शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह से संबंधित वास्तविक इतिहास से बेख़बर कुछ लेखक अज्ञानता और किसी विशेष मंशा की वजह से लगातार यह लिखते आ रहे हैं , कि अपने राजकाल के दौरान महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर के आलीशान मुग़ल स्मारकों तथा बाग़ों में से संगमरमर उखड़वा कर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर (श्री हरिमंदिर साहिब) में लगवा दिया था।
इस झूठ को अंग्रेज़ लेखकों के बाद पाकिस्तानी लेखकों ने लाहौर के इतिहास के बारे में प्रकाशित पुस्तकों तक ही सीमित नहीं रखा है, बल्कि इन असत्य तथ्यों को लाहौर के मुग़ल स्मारकों के बाहर सूचना-बोर्ड तथा होर्डिंग्ज़ पर भी चस्पा कर दिया गया है।
सन 1860 में शुरू हुआ था शेर-ए-पंजाब के विरूद्ध प्रचार
वास्तव में सन 1860 से लेकर आज तक लाहौर के स्मारकों और इतिहास के संबंध में प्रकाशित होने वाली हर पुस्तक में यही इल्ज़ाम लगाया जाता रहा है, कि महाराजा ने लाहौर के कुछ मक़बरों, मस्जिदों, बाग़ों और हवेलियों से संगमरमर उखड़वा कर अमृतसर के श्री हरिमंदिर साहिब में लगवा दिया था।
हालांकि अंग्रेज़ लेखकों की किताबों का ज़िक्र करते हुए पहली बार पंथ-रत्न ज्ञानी ज्ञान सिंह ने सन 1887 में लिखी अपनी पुस्तक ‘तवारीख़ श्री अमृतसर’ में सिर्फ़ इतना ही लिखा है, ”कुछ ईष्यालु लोग ये कहते हैं, कि महाराजा रणजीत सिंह ने जो संगमरमर श्री हरिमंदिर साहिब सरोवर के पुल पर लगवाया गया, वो जहांगीर के मक़बरे से उखड़वा कर लाया गया था।” इसके बाद उन्होंने या किसी अन्य भारतीय इतिहासकार या सिख विद्वान ने इस झूठे आरोप का कभी खंडन नहीं किया, जिसका नतीजा ये निकला कि आज पाकिस्तान में, इतिहास में रूची रखने वाला हर शख्स महाराजा रणजीत सिंह को मुग़ल मक़बरों की खूबसूरती को बिगाड़ने का गुनहगार और श्री हरिमंदिर साहिब में लगे संगमरमर को मक़बरों से उखाड़ा हुआ संगमरमर समझ रहा है।
किसने कब-कब लगाया महाराजा पर आरोप
इतिहास में पहली बार म्यो स्कूल आफ़ आटर्स (नया नाम नैशनल कॉलेज आफ़ आटर्स) लाहौर द्वारा सन 1860 में प्रकाशित पुस्तक ‘ट्रैवलर्ज़-1860’ (सफ़रनामा) में पुस्तक के लेखकों जे.एल. किपलिंग तथा टी.एच. थ्रॉन्टन ने आरोप लगाया था, कि महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शासन के दौरान लाहौर के ऐतिहासिक और आलिशान मक़बरों, मस्जिदों, बाग़ों और हवेलियों की खूबसूरती को बर्बाद करते हुए, वहां से संगमरमर उखड़वाकर अमृतसर के श्री हरिमंदिर साहिब में लगवा दिया था । हालांकि उन दोनों अंग्रेज़ लेखकों ने इस बात का कोई सबूत अपनी पुस्तक में पेश नहीं किया था। परन्तु सन 1892 में, खान बहादुर सैयद मोहम्मद लतीफ़ ने इसी पुस्तक को मुख्य स्रोत के रूप में अपनी किताब ‘लाहौर-1892’ में पेश किया। लतीफ़, किपलिंग तथा थ्रॉन्टन के आधार पर ही अंग्रेज़ अधिकारियों ने सन 1883-84, सन 1893-94 और सन 1916 में डिस्ट्रिक्ट गजे़टियर लाहौर में प्रकाशित कर दिया। उसके बाद यही सब पाकिस्तान में, लाहौर के संबंध में प्रकाशित होने वाली हर पुस्तक में शामिल किया गया। यह सिलसिला आज भी जारी है।
जे.एल. किपलिंग और टी.एच. थ्रॉन्टन ने अपनी किताब ‘ट्रैवलर्ज़-1860’ (इस पुस्तक को नैशनल कॉलेज ऑफ़ आटर्स ने कुछ वर्ष पहले ज्यों का त्यों प्रकाशित किया) में शालीमार बाग़ और नूरजहां के मक़बरे के बारे में स्पष्ट तौर पर में लिखा है, कि महाराजा ने लाहौर के कई मकबरों से संगमरमर उखड़वाकर अमृतसर के दरबार साहिब में लगवा दिया था।
इसी तरह ‘न्यू इम्पीरियल प्रैस लाहौर’ से छपी पुस्तक ‘लाहौर-1892’ में ख़ान बहादुर सैयद मोहम्मद लतीफ़ ने जहांगीर के मक़बरे, दिलकुश बाग़, मिर्ज़ा अबुल हसन ऑसफ़ ख़ान, नूरजहां के मक़बरे, परवेज़ के मक़बरे, नवाब बहादुर शाह के मक़बरे, मूला शाह के मक़बरे, ज़ैबूनिसा के बाग़ और मकबरे, शाह रूस्तम ग़ाज़ी, शाह शरफ़ के मक़बरे, परी महल तथा संगमरमरी समर हाऊस के बारे में लिखा है, कि महाराजा रणजीत सिंह इन तमाम स्मारकों से संगमरमर उखड़वा कर अमृतसर के श्री हरिमंदिर साहिब में लगवा दिया था।
इन्हीं तथ्यों को आधार पर सन 2003 में ‘संग-ए-मील पब्लिशर’ लाहौर से प्रकाशित किताब ‘लाहौर-रीकलेक्टैड: एन एलबम’ में लेखक फ़क़ीर सैयद अज़ीज़उद्दीन ने लिखा है, कि महाराजा रणजीत सिंह ने ऑसफ़ ख़ान, नूरजहां के मक़बरे और शालामार बाग़ से संगमरमर उखड़वाया था।
‘लाहौर थ्रू सैंचरीज़’ में एम. हनीफ़ रज़ा ने शाही क़िला लाहौर, जहांगीर और नूरजहां के मक़बरे, आसफट ख़ान और शालीमार बाग़ से महाराजा रणजीत सिंह द्वारा संगमरमर उखड़वा कर अमृतसर के दरबार साहिब में लगवाने की जानकारी प्रकाशित की है।
सन 2005 में एक मुहिम के तहत उठाया गया था ये मुद्दा
सन 2005 में एक मुहिम के तहत व्यक्तिगत तौर पर इस मुद्दे को उठाने वाले पंजाब के इतिहासकार एवं शोधकर्ता श्री सुरेंद्र कोछड़ कहते हैं कि महाराजा रणजीत सिंह ने अपने जीवन काल में श्री हरिमंदिर के सरोवर की सीढ़ियों तथा मंदिर की चौखटों पर जो संगमरमर की सेवा करवाई थी, उस पर उनके 21 हज़ार रूपय खर्च हुए थे। वे कहते हैं, कि सिख इतिहास से संबंधित पुस्तकों में प्रमुखता से दर्ज है – ”सन 1826 में निज़ाम हैदराबाद ने मित्रता की निशानी के तौर पर महाराजा रणजीत सिंह को एक चानणी लाहौर दरबार में भेंट की थी। उस चानणी में कई नग और सच्चे मोती जड़े हुए थे और उस समय उसकी क़ीमत एक लाख 53 हज़ार रूपय के क़रीब थी।
महाराजा के अहलकारों ने वो चानणी उनके शालीमार बाग़ (लाहौर) की बारादरी में बैठने से पहले वहां लगा दी। जब महाराजा ने सिर उठाकर चानणी की तरफ़ देखा तो उन्होंने कहा कि ये अमूल्य धरोहर तो सिर्फ़ बाबा रामदास जी के दरबार के ही लायक़ है और वे चानणी उतरवा कर अमृतसर दरबार साहिब में ले आए। पुजारी सिंह को सारी बात बताकर जब उन्होंने चानणी श्री हरिमंदिर साहिब में लगवाने की इच्छा प्रकट की, तो पुजारी सिंह ने कहा कि ये चानणी चाहे अनजाने ही में आप के ऊपर लगाई गई हो, पर इसका इस्तेमाल तो हो ही गया है। इसलिए यह अब श्री हरिमंदिर साहिब में नहीं लगाई जा सकती। यह सुनकर महाराजा ने, अनजाने में हुई भूल के लिए घुटनों के बल झुक कर क्षमा मांगी और क्षमा याचना के तौर पर अपने राज्य के दो बड़े गांवों भरनौरी (कांगड़ा) और नरैणपुर (गुरदासपुर) की जागीर श्री हरिमंदिर साहिब के नाम कर दी, जो आज भी जारी है।“
इतिहासकार श्री कोछड़ कहते हैं कि जिन ग्रंथी सिंहों ने महाराजा के सिर पर अनजाने में लगी इतनी मंहगी चानणी श्री दरबार साहिब में नहीं लगने दी, क्या उन्होंने किसी मस्जिद या मक़बरे का उखाड़ा हुआ संगमरमर दरबार साहिब में लगने देना था? क्या लाखों रूपयों का सोना, घोडे़-हाथी तथा अनेकों कीमती वस्तुएं दरबार साहिब में भेंट करने वाले महाराजा ने सिर्फ 21,000 रू. का संगमरमर मकबरों से उखड़वा कर श्री हरिमंदिर साहिब में लगवाना था? एक सोचने वाली बात ये भी है, कि क्या एक जगह से उतारा गया संगमरमर किसी दूसरे स्थान पर लग भी सकता है?
स्मारकों से उखाड़ा गया संगमरमर लाहौर में ही मौजूद
इस सबके बावजूद इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता, कि लाहौर के मुग़ल स्मारकों को कभी कोई नुक़सान नहीं पहुंचाया गया था या उनसे कभी संगमरमर नहीं उखाड़ा गया। अहमद शाह अब्दाली ने सन 1748 के बाद भारत पर कई बार हमले किए। हर बार लूटपाट करने के बाद वापसी के समय उसकी फौज लाहौर में अपना पड़ाव डालती और महीनों तक वहां लूटपाट करती थी। लाहौर का ऐसा कोई स्मारक नहीं बचा था ,जो उनके हाथों बर्बाद ना हुआ हो। ‘तारीख़-ए-पंजाब’ के अनुसार खालसा राज्य के दौरान ज़मींदार ख़ुशहाल सिंह ने लाहौर के मुग़ल स्मारकों का संगमरमर उखड़वाकर हज़ूरी बाग़ की बारादरी का निर्माण करवाया था।
इसके बाद ब्रिटिश शासकों ने लाहौर में काफ़ी उत्पात मचाया। जे.पी.एच. वोगल ने भी ‘हिस्टोरिकल नोट्स ऑन द लाहौर फ़ोर्ट’, सन 1911 में इसकी गवाही देते हुए लिखा है, कि ब्रिटिश शासन के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों ने शाही क़िले और लाहौर के अन्य स्मारकों से संगमरमर उखड़वाकर लाहौर के गैरीसन और अन्य चर्चों में लगवाया था। इससे स्पष्ट तौर पर यह प्रमाणित हो जाता है, कि अगर अब्दाली से लेकर ब्रिटिश शासन तक लाहौर के मुग़ल स्मारकों से जो संगमरमर उखाड़ा गया, तो वह कहीं और नहीं गया बल्कि लाहौर के ही मुगल स्मारकों की शान बना हुआ है।
सन 2010 में श्री अकाल तख़्त ने सुनाया था फ़ैसला
इतिहास में पहली बार सन 2005 में इतिहासकार श्री सुरेंद्र कोछड़ ने इस मुद्दे को सार्वजनिक किया था। उसके पाँच वर्ष बाद उस मुद्दे को संजीदगी से लिया गया और श्री अकाल तख़्त साहिब द्वारा 6 जून 2010 को पाँचों तख़्तों के सिंह साहिबान की हुज़ूरी में सर्वसम्मती से एक प्रस्ताव पारित किया गया । उस प्रस्ताव के तहत फ़ैसला लिया गया कि शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी की धर्म प्रचार कमेटी यह मामला पाक सरकार के समक्ष उठाएगी। हालांकि क़रीब 10 वर्ष बीत जाने के बाद भी इस संबंध में अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
पाक ने पहली बार क़ुबूल किया सच
देश के बँटवारे के बाद पहली बार पंजाब (पाकिस्तानी) के पुरातत्व विभाग के अधिकारी एवं लाहौर क़िले के क्युरेटर और सिख गैलरी के इंचार्ज डॉ. अंजुम दारा ने हाल ही में एक साक्षताकार में स्वीकार किया, कि पाकिस्तान में वर्षों से महाराजा रणजीत सिंह से संबंधित झूठा इतिहास पढ़ा और पढ़ाया जा रहा है। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा है, कि पाकिस्तान की पुस्तकों एवं समाचार-पत्रों में, इतिहास में अज्ञानता की वजह से लाहौर पर क़ाबिज़ रही भंगी मिसल के शासन में, लाहौर के मुग़ल स्मारकों में हुई लूट-खसूट को महाराजा रणजीत सिंह के शासन में की गई बताया जा रहा है। इसी वजह पहले अंग्रेज़ लेखकों और उनके बाद क़रीब सभी पाकिस्तानी इतिहासकारों ने श्री हरिमंदिर साहिब में लगे संगमरमर को शेरे-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह द्वारा लाहौर के मुग़ल मक़बरों से उखड़वाकर लगाया गया बताया गया है।
आज सबसे बड़ी ज़रूरत यह है, कि दोनों तरफ़ के विद्वानों और इतिहासकारों को मिल कर इस सारे मामले की तह तक जाना चाहिए। ताकि नई पीढ़ी के सामने निष्पक्ष इतिहास पेश किया जा सके और उन्हें हक़ीक़त से आगाह कराया जा सके।
मुख्य चित्र: आसफ़ खान का मक़बरा
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