इम्फाल में क़दम रखते ही, आपको एक नाम से रूबरू कराया जाता है…और वह है…. बीर तिकेन्द्रजीत. इनके नाम का हवाई अड्डा तो है ही, मगर साथ-ही-साथ उनके नाम का एक ख़ूबसूरत पार्क भी है, जहां पर आपको स्थानीय लोग आराम करते, पिकनिक मनाते, फ़ुटबॉल खेलते या फिर मोहब्बत के मूड में दिखाई देंगे. हर साल 13 अगस्त को सैन्य सम्मान के साथ यहां स्थित शहीद मीनार पर बीर तिकेंद्रजीत को याद किया जाता है. अब सवाल ये उठता है कि ये तिकेन्द्रजीत हैं आख़िर कौन ?
तिकेन्द्रजीत का वास्तविक नाम कोइरंग था. मणिपुर के इस महान क्रांतिकारी को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में उच्च दर्जा प्राप्त है. “मणिपुर का शेर” कहे जाने वाले तिकेन्द्रजीत के साहस से अंग्रेज़ सरकार भी प्रभावित थी. 29 दिसंबर सन 1855 को जन्में तिकेन्द्रजीत महाराजा चन्द्रकृति के चौथे बेटे थे.शाही परिवार से ताल्लुक़ रखने वाले तिकेन्द्रजीत अंग्रेज़ों की चाल से पूरी तरह वाक़िफ़ थे. वह हमेशा अपनी मणिपुरी जनता के लिये चिंतित रहते थे. मशहूर इतिहासकार डॉक्टर लोकेन्द्र अराम्बम का कहना है, कि तिकेंद्र्जीत बचपन से ही घुड़सवारी और पोलो के सूरमा खिलाड़ी थे. उनको हर प्रकार और हर क्षेत्र से जुड़े कामों का ज्ञान था. प्रजा को एक राजा से पहले इंसान की दृष्टि से देखने और हालात को समझकर मस्लेहत से काम लेने की महारथ तिकेंद्र्जीत ने वक़्त से पहले ही हासिल कर ली थी.
सन 1891 में अंग्रेज़ी हुकूमत के क़ब्ज़े से पहले, मणिपुर स्वतंत्र रियासत थी. लेकिन तब तक आपसी रंजिशों और सन 1819 से सन 1826 तक बर्मा में युद्ध की वजह से, अंग्रेज़ मणिपुर पर अपने पाँव कुछ हद तक जमा चुके थे. बर्मा के विरुद्ध, युद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों ने मणिपुर के राजकुमार गंभीर सिंह से मदद ली थी और बर्मा पर विजय पाने के बाद, गंभीर को राजा बना दिया गया था. मगर आगे चल कर महाराजा चन्द्रकृति के उत्तराधिकारी सुरचंद सिंह के समय से अंग्रेज़ों की मणिपुर रियास के आतंरिक मामलों मे दख़लंदाज़ी बढ़ती ही जा रही थी. उसी की वजह से सन 1891 में मणिपुर युद्ध हुआ. नेतृत्त्व तिकेन्द्रजीत, थांगल जनरल और पाओना ब्रजबशी कर रहे थे.
20 मई सन 1886 को चन्द्रकृति के निधन के बाद , बड़े बेटे सुरचंद्र ने राजगद्दी संभाली. इसी के साथ अन्य राजकुमारों ने भी अपने-अपने कार्यभार संभाले जिसमें से तिकेन्द्रजीत ने सेनापति का कार्यभर संभाला. अब आहिस्ता-आहिस्ता तिकेन्द्रजीत और उनके भाई पकासना के बीच तकरार बढ़ती चली गई और सुरचंद्र ने इसको नज़रअंदाज़ कर दिया। तिकेन्द्रजीत को शक था कि कहीं उनके बड़े भाई सुरचंद्र, दूसरे भाई पकासना का ज़्यादा साथ तो नहीं दे रहे. धीरे-धीरे अंग्रेज़ों ने इस मौक़े का फ़ायदा उठाना चाहा, और अपनी पुरानी रणनिति आज़मानी शुरू कर दी और अलगाव की भावना डालनी आरंभ कर दी।, जिसे सुरचंद्र ने नज़रंदाज़ कर दिया. तिकेन्द्रजीत को अंग्रेज़ों के इरादे समझ में आ गए थे, कि वो मणिपुर पर कब्ज़ा जमाना चाहते थे.
22 सितम्बर, सन 1890 में कई राजकुमारों के साथ मिलकर, तिकेन्द्रजीत ने शाही परिवार के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल बजा दिया जिसको मणिपुर के इतिहास में “दरबार विद्रोह” कहा जाता है. फिर दूसरे भाई कुलचंद्र राजा बने और तिकेन्द्रजीत उनके उत्तराधिकारी बने. वहीँ, सुरचंद्र वृन्दावन जाने का बहाना करके, कलकत्ता की ओर रवाना हो गए. वहां उन्होंने अंग्रेज़ों के सामने सिंहासन को वापस दिलवाने की गुहा लगाईं। मामले की जांच-पड़ताल करने के बाद, तय हुआ कि तिकेन्द्रजीत को मणिपुर की गद्दी से हटाया जाए और कुलचंद्र को महाराजा बनाया जाये. इस फ़ैसले पर उन्होंने अपना एक चीफ़ कमिश्नर भी नियुक्त किया.
500 सैनिकों के साथ, चीफ़ कमिश्नर क्विंटन मणिपुर पहुंचे । उन्होंने अपने दरबार में कुलचंद्र और तिकेन्द्रजीत को बुलवाया. लेकिन तिकेन्द्रजीत वहां नहीं पहुंचे । फिर उन्हें पता लगा कि उन्हें गिरफ़्तार करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन अंग्रेज़ तिकेन्द्रजीत को पकड़ने में नाकाम रहे. फिर उनके एजेंट ग्रिमवुड ने कुलचंद्र पर अपने अधिकार सौंपने के लिए दबाव बनाया. लेकिन इसमें भी उन्हें कामयाबी नहीं मिली. उसके बाद अंग्रेज़ों ने बलपूर्वक इस मुहिम को अंजाम देने की बात ठानी.
24 मार्च , सन 1891 को अंग्रेज़ों ने राजमहल के आँगन और फिर तिकेन्द्रजीत के घर हमला बोला. वहां रासलीला देखने आईं कई महीलायें और बच्चे मारे गए. मगर मणिपुरी फ़ौज ने इसका करारा जवाब दिया. पांच अंग्रेज़ अधिकारियों- क्विंटन, ग्रिमवुड, सिम्पसन और कौसिन्स को अपनी जान बचाने क् लिये छुपना पड़ा. अब इतने बड़े नुक़्सान के बाद, मणिपुरियों ने युद्ध की घोषणा कर दी.
31 मार्च सन 1891 को अंग्रेज़ सरकार ने तीन टुकड़ियों में अपनी सेनायें भेजीं. एक,मेजर जनरल कोलिट के नेतृत्व में कोहिमा, दूसरी, कर्नल रेनिक के नेतृत्व में सिलचर और तीसरी, ब्रिगेडियर जनरल ग्रैहम के नेतृत्व में तामू. ये सेनाएं मणिपुर की ओर आगे बढ़ीं. तिकेन्द्रजीत ने मणिपुरियों की ओर से मोर्चा संभाला।मगर महीने भर चली इस जंग के बाद, अंग्रेज़ों का कांगला महल पर कब्ज़ा हो गया और मणिपुर अंग्रेज़ों के अधीन हो गया. बालक चुरचांद सिंह को गद्दी बैठा दिया गया. तिकेन्द्रजीत और उनके साथियों ने छुपने की कोशिश की.लेकिन 23 मई सन 1891 को अंग्रेज़ों ने उन सभी को गिरफ़्तार कर लिया. कुलचंद्र को रियासत छोड़ने के आदेश दिये गये. तिकेन्द्रजीत और उनके साथी; थांगल दोनों दोषी क़रार दिया गया और दोनों के लिये फ़ांसी की सज़ा मुक़र्रर की गई.
मणिपुर विश्वविद्यालय की शिक्षिका एन. प्रमोदिनी देवी का कहना है कि तिकेंद्र्जीत का इतना गहरा असर था कि उनको बचाने के लिए महारानी विक्टोरिया ने भी अपील की थी.
रानी विक्टोरिया और मणिपुर की स्थाननीय महिलाओं के विरोधों के बावजूद, मणिपुर के इस शेर को खुले मैदान में 13 अगस्त सन 1891 को फ़ांसी दे दी गई. वह जगह आज बीर तिकेन्द्रजीत पार्क के नाम से जानी जाती है.
मणिपुर विश्वविद्यालय की शिक्षिका एन. प्रमोदिनी देवी का कहना है कि तिकेंद्र्जीत का इतना गहरा असर था कि उनको बचाने के लिए महारानी विक्टोरिया ने भी अपील की थी.
मणिपुर में हर वर्ष, 13 अगस्त को देशभक्त दिवस के तौर पर मनाया जाता है. इसी पार्क में जनता अपने इस शेर और उसकी क़ुर्बानी को याद करती है, जिसने मणिपुर की जनता की सुरक्षा और ख़ुशाहाली को अपने जीवन का लक्ष्य माना था.
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