मरुधनायगम पिल्लई उर्फ़ मुहम्मद यूसुफ़ खान: मदुरै का शूरवीर ‘संत’

तमिलनाडू के मदुरै में कान्सा मेट्टू स्ट्रीट और वहीँ के सम्माटीपुरम की एक दरगाह का ताल्लुक़ एक ऐसे व्यक्ति से है, जिन्होंने कर्नाटिक नवाबों और फिर यूरोपीयों के लिए वफ़ादारी निभाई। बाद उन्होंने उन्हीं के खिलाफ, अपने लोगों की स्वतंत्रता के लिए आख़िरी साँस तक लड़ाई भी लड़ी। ये थे मरुधनायगम पिल्लई उर्फ़ मुहम्मद यूसुफ़ खान।

18वीं शताब्दी के मध्य में, मुग़ल सल्तनत के पतन के साथ-साथ, अंग्रेज़, भारत की सत्ता में अपनी जगह बना रहे थे। उसी वक़्त पूर्वी भारत में चैत सिंह, फ़तेह बहादुर शाही और आदिवासी नेता तिलका माझी तथा दक्षिण भारत में हैदर अली, टीपू सुल्तान, पुलि देवर और वीरपांड्या कट्टबोमन के साथ मुहम्मद यूसुफ़खान ने, अंग्रेज़ों के ख़तरों को भांपकर, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ फ़ौजी कारवाई की। ख़ान को स्थानीय कथाओं और भारतीय इतिहास के साथ ही कई प्रमुख यूरोपीय दस्तावेज़ों में भी ख़ास दर्जा दिया गया है।

ख़ान के शुरुआती जीवन के बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज़ से पता चलता है, कि उनका जन्म सन 1725 (तारीख पता नहीं) में हुआ। कई जगहों पर उनके जन्म का सन 1727 बताया गया हैं। ख़ान वेल्लाल समुदाय के परिवार से थे, जो वर्तमान तमिलनाडु के रामनाड ज़िले के पनियुर गाँव में रहता था। उस वक़्त उनका नाम मरुधनायागम पिल्लई था। ये बचपन में बहुत शरारती और बाग़ी क़िस्म के थे। बताया जाता है, कि उनकी अपने माता-पिता से बिलकुल भी नहीं बनती थी। इसी वजह से किशोरावस्था में ही उन्होंने अपना गाँव छोड़कर, अपनी मर्ज़ी से इस्लाम क़ुबूल कर लिया था और  मुहम्मद यूसुफ़ ख़ान नाम रख लिया था और वे पोंडिचेरी चले गए। स्थानीय इतिहासकार मानते हैं, कि सन 1740 के दशक में ख़ान ने साढ़े तीन साल तक जैक्स लॉ नामक एक फ़्रांसीसी  अधिकारी के यहाँ नौकरी की। यहाँ उनकी मुलाक़ात मार्शंड नाम के एक फ़्रांसीसी व्यक्ति से हुई, जो आगे चलकर ना सिर्फ़ उनका दोस्त बना बल्कि उसकी मौत का कारण भी !

ख़ान और मार्शंड दोनों ने जैक्स लॉ से युद्ध रणनीति के गुर सीखे और दोनों में दोस्ती गहरी हो गई । लेकिन किसी मनमुटाव की वजह से, जब जैक्स लॉ ने ख़ान को सज़ा दी, तब ख़ान नेल्लूर(आंध्रप्रदेश) की ओर भाग गए। यहाँ उन्होंने मुहम्मद कमाल नाम के एक हकीम के यहां नौकरी की। वहां उन्होंने चिकित्सा-विज्ञान की तालीम के साथ अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी और पुर्तगाली भाषाओँ पर महारथ हासिल की। कहा जाता है, कि इस दौरान उन्होंने माज़ा नाम की एक पुर्तगाली महिला से शादी भी कर ली । ख़ान की युद्ध कुशलता और चिकित्सा-ज्ञान के चर्चे कर्नाटिक के नवाब चाँद साहिब तक पहुँच गए, क्यूंकि हकीम कमाल नवाब साहब के काफ़ी क़रीबी थे। उन्होंने ख़ान को नेल्लूर की सेना का सूबेदार बना दिया। एक दस्तावेज़ से पता लगता है, कि ख़ान ने एक अंग्रज़ी अधिकारी ब्रंटन के यहां नौकरी करके युद्ध-कौशल विस्तार से सीखा। ख़ान वहीं से नेल्लूर जाकर चाँद साहब की फ़ौज का हिस्सा बन गया। वहां उन्होंने सिपाही से लेकर फ़ौज के सूबेदार का पद सम्भाला।

अब इस दौरान, भारतीय उपमहाद्वीप में फ़्रांसीसी और अंग्रेज़ प्रभावशाली यूरोपीय शक्तियों के तौर पर उभरकर सामने आए, जिसके लिए वो हर जायज़ और नाजायज़ तरीक़े अपना रहे थे। कर्नाटिक (दक्षिण भारत) में मुहम्मद अली ख़ान वाल्लाजाह और चंदा साहब के बीच सत्ता को लेकर जंग छिड़ गई। यूरोप में सात वर्षों से जारी युद्ध की वजह से, अंग्रेज़ों और फ़्रांसीसियों ने, उस क्षेत्र में अपना प्रभाव जमाने के लिए दोनों की मदद की। एक ने वाल्लाजाह और दूसरे ने चंदा साहब का साथ दिया। अंग्रेज़ वाल्लाजाह के साथ थे और फ़्रांसीसी चंदा साहब के साथ। वहीँ दूसरे कर्नाटिक युद्ध (1749-1754) की वजह से आर्कोट की जंग (1751) के दौरान चंदा साहब की हार ज़रूर हुई ,लेकिन अंग्रेज़ खान की बहादुरी से बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने वाल्लाजाह को अपनी फ़ौज में जगह दे दी। फिर वाल्लाजाह कर्नाटक के नवाब बने गए और चाँद साहब की मौत हो गई।

बाक़ी की जंगों में, अंग्रेज़ खान की छापेमारी-युद्धनीति और सूझ-बूझ से इतने खुश हुए कि सन 1754 में,रोबर्ट क्लाईव, जो उन दिनों मद्रास में एक वरिष्ठ अधिकारी था, ने उन्हें अपनी देसी फ़ौजी टुकड़ी का कमांडर बना दिया। दिलचस्प बात ये है कि ऐसा पहली बार हुआ था, कि किसी भारतीय को अंग्रेज़ी सेना में ये ओहदा मिला था। इसी के साथ, उन्हें भारतीय सेना के ‘पितामह’ कहे जाने वाले स्ट्रिंगर लॉरेंस ने सोने का पदक भी भेंट किया था।

साल था सन 1757,तब बंगाल में प्लासी की युद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने भारत पर शिकंजा कसता जा रहा था। हालांकि इस क्षेत्र में उनका मुक़ाबला देसी राजाओं से ही था। कोई यूरोपीय ताक़त उनके सामने मौजूद नहीं थी। लेकिन दक्षिण में उन दिनों फ़्रांसीसी उन्हें कांटे की तरह चुभ रहे थे।सन 1758 में, तीसरे कर्नाटिक युद्ध (1756- 1761) के तहत, जब फ़्रांसीसी उच्चाधिकारी लैली ने मद्रास पर धावा बोला , तब ख़ान ने छापामारी-युद्धनीति के ज़रिए उसकी सेना के आपूर्ति के सभी मार्ग काट दिए और लैली की शर्मनाक हार हुई। उसके बाद, फ़्रांस को दक्षिण भारत में विस्तार के बजाए, पोंडिचेरी, माहे और करिकाल में अपने उपनिवेशों के साथ ही संतोष करना पड़ा।

ख़ान की इस बहादुरी के इनाम के तौर पर, अंग्रेज़ों ने उन्हें मदुरै और तिरुनेलवेली का सूबेदार बना दिया, जो वाल्लाजाह को नहीं रास आया । लेकिन वाल्लाजाह और अंग्रेज़ों के कर्नाटिक  पर बढ़ते  प्रभाव से क्रोधित स्थानीय पोलिगर सामंतों ने, उनके ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल बजा दिया। वाल्लाजाह के पास कोई चारा नहीं बचा था, तो उसे अंग्रेज़ों के साथ-साथ ख़ान के सामने मदद की गुहार लगानी पड़ी। सन 1761 में ये विद्रोह दोनों ने मिलकर कुचल दिया।

मदुरै में ख़ान अब स्थानीय लोगों के लिए ‘ख़ान साहब’ बन चुके थे, जिनके शासनकाल में  बराबरी, शान्ति और समृद्धि तीनों अपने चरम पर थीं। अंग्रेज़ों को वक़्त पर उनका लगान मिल तो जाता था, मगर उन्होंने ये भी पाया था, कि लोग ख़ान को बहुत पसंद करते थे, क्योंकि वहां न्याय, सुरक्षा और प्रशासन सब कुशलता से क़ायम था। उसने सिंचाई-प्रबन्धन, मरम्मत के कई कामों के अलावा कला और कलाकारों को भी प्रोत्साहित किया था। अब उनकी तरक़्क़ी और उनका नाम वाल्लाजाह को खटक रहा था क्योंकि उनके वजूद पर ख़तरा मंडराने लगा था।

लेकिन हालात तब बदले, जब वाल्लाजाह के तहत अब कुछ नए अंग्रेज़ी अधिकारी आ गए और उन्होंने ख़ान को आदेश दिया, कि लगान, अंग्रेज़ों के बजाए वाल्लाजाह को दिया जाए । इसकी वजह ये थी, कि वाल्लाजाह ख़ान की ताक़त को कम करना चाहते थे। उन्होंने इस मामले में अंग्रेज़ों की हमदर्दी भी हासिल कर ली थी। दरअसल वाल्लाजाह पर बहुत ज़्यादा क़र्ज़ चढ़ा हुआ था और मदुरै और तिरुनेलवेली दौलत के मामले में सबसे समृद्ध थे। फिर सन 1762 के आसपास ख़ान ने मदुरै में अपने शासन की अवधि को बढाने की अपील की, जिसे वाल्लाजाह ने ख़ारिज कर दिया।

मामले की तह तक जाकर और समझकर, सन 1763 में ख़ान ने बग़ावत का ऐलान कर दिया और ख़ुद को मदुरै का ख़ुद मुख़्तार शासक घोषित कर दिया। उसकी फ़ौज में क़रीब 10 हज़ार देसी पैदल सैनिक, 200 फ़्रांसीसी सैनिक, 17सौ घुड़सवार सैनिक , 15 हज़ार अनियमित सैनिकों के साथ सैंकड़ों तोपख़ाने थे। दिलचस्प बात ये थी, कि उनकी फ़्रांसीसी सेना का नेतृत्व उनके पुराने साथी मार्शंड कर रहे थे। ख़ान ने मैसूर के हैदर अली से भी मदद की मांगी, जो उन दिनों पहले आंगल-मैसूर युद्ध में व्यस्त थे। हैदर अली ने  इस पेशकश को ठुकरा दिया ।

अगस्त-नवम्बर, सन 1763 के बीच अंग्रेज़ों और वाल्लाजाह की फ़ौज ने मदुरै पर पहली बार हमला बोल दिया, लेकिन ख़ान और मार्शंड की संयुक्त सैन्य कुशलता के साथ ही, उत्तर-पूर्वी मानसून ने ख़ान की मदद की और वह जीत गए। अब ख़ान के ख़िलाफ़ वाल्लाजाह का ग़ुस्सा और बढ़ गया। वाल्लाजाह ने अंग्रेज़ों को ख़ान को पकड़कर फांसी पर चढाने का हुक्म दे दिया।

फ़रवरी सन 1764 में अंग्रेज़ों और वाल्लाजाह की फ़ौज ने मदुरै पर दोबारा हमला बोला दिया, लेकिन उन्हें थोड़ी-सी कामयाबी तभी हाथ लगी, जब उन्होंने अप्रैल तक मुदुरै के आपूर्ति के रास्ते काट दिए। फिर भी, स्थानीय लोगों ने ख़ान और उनके सिपाहियों की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी ।जब ख़ान की मजबूरियां बढने लगीं, तो उन्हें अंग्रेज़ों से बातचीत करनी पड़ी। इस दौरान अंग्रेज़ों को ख़ान के तीन क़रीबी साथियों, मार्शंड, दीवान श्रीनिवास राव और हकीम बाबा साहब को भारी रिश्वत देकर, ख़ान को पकड़वाने का उपाय सूझा।

खान ने आत्मसमर्पण करने का निर्णय ले लिया था, लेकिन उनकी शर्त थी कि गिरफ़्तारी के बाद, उन पर मद्रास के फोर्ट सेंट जोर्ज में मुक़दमा चलाया जाए । लेकिन वाल्लाजाह के हुक्म से 13 अक्टूबर, सन 1764 को, ख़ान को नमाज़ पढ़ते वक़्त मार्शंड ने धर-दबोचा और 15 अक्टूबर को, अंग्रेज़ों के ख़ेमे के सामने ख़ान को फांसी लगा दी गई।

फांसी के बाद, लोगों में दहशत फैलाने के लिए ख़ान के शरीर के कई टुकड़े किए गए और उन्हें मदुरै शहर के बाहर, कुछ दिनों तक सड़ने के लिए रख दिया जगया । इसके बाद उनके शरीर के अलग हिस्सों को तंजावुर, पलमकोटा और तिरुवनंतपुरम की अज्ञात जगहों पर और बचे हुए शरीर को मदुरै के सम्माटीपुरम में दफ़नाया गया था। ख़ान ने सम्माटीपुरम से ही मदुरै पर राज किया था।

वरिष्ठ अंग्रेज़ अधिकारी जॉन मैलकॉम, ख़ान को अंग्रेज़ी फ़ौज के सबसे क़ाबिल देसी अफ़सर मानते थे। अंग्रेज़ी अफ़सर एस. चार्ल्स हिल, ख़ान के जीवन पर लिखी किताब, ‘यूसुफ़ ख़ान द् रेबेल कमांडेंट’ (1914) में कहते हैं:

‘यूसुफ़ ख़ान एक गैरमामूली इंसान था ,जो किसी भी सामाजिक या राजनैतिक अस्थिरता के दौरान ख़ुद मोर्चे पर मौजूद रहता था। अगर उसे, उसके हिसाब से और बिना किसी बाहरी दख़लअंदाज़ी के, आपसी रंजिशों को सुलझाने का अवसर दिया जाता तो शायद वो अपनी आज़ादी क़ायम रखने में कामयाब हो जाता।’

ख़ान के जीवन पर आधारित स्थानीय तमिल गाथागीत ‘खान साईबू संडाई’ (ख़ान साहब की लड़ाई) पूरे तमिल नाडू में लोकप्रिय है। सन 1997 में अभिनेता और निर्देशक कमल हासन ने ख़ान की आत्मकथा को बड़े पर्दे पर लाने की मुहिम शुरू की थी।

उसी वर्ष इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ अपने भारत दौरे के वक़्त,‘मरुधनायागम’ नाम की इस फ़िल्म के सेट पर आईं थीं। हालांकि इस फ़िल्म के कुछ अंश ही शूट हो पाए थे। फिर वित्तीय और राजनैतिक कारणों से शूटिंग का काम रोक दिया गया था। फ़िल्म को दोबारा शुरू करने की कई बार कोशिशें हुईं लेकिन वह विफल ही रहीं। हालांकि संगीतकार इलायराजा का बनाया और कमल हासन का गाया, फ़िल्म का शीर्षक तमिल गीत आज भी यूट्यूब पर देखा और सुना जा सकता है।

मुख्य चित्र: तमिल वन इंडिया

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