सिख समुदाय के इतिहास में भारत का विभाजन काले अध्यायों में से एक है। ये अध्याय भारत-पाकिस्तान के विभाजन की विभीषिका से भरा पड़ा है। विभाजन ने दो भारतीय प्रांतों को बीच में से चीर कर, दो देशों में बांट दिया था। विभाजन के दौरान हिंसा, ख़ूनख़राबा हुआ था और बहुत बड़ी संख्या में सिख समुदाय के लोगों की जानें गईं थी।
मास्टर तारा सिंह ने पहले विभाजन का पुरज़ोर विरोध किया था। लेकिन जब विभाजन अपरिहार्य हो गया, उसके बाद उन्होंने अपनी जान पर खेल कर,अपने लोगों को इस संकट के समय से बाहर निकालने में मदद की। मास्टर तारा सिंह शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के संस्थापकों में से एक थे। इस कमेटी के अंतर्गत तमाम गुरुद्वारे का नियंत्रण आता है। मास्टर तारा सिंह की पंजाब के प्रमुख राजनीतिक दल अकाली दल बनाने में भी अहम भूमिका रही थी। उन्होंने सिखों के हितों की रक्षा के लिये अथक प्रयास किये थे और60 के दशक में भाषा के आधार पर पंजाब राज्य बनाने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। दुर्भाग्य से पंजाब के इतिहास में उनके योगदान और विरासत को लगभग भुलाया जा चुका है।
तारा सिंह का जन्म 24 जून सन 1885 में रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) में, एक हिंदु परिवार में हुआ था। सिक्खों के ग्रन्थ और सीखों से प्रभावित होकर तारा सिंह ने युवा अवस्था मे ही सिख धर्म अपना लिया था। सन 1907 में उन्होंने अमृतसर के मशहूर खालसा कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की और शिक्षण में डिप्लोमा लेने के बाद, वह लयालपुर में, हाल ही में खुले खालसा हाई स्कूल में हेडमास्टर बन गए ।
उनमें सेवा भाव पहले से ही था और वह 150 रुपये के अपने मासिक वेतन में से 135 रुपये स्कूल की बेहतरी के लिये दे दिया करते थे। उनके मूल्यवान योगदान की वजह से उन्हें मास्टर का उपनाम दिया गया था जिससे वह सारी ज़िंदगी पहचाने गए। लेकिन हेडमास्टर होना तो उनके जीवन की शुरुआत भर थी। उनकी नियति तो सिख समुदाय की ज़ोरदार तरीक़े से सेवा करने की थी।
सन 1920 के दशक में पंजाब उठापटक के दौर से गुज़र रहा था। प्रथम विश्व युद्ध की वजह से चीज़ों का अभाव, अंग्रेज़ों द्वारा किये जा रहे राजनीतिक दमन और अमृतसर के जलियांवाला कांड ने सिख समाज को भीतर तक हिलाकर रख दिया था। इस दौरान अमृतसर के हरमिंदर साहिब (स्वर्ण मंदिर) सहित पंजाब के गुरुद्वारों पर सिख पंथ के उदासी महंतों का नियंत्रण होता था जिन पर भ्रष्टाचार और ज़्यादतियों के कई आरोप थे। इसी वजह से सामाजिक सुधार की मुहिम शुरु हुई जिसे “अकाली आंदोलन” या “गुरुद्वारा सुधार आंदोलन” के नाम से जाना जाता है।
सालों के संघर्ष और आंदोलनों के बाद 15 नवंबर सन 1920 में शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का गठन हुआ। इसके बाद 14 दिसंबर सन 1920 को शिरोमणी अकाली दल बना जो गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का कार्य दल था। तारा सिंह शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के संस्थापक सदस्य थे। कमेटी की सुधार मुहिम कीवजह से ही सन 1925 में गुरुद्वारा क़ानून बना। इस क़ानून के तहत कमेटी को सिख गुरुद्वारों पर पूरा नियंत्रण मिल गया, जो आज भी जारी है। 1921 में ननकाना साहिब हत्याकांड ने तारा सिंह पर इतना गहरा असर डाला, कि उन्होंने अध्यापन की नौकरी छोड़कर, अपना पूरा जीवन सिख समुदाय के हितों की रक्षा के लिए समर्पित कर दी.
सन 1920 के दशक में अकाली आंदोलन के दौरान तारा सिंह अपने विचारों के साथ-साथ अपनी पत्रकारिता भी पंजाब में सिख समुदाय की एक प्रखर आवाज़ बन गए। उन्होंने महात्मा गांधी, जवाहारलाल नेहरु जैसे राष्ट्रीय नेताओं के साथ मिलकर देश की आज़ादी के लिये काम किया। उनके डॉ. भीमराव अंबेडकर के साथ भी क़रीबी संबध थे।
“द सिख-डॉ. अंबेडकर कनेक्शन” में स्तंभकार प्रभदयाल सिंह सैनी लिखते हैं कि डॉ. अंबेडकर सिख धर्म से बहुत प्रभावित थे क्योंकि इसमें ज़ातपात का बटवारा नहीं थ। वह दलितों के नेता के रुप में, अपने कार्यों की तुलना सिख समुदाय का सामाजिक स्तर सुधारने के लिये तारा सिंह के प्रयासों से करते थे। तारा सिंह के मातहत शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने सिख धर्म की शिक्षा के ज़रिये मुंबई में पिछड़े वर्ग के लिये एक संस्थान खोलने की पहल की। इसी पहल के तहत सन 1937 में मुंबई में गुरु नानक खालसा कॉलेज खुला।
सन 1947 में विभाजन से पहले हुई घटनाओं में तारा सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उदाहरण के लिये मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिये अलग देश यानी पाकिस्तान के लिये जब मार्च सन 1940 में, लाहौर प्रस्ताव पास किया तब सिखों ने तारा सिंह के नेतृत्व में इसका सबसे पहले विरोध किया था। दूसरी तरफ़ राष्ट्रीय कांग्रेस,मुस्लिम लीग के इस प्रस्ताव पर अपनी राय बनाने के लिये अप्रैल 1942 तक यानी पूरे दो साल इंतज़ार करती रही।
इतिहासकार पृथीपाल सिंह कपूर ने अपनी किताब “मास्टर तारा सिंह एंड हिज़रेमनिसन्सिज़” में दावा किया है कि विभाजन के दौरान तारा सिंह की कोशिशों की वजह से ही सिख समुदाये,तीसरे सबसे बड़े समुदाय के रूप में उभरकर सामने आया था। अकाली दल और तारा सिंह के नेतृत्व में शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने अकाल तख़्त में घल्लूघारा( कत्ले आम) दिवस मनाने के लिये, मई सन 1940 में धार्मिक सभा का आयोजन किया था जिसमें सिखों ने पाकिस्तान बनाने के विचार का विरोध करने की शपथ ली थी।
मोहम्मद अली जिन्ना ने आश्वासन दिया था कि पाकिस्तान बनने से सिखों को डरने की ज़रुरत नही है लेकिन बावजूद इसके तारा सिंह सिख समुदाय के भविष्य को लेकर चिंतित थे। मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने अपनी किताब “ए हिस्ट्री ऑफ़ सिख्स” में लिखा है कि “सिख विकट स्थिति में थे। उनके सामने आज़ादी के दो प्रतिद्वंदी आंदोलन थे, एक का नेतृत्व राष्ट्रीय कांग्रेस कर रही थी जो पूरे देश की आज़ादी चाहती थी और दूसरी तरफ़ मुस्लिम लीग थी जो मुसलमानों के लिये अलग राष्ट्र का आंदोलन कर रही थी। मुस्लिम लीग के आंदोलन का मतलब था देश का विभाजन और इससे उस ज़मीन के भी टुकड़े हो जाएंगे जिस पर सिख रहते थे।” तारा सिंह कांग्रेस सरकार की क्षमता को समझते थे। उन्हें लगता था चूंकि कांग्रेस सरकार राष्ट्रवादी और धर्मनिर्पेक्ष है इसलिये उसके शासन में पंजाब का भविष्य सुरक्षित रहेगा।
सन 1942 में तारा सिंह ने ज्ञानी करतार सिंह, जोगिंदर सिंह, मोहन सिंह और उज्जल सिंह के साथ मिलकर आज़ाद पंजाब आंदोलन शुरु किया। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि मुस्लिम बहुल ज़िलों को हटाकर पंजाब को एक नया प्रांत बनाया जाए। दूसरा प्रस्ताव ये था कि पंजाब प्रांत का गठन कुछ इस तरह से होना चाहिये कि कोई भी एक समुदाय बहुसंख्यक न हो। हालंकि इस योजना का कोई नतीजा नहीं निकला लेकिन तारा सिंह अपनी जगह डटे रहे।
सन 1944 में “राजाजी-गाँधी फार्मूला” इस उम्मीद में लागू हुआ कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच मतभेदों को सुलझाया जा सके. वहीँ दूसरी ओर, अकालियों के साथ मित्रता के बावजूद तत्कालीन पंजाब के मुख्य मंत्री खिज्र हयात खान इस दुविधा में पड़ गए, कि क्या सिखों को उनके “आज़ाद पंजाब” की मांग पर विचार किया जाए, या फिर मुहम्मद अली जिन्नाह के सुझाव पर अपने राजनैतिक दल को मुस्लिम लीग में शामिल कर दिया जाए. तारा सिंह ने सफाई दी, कि पंजाब की रचना सिखों के हितों की रक्षा के लिए ही की जा रही है और किसी अन्य कारण से नहीं. दुर्भाग्यवश, गंभीर मतभेदों के चलते “राजाजी-गांधी’ फार्मूला विफल हुआ और 20 अगस्त, 1944 अम़ृतसर में सिख नेताओं की बैठक हुई और उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व की निंदा करते हुए समस्त सिख समुदाय ने पूरा मामला अपने हाथों में लेने का फ़ैसला किया। यहीं तारा सिंह सिख हितों के सबसे मुखर स्वर के रुप में उभरे। सरदार हरबंस सिंह की “किताब हेरिटेज ऑफ़ द सिख” के अनुसार अंग्रेज़ों ने तारा सिंह को दिल्ली में मोहम्मद अली जिन्ना से मिलने के लिये प्रोत्साहित किया। दोनों की सन 1944 में मुलाक़ात भी हुई। जिन्ना ने तारा सिंह के सामने पाकिस्तान में एक स्वतंत्र सिख राज्य बनाने की पेशकश की लेकिन तारा सिंह ने इस भुलावे में आने से साफ़ इनकार कर दिया।
सन 1945 में अंग्रेज़ों ने शिमला सम्मेलन का आयोजन किया, जहां भारत के वाइसरॉय लॉर्ड वैवल ने भारतीय स्वायत्त सरकार की योजना पर सहमति के लिये भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से भेंट की। देश में राजनीतिक तनाव ख़त्म करने के लिये सिखों को अलग से प्रतिनिधित्व दिया गया और लॉर्ड वैवल ने समुदाय के नेता के रुप में तारा सिंह को चुना। इस सम्मेलन का निष्कर्ष ये निकला कि नए कार्यपालक दल और नये संविधान के साथ साथ नये कैबिनेट का गठन किया जाए. मगर ब्रिटेन में हुए चुनावों में लेबर पार्टी की जीत के तत्पश्चात, ये सम्मेलन विफल हुआ.
फिर अगले वर्ष 1945 में, ब्रिटेन के प्रधान मंत्री क्लेमेंट अटली और स्टैफ़ोर्ड क्रिप्प्स के नेतृत्व में एक नया दल भारत आया, और अनेक भारतीय राजनेताओं से बातचीत के बाद, तारा सिंह ने ये बात साफ़ की, कि वो अखंड भारत के पक्ष में हैं. यदि इसका विभाजन हुआ, तो पंजाब को एक अलग राज्य की मान्यता के साथ-साथ, इस बात का चुनाव करने का भी अधिकार मिले कि उसको किस देश के साथ शामिल होना है.
1946 में हुए प्रांतीय चुनाव में मुस्लिम लीग को भारी सफलता मिली, तो तत्कालीन पंजाब के मुख्यमंत्री खिज्र हयात खान ने कांग्रेस और अकालियों के साथ गठबंधन बनाई. लीग इस बात से नाखुश थी. और पाकिस्तान की चाहत में मुहम्मद अली जिनाह ने 16 अगस्त 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन डे” का एलान किया, जिससे पंजाब, बंगाल और बिहार में साम्प्रदायिक दंगों के कारण भारी क्षति हुई. अगले साल, लीग के दबाव में आकर खिज्र हयात खान ने 3 मार्च, 1947 को पंजाब के मुख्य मंत्री के पद से इस्तीफा दिया और अब सिख समुदाय के लिए खतरे की घंटी अब और तेज़ी से बज रही थी.
“मास्टर तारा सिंह एंड हिज़ रेमनिसन्सिज़” किताब में इतिहासकरा पृथीपाल सिंह कपूर लिखते हैं,“चार मार्च 1947 को लाहौर के असैम्बली हॉल में अकाली विधायक दल की बैठक हुई। तारा सिंह और 23 सिख विधायक जब असैम्बली भवन से बाहर निकले तो भीड़ “पाकिस्तान ज़िंदाबाद” के नारे लगाने लगी। जवाब में तारा सिंह और उनके समर्थक “पाकिस्तान मुर्दाबाद” के नारे लगाने लगे।”
चार दिन बाद अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने एक प्रस्ताव पारित कर पंजाब के बंटवारे की मांग की लेकिन तब तक तारा सिंह भारी क़ीमत अदा कर चुके थे। दंगाई रावलपिंडी में हिंदू और सिखों का क़त्लेआम कर चुके थे जिसमें तारा सिंह के ख़ुद के परिवार के 59 सदस्य शामिल थे।
मुस्लिम लीग के मौलिक प्रस्ताव के अनुसार पाकिस्तान में पूर पंजाब और बंगाल प्रांतो को भी शामिल करना था। लेकिन तारा सिंह पहल पर एन.सी. चटर्जी और एस.पी. मुखर्जी जैसे बंगाली नेताओं ने भारत की तरफ़ से, बंगाल के विभाजन के लिये मुहिम छेड़ दी। इन तीनों के बीच इतनी गहरे रिश्ते हो गए कि विभाजन के बाद जब भारत सरकार ने मास्टर तारा सिंह पर उनके खिलाफ पंजाब की रचना को लेकर जुलूस और भाषण दिए जाने पर मुकदमा चलाया तो चटर्जी उनके वकील बन गए। पंजाब का विभाजन रोकने के तमाम प्रयासों के बावजूद देश का विभाजन हो गया। विभाजन के बाद दंगे भड़क गए और नव गठित पाकिस्तान के पश्चिम पंजाब से लाखों की संख्या में हिंदु और सिख शरणार्थी भारत आने लगे। लाहौर और ननकाना साहिब गुरुद्वारे पाकिस्तान के हाथों खोने के बाद सिखों को भारत में अपने लिये एक राज्य की ज़रुरत मेहसूस हुई।
सन 1950 का दशक आते आते भारत में भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मांग उठने लगी थी और इसी आधार पर आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरातजैसे राज्य बनाये गये। सिख मामलों के इतिहासकार एस. अजमेर सिंह अपनी किताब “बीसवीं सदी की सिख राजनीति- एक ग़ुलामी से दूसरी ग़ुलामी तक”में लिखते हैं कि आज़ादी के बाद तारा सिंह ने भाषाई आधार पंजाब की सीमाओं की फिर से सरहदबंदी करने की मांग की। विभाजन के बाद पंजाब में 60 फ़ीसदी हिंदू और 35 फ़ीसदी सिख थे। अगले दशक तक तारा सिंह भाषाई आधार पर पंजाब राज्य के लिये आंदोलन करते रहे।
आख़िरकार सात सितंबर सन 1966 को पंजाब पुनर्गठन अधिनियम पारित हुआ और एक नवंबर सन 1966 को हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के साथ पंजाब राज्य भी वजूद में आ गया। तारा सिंह का सपना आख़िरकार साकार हो गया।
महान सिख नेता मास्टर तारा सिंह का 82 साल की उम्र में 22 नवंबर सन 1967 में निधन हो गया लेकिन इसके पहले वह अपने समुदाय को एक नया राज्य और एक नयी पहचान दे चुके थे।सिख हितो के प्रति संघर्ष में योगदान के लिये,21 अगस्त सन 2003 को, संसद भवन में, कभी हार न माननेवाले मास्टर तारा सिंह के एक चित्र का अनावरण करके उन्हें उचित सम्मान दिया गया।
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