारीक कारीगरी वाली एक आराम कुर्सी भी रखी है जिसपर कैरी बैठा करते थे। यहां कैरी के समय की कई पुस्तकें और अभिलेख भी रखे हुए हैं। यहां क़रीब 75 साल पुराना एच.एम.वी. कम्पनी का एक पुराना ग्रामोफ़ोन और ग्रामोफ़ोन रेकार्ड रखे हुए हैं जिसे प्रभु यीशु के वचनों के प्रचार-प्रसार के लिये उपयोग में लाया जाता था।
दो सौ साल पुराना है मुंगेर के बैपटिस्ट चर्च का इतिहास:
मुंगेर के बैपटिस्ट मिशन सोसायटी और मिशन कोठी की तरह यहां के बैपटिस्ट चर्च का इतिहास भी शानदार है। बीते समय में ईसाइयों का पसंदीदा शहर रहे मुंगेर के दो बडे क़ब्रिस्तान भले ही आज जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़े हों, पर यहां की क़ब्रों की निर्माण-शैली यहां पर रहनेवाले यूरोपियनों के उच्च श्रेणी के जीवन-यापन की मिसाल पेश करती सी नज़र आती हैं।
बैपटिस्ट मिशन परिसर में मौजूद यह चर्च आकार में उतना विशाल नहीं है, पर अपने पुरानेपन और विशिष्ट शैली के कारण महत्वपूर्ण है।
यह भी एक विडंबना है कि इस चर्च का निर्माण दो बार हुआ है। पहले इसका निर्माण 16, मई, 1819 में हुआ था उसकी आधारशिला बैपटिस्ट मिशनरी जान चेम्बरलेन ने रखी थी। लेकिन सन 1934 में मुंगेर में आये भीषण भूकंप में यह पूर्णतः ध्वस्त हो गया था। उसके बाद 16 मई, 1936 को इसके पुनर्निर्माण की आधारशिला रखी गई जिसका विवरण चर्च की बाहरी दीवार पर लगे शिलालेख में अंकित है।
इस चर्च के साथ ए. लेसली और विलियम मूर सरीखे धर्म प्रचारकों के नाम जुड़े हैं। लेसली जो संभवतः यहां के पहले पास्टर थे, 17 जुलाई, 1824 को मुंगेर आये थे और यहां 11 वर्षों तक रहने के बाद 24 जुलाई, 1870 को उनकी मृत्यु हो गई थी।
इस चर्च के द्वितीय पास्टर विलियम मूर 40 वर्षों तक भारत में रहे और 68 वर्ष की आयु में 4 नवम्बर, 1844 में उनकी मृत्यु हुई। हर्षेल डियर नाम के पादरी ने अपने जीवन का अधिकांश भाग यहीं बिताया। उनकी मृत्यु सन 1887 में मसूरी में हुई, लेकिन उनका शव मुंगेर लाकर दफ़नाया गया। डॉ. पी. पी. सिन्हा अपनी पुस्तक ‘मुंगेर थ्रू एजेज़’ में बताते हैं कि मुंगेर के क़ब्रिस्तान में मेजर जनरल चार्ल्स मूर की भी क़ब्र है जो सन 1871 में यहां आकर बसे थे।
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